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 कार्ल मार्क्स के महत्वपूर्ण विचार | Important ideas of Marx in Hindi

कार्ल मार्क्स

कार्ल मार्क्स

कार्ल  मार्क्स के महत्वपूर्ण विचार

कार्ल मार्क्स के प्रमुख विचार निम्नलिखित हैं- 1. द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद, 2. इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या, 3. वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त, 3. वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त, 4. अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त, 5. मार्क्स की पद्धति-क्रान्ति, 6.सर्वाहारी का अधिनायकवाद, 7. राज्य विहीन

1. द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद-

द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धान्त मार्क्सवाद का आधार प्रस्तुत करता है। यह सिद्धान्त भौतिकवाद की मान्यताओं को द्वन्द्वात्मक पद्धति के साथ मिलाकर सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या देने का प्रयत्न करता है। मार्क्स ने द्वन्द्ववाद की पद्धति हीगल से ग्रहण की थी। परन्तु हीगल के विपरीत मार्क्स का यह मानना है कि सृष्टि में एकमात्र वास्तविकता पदार्थ है न कि विचार मार्क्स के अनुसार भौतिक जगत में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। परिवर्तनों की यह प्रक्रिया सीधी रेखा में नहीं वरन द्वन्द्वात्मक शैली में होती है। परिवर्तन केवल परिणामपरक नहीं होता है। वरन परिणामपरक परिवर्तनों की प्रक्रिया को गुणात्मक परिवर्तन को जन्म देती है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की प्रक्रिया को ‘मार्क्सवाद, प्रगतिवाद’ तथा ‘संवाद’ की अवधारणाओं से व्याख्यायित करता है।

2. इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या—

मार्क्स ने आर्थिक तत्व को आधार बनाकर मानव-समाज की जो व्याख्या उसे इतिहास की आर्थिक व भौतिकवादी व्याख्या कहते हैं। यह व्याख्या इस मान्यता से आरम्भ होती है कि इतिहास के किसी भी युग में समाज के आर्थिक सम्बन्ध समाज की प्रगति का रास्ता तैयार करते हैं और वे राजनीतिक, कानूनी, सामाजिक, बौद्धिक और नैतिक सम्बन्धों का स्वरूप निर्धारित करने में सबसे बढ़कर प्रभाव डालते हैं। अर्थात आर्थिक सम्बन्धों में परिवर्तन से समाज का स्वरूप परिवर्तित हो जाता है। मार्क्स लिखता है। ‘पवन चक्की सामंती अधिपतियों से युक्त समाज को जन्म देती है, जबकि वाष्प चक्की औद्योगिक पूँजीपति से युक्त समाज को।

3. वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त-

मार्क्स का कहना है कि मानव इतिहास के प्रारम्भ से ही दो वर्ग चले आ रहे हैं। यह वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी रहा है। दूसरा वर्ग उन असंख्य श्रम जीवियों का कहा है जो अपने श्रम से मूल्य उत्पन्न करता है। इन दोनों वर्गों के हित सदैव एक-दूसरे के विरोधी रहे हैं, इसीलिए इनमें वर्ग संघर्ष होता रहा है। वर्ग संघर्ष की उपर्युक्त धारणा के आधार मार्क्स पूँजीवाद के अन्त को आवश्यक मानता है। यद्यपि पूँजीवाद का विनाश स्वतः ही अवश्यम्भावी है। फिर भी उसके विनाश के लिए मार्क्स ने श्रमिकों को क्रान्ति के लिए ललकारते हुए कहा, ‘विश्व के मजदूरों एक हो जाओं।’

4. अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त-

अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त का वर्णन मास ने अपनी पुस्तक ‘दास कैपिटल’ में किया है। मार्क्स ने पूंजीवादी व्यवस्था का जो विरोध किया है, उसका आधार अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त ही है। मार्क्स अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त रिकार्डों के विचारों से प्रभावित है। रिकार्डों के अनुसार किसी भी वस्तु के मूल्य का निर्धारण उस श्रम के आधार पर होता है, जो उसके उत्पादन पर किया जाता है। मार्क्स ने रिकार्डों के मत का समर्थन करते हुए कहा कि, प्रत्येक श्रमिक अतिरिक्त मूल्य का भी निर्माण करता है। मार्क्स ने अनुसार अतिरिक्त मूल्य उन दो मूल्यों का अन्तर है जिसे मजदूर और जिसे वह वास्तव में प्राप्त करता है। उसका कहना है कि अतिरिक्त मूल्य श्रमिकों के श्रम का फल है, अतः न्यायानुसार उन्हें मिलना चाहिए। परन्तु पूँजीपति श्रमिक को उतनी ही मजदूरी देता है जितने से श्रमिक जीवित मात्र रह सकता है। श्रमिक द्वारा उत्पन्न मूल्य का अधिकांश भाग को पूँजीपति स्वयं हड़प जाता है। इस प्रकार अतिरिक्त मूल्य पूंजीपति एवं श्रमिक वर्ग के संघर्ष का कारण है।

5. मार्क्स की पद्धति-क्रान्ति-

मार्क्स का मानना है कि पूंजीवाद का अंत और साम्यवाद का आगमन निश्चित है। परन्तु पूंजीवाद का अन्त, साम्यवाद की स्थापना शान्तिपूर्ण तरीके से नहीं की जा सकती है। ‘साम्यवादी घोषणा पत्र’ में मार्क्स एवं ऐजिल्स लिखते हैं कि, ‘साम्यवादियों को अपने विचारों और उद्देश्य छिपाने से घृणा है। वे खुले तौर पर घोषण करते हैं पैदा करता है। कि उनके लक्ष्य की प्राप्ति वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का बलपूर्वक उन्मूलन करके ही प्राप्त की जा सकती है। यदि शासक वर्ग साम्यवादी क्रान्ति से कांपता है तो उसे कांपने दो। श्रमिकों के पास अपनी बेड़ियों के अलावा खोने के लिए कुछ नहीं है और जीतने के लिए समस्त विश्व है।’

6.सर्वाहारी का अधिनायकवाद-

सामाजिक क्रान्ति के उपरान्त समाज में सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित हो जाता है। यह एक संक्रमण कालीन अवस्था है। जिसके दौरान पूँजीवादी व्यवस्था का विनाश किया जाता है। इस अवस्था में राज्य का स्वरूप पहले के भांति ही अधिनायकवादी रहता है। अन्तर केवल इतना है कि अब यह सर्वाहारा वर्ग के हाथों में पूंजीपति वर्ग और व्यवस्था के शोषण का यंत्र होता है। मार्क्स सर्वहारा वर्ग के अधिनायक तन्त्र ‘श्रमिकों के अर्ध राज्य’ को वास्तविक प्रजातंत्र मानता है क्योंकि मार्क्स से शब्दों में, ‘पूर्व के सभी ऐतिहासिक आन्दोलन अल्पसंख्यकों के थे या फिर अल्पसंख्यकों के लिए थे। सर्वाहारा वर्ग का आन्दोलन भारी बहुसंख्या का जागृत वह स्वतन्त्र आन्दोलन है, साथ ही यह भारी बहुसंख्या के हितों के लिए है।’ सर्वाहारा वर्ग के राज्य में निजी पूंजी जब्त कर ली जायेगी। उत्पादन के साधनों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जायेगा। उत्तराधिकार के अधिकार रद्द कर दिये जायेंगे। इस अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को अपने श्रम का पूरा मूल्य प्राप्त होगा। अतिरिक्त मूल्य जैसी किसी ईकाई का आस्तित्व नहीं होगा। नाम समाजवाद है इस संक्रमणकालीन अवस्थामा समाप्ति का जो अवस्था होती है, उसे

7. राज्य विहीन तथा वर्गविहीन समाज-

सर्वहारा के अनिनायकवाद का ही दूसर मार्क्स साम्यवाद का नाम देता है मार्क्स का मत है कि बुर्जुआ वर्ग को कुचल देने के बाद राज्य की आवश्यकता नहीं रहेगी। मार्क्स के अनुसार, ‘यद्यपि क्रान्ति स्वतः वर्ग आधार पर की जाती है फिर क्रान्ति के पश्चात जिस समाज की सृष्टि होगी, वह वर्ग विहीन होगा।’ वर्ग भेद समाप्त हो जाने पर प्रशासन की कोई अवश्यकता नहीं होगी यह प्रशासन वस्तुओं के प्रबंध व उत्पादन की प्रक्रिया के संचालन के रूप में बदल जायेगा। मार्क्स कहता है कि यह एक आदर्श अवस्था है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी ज्जमता के अनुसार कार्य करेगा और अपनी आवश्यकता के अनुसार पूंजी प्राप्त करेगा।’

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