वित्त की परिभाषा
वित्त की परिभाषा (Definition of Finance)- वित्त की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं।
1. होवार्ड एवं अपटन (Howard & Upton)- के अनुसार, “वित्त को रोकड़ एवं ऋण की व्यवस्था से सम्बद्ध एक ऐसे प्रशासनिक क्षेत्र अथवा किसी संगठन के प्रशासनिक कार्यों के एक ऐसे समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो संगठन को उसके उद्देश्यों की यथोचित पूर्ति के लिए आवश्यक साधनों की प्राप्ति में सहयोग प्रदान कर सके।”
2. हेस्टिंग्स (Hasttings) के शब्दों में वित्त धन प्राप्त करने तथा व्यय करने की कला एवं विज्ञान का नाम है।”
3. गुथमैन एवं डूग्गाल (Guthman & Dougall) के अनुसार “व्यापक परिभाषा के रूप में वित्त का सम्बन्ध ऐसी गतिविधियों से है जो व्यवसाय में प्रयुक्त कोषों के नियोजन, एकत्रण, नियन्त्रण एवं प्रशासन से जुड़ी हुई हो।”
उपयुक्त परिभाषा (Suitabe Definition)- विभिन्न विद्वानों की परिभाषाओं के अध्ययन के पश्चात् वित्त की एक उपयुक्त परिभाषा निम्न प्रकार दे सकते हैं।
” वित्त मौद्रिक संसाधनों (Monetary Resources) अथवा कोषों को उत्पादक उद्योगों में परिवर्तित करने की एक प्रक्रिया है, ताकि कोषों का अनुकूलतम उपयोजन हो सके।”
वित्त, मुद्रा, पूँजी व साख में अन्तर (Difference among Finance, Money, Capital and Credit)– यद्यपि वित्तीय प्रणाली का सम्बन्ध उपर्युक्त चारों से रहता है परन्तु इनमें आपस में निम्नलिखित अन्तर है। वित्त (Finance) का सम्बन्ध मौद्रिक संसाधनों से है।
2. मुद्रा (Money) विस्तृत रूप में विनिमय के माध्यम के व मूल्य के मापक व मूल्य के संचय के साधन के रूप में सामान्य रूप से स्वीकार की जाने वाली वस्तु है।
3. पूँजी (Capital) का सम्बन्ध उन सभी पदार्थों से है जो धनोत्पादन में सहायक होते है, जबकि साख (Credit) ऋण या उधार की वह धनराशि है जिसे ब्याज सहित वापस किया जाता है अर्थात् यह एक आर्थिक इकाई की ऋण (Debt) को प्रदर्शित करता है। अर्थव्यवस्था में
वित्त का महत्व (Role of Financial Economy)
अर्थ व्यवस्था में वित्त के महत्व निम्नलिखित हैं:
(A) व्यष्टि दृष्टिकोण (Micro Approach) 28 व्यष्टि दृष्टिकोण से वित्त का महत्त्व निम्नलिखित है।
(1) व्यवसाय का मूलभूत साधन (Basic Source of Business)- व्यवसाय का मूलभूत स्रोत वित्त ही है, क्योंकि बिना वित्त के व्यवसाय का संचालन संभव नहीं है। इसीलिए कहा जाता है कि व्यवसाय रूपी शरीर के लिए वित्त उसका जीवन रक्त (Life blood) है।
(2) व्यवसाय प्रारम्भ करने के लिए (commencement of Business)- व्यवसाय शुरू करने के लिए स्थायी एवं कार्यशील दोनों ही प्रकार की पूँजी की आवश्यकता पड़ती है: जैसे-वस्तु के उत्पादन के लिए मशीन एवं उपकरण खरीदने के लिए कच्चे माल को क्रय करने के लिए, कर्मचारियों को वेतन देने के लिए व व्यवसाय का दिन प्रतिदिन के खर्चे की पूर्ति के लिए सभी प्रकार के संगठनों को वित्त की आवश्यकता पड़ती है। अतः बिना वित्त के व्यवसाय प्रारम्भ नहीं किया जा सकता
(3) आधारित संरचना के निर्माण के लिए (To Raise Basic Structure )- व्यवसाय के उद्योग के लिए आधारभूत आर्थिक संरचना के निर्माण के लिए वित्त की आवश्यकता पड़ती है। उदाहरण के लिए कारखाने के लिए भूमि क्रय करने के लिए, भवन निर्माण के लिए, विद्युत, जल, टेलीफोन आदि की व्यवस्था के लिए पर्याप्त मात्रा में वित्त की आवश्यकता पड़ती है।
(4) विपणन व्ययों के लिए (Marketing Expenditure )- आधुनिक युग में विपणन कार्य, जैसे-विज्ञापन, विक्रय संवर्द्धन, मध्यस्थों की नियुक्ति, माल का वितरण, परिवहन, भण्डारण, विपणन, अनुसंधान में भारी राशि के विनियोग की आवश्यकता होती है।
( 5 ) श्रम कल्याण एवं सामाजिक सुरक्षा हेतु- अच्छे औद्योगिक सम्बन्धों के निर्माण के लिए, और श्रमिकों की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि व्यवसाय में श्रम कल्याण योजनाएँ; जैसे-आवास चिकित्सालय की, बच्चों की शिक्षा की, खेलकूद आदि की व्यवस्था के लिए वित्त की आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रकार श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा के लिए भविष्य निधि, ग्रेच्युटी, पेंशन आदि के लिए भी वित्त की आवश्यकता पड़ती है।
(6) व्यवसाय के विस्तार, विविधीकरण एवं आधुनिकीकरण के लिए- आधुनिक प्रतिस्पर्धी युग में यह आवश्यक हो गया है कि उद्योग में बने रहने के लिए व्यवसाय का न केवल विस्तार किया जाय, बल्कि उसका विविध करण आधुनिकीकरण भी आवश्यक है। उसके लिए न केवल स्थायी पूँजी की आवश्यकता पड़ती है, बल्कि कार्यशील पूँजी की भी आवश्यकता भी बढ़ जाती है। स्पष्टतया व्यवसाय के विस्तार एवं आधुनिकीकरण के लिए पर्याप्त वित्त का होना नितान्त आवश्यक है।
( 7 ) शोध एवं विकास के लिए- आधुनिक व्यवसाय की सकलता के लिए यह आवश्यक है कि उसका अपना पृथक शोध एवं विकास (Rand D) विभाग हो। इसके लिए भी प्रयोगशाला स्थापित करने, तकनीकी उपकरणों को खरीदने एवं वैज्ञानिकों की नियुक्ति के लिए बड़ीं धनराशि की आवश्यकता पड़ती है। अतः बिना वित्त के शोध एवं विकास कार्य सम्पन्न नहीं किये जा सकते।
(B) तीव्र आर्थिक विकास (Rapid Economic Development)- आर्थिक विकास का अर्थ है-अधिक उत्पादन या राष्ट्रीय आय में वृद्धि उत्पादन में वृद्धि के दो उपाय हैं, जो पूर्णतः वित्त पर निर्भर है (i) पूँजी विस्तार (Capital Widening) इस उपाय से अभिप्राय यह है कि देश में अधिक श्रमिकों को रोजगार देने के लिए मशीनों तथा यन्त्रों का अधिक प्रयोग किया जायेगा। कई उद्योग; जैसे-इस्पात, रसायन, इलेक्ट्रानिक आदि के लिए बहुत अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है। (ii) पूँजी गहन (Capital Deepening) इस उपाय से अभिप्राय यह है कि देश के वर्तमान श्रमिकों में से प्रत्येक को अच्छी मशीने दी जायें, उन्हें प्रशिक्षण दिया जाए तथा उनकी योग्यता में वृद्धि करने के प्रयत्न किये जायें। इसके फलस्वरूप राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति उत्पादकता में वृद्धि होगी। पूँजी विस्तार व पूँजी गहन क्रियाएँ दोनों साथ-साथ सम्पादित होती है जिसके लिए वित्त (Finance) की उपलब्धता एक पूर्व शर्त है।
(2) रोजगार सुविधाओं का विस्तार (Increase in Employment Opportunities) – रोजगार सुविधाओं के विस्तार के लिए भी वित्त की आवश्यकता होती है। जब तक पूँजीगत साधनों में वृद्धि नहीं होगी, तब तक रोजगार की सुविधाओं का विस्तार नहीं हो सकेगा। रोजगार में वृद्धि के लिए वित्त अनिवार्य है।
(3) आर्थिक विकास की उच्च अवस्थाओं की प्राप्ति (Achievement of Higher Stages of Economic Growth) यदि आर्थिक विकास को उच्च अवस्थाओं की ओर प्रगति समझा जाए तो यह प्रगति भी वित्त से सम्भव हो सकती है। वित्त का आकार किसी देश के आर्थिक विकस की आवश्यकता का सूचक होता है। फ्रेडरिक लिस्ट ने आर्थिक विकास की पाँच अवस्थाएँ बतायी हैं: (क) आखेट तथा मछली पकड़ने की अवस्था (Hunting and fishing Stage), (ख) पशुपालन अवस्था (Pastoral Stage), (ङ) कृषि अवस्था (Agricultural Stage), (घ) औद्योगिक अवस्था (Industrial Stage), (ङ) औद्योगिक एवं वाणिज्यिक अवस्था (Industrial and Commercial Stage) आर्थिक विकास की प्रत्येक अवस्था पिछली अवस्था से अधिक पूँजी गहन है: जैसे- कृषि की तुलना में उद्योगों में अधिक प्रति व्यक्ति वित्त की आवश्यकता होती है। और उद्योगों की तुलना में व्यापार में प्रति व्यक्ति के लिए अधिक वित्त चाहिए। इस प्रकार अधिक वित्त वाला देश अपने आपको आर्थिक विकास की उच्चतर अवस्था में पाता है। अतः वित्त ही आर्थिक विकास की गाड़ी का पहिया है।
( 4 ) मानवीय पूँजी का निर्माण (Human Capital Formation)- वित्त से ही मानवीय पूँजी का विकास या निर्माण सम्भव है। स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक सेवाओं और समाज कल्याण पर किया गया व्यय मनुष्यों पर किया गया व्यय होता है। स्पष्टतः यह भेद मनुष्य में पूँजी का विनियोग है अर्थात् मानवीय पूँजी का निर्माण है। इससे श्रम की कार्यक्षमता में पर्याप्त सुधार होता है। अतः श्रम शक्ति बढ़ाने का एक प्रभावशाली उपाय यह है कि श्रमिकों में पूँजी विनियोग करके उनकी कार्यक्षमता बढ़ायी जाये । पर ऐसे सुधारों में भी वित की आवश्यकता होती है। प्रो. साइमन कुजनेट्स के अनुसार, “प्रमुख पूँजी स्टॉक जनता का चरित्र, प्रशिक्षण एवं कार्य कुशलता सुधार होता है। ” है । शिक्षा और स्वास्थ्य में किये गये विनियोगों से श्रम की कार्यक्षमता में पर्याप्त
( 5 ) तकनीकी प्रगति (Technical Progress)- वित्त की अर्थव्यवस्था में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका तकनीकी प्रगति को प्रोत्साहन देना है। आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है कि देश में प्रौद्योगिकी अर्थात् तकनीक का स्तर विकसित हो और वह तभी सम्भव हो सकता है जब आधुनिक तकनीकों को लागू करने के लिए देश में पर्याप्त वित्त उपलब्ध हो। वित्त की बढ़ती हुई उपलब्धता राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि करके उत्पादन की पुरानी तकनीकों को विकसित तकनीक से प्रतिस्थापित करने में सहायक सिद्ध होता है ।
( 6 ) ऊपरी व्यय पूँजी का निर्माण (Creation of Overhead Capital )– आर्थिक विकास के लिए सड़कों, यातायात के साधनों, नहरों, बहुमुखी योजनाओ, बिजलीघरों आदि ऊपरी व्यय पूँजी का बहुत महत्त्व है। इसका विकास हुए बिना आर्थिक विकास सम्भव नहीं होता। अतएव ऊपरी व्यय पूँजी की सुविधाएँ बढ़ाने के लिए वित्त का बहुत अधिक महत्त्व है।
(7) अन्तर्राष्ट्रीय वित्त की भूमिका (Role of International finance)- अर्थव्यवस्था के विकास में न केवल आन्तरिक वित्त (Domestic Finance) की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है बल्कि अर्थव्यवस्था के विकास के प्रारम्भिक चरणों में अन्तर्राष्ट्रीय वित्त (विदेशी सहायता व ऋण ) का महत्वपूर्ण स्थान होता है। इसे विदेशी वित्त (External Finance) तथा आयातित पूँजी (Imported Capital) कहते है।
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