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धार्मिक बहुलतावाद पर निबन्ध | What is religious pluralism?

धार्मिक बहुलतावाद पर निबन्ध
धार्मिक बहुलतावाद पर निबन्ध

धार्मिक बहुलतावाद पर निबन्ध

धार्मिक बहुलतावाद पर निबन्ध– भारतीय समाज का धर्म से गहरा सम्बन्ध रहा है। धर्म की यह परम्परा भारतीय समाज की अति प्राचीन परम्परा है और पूर्व-वैदिक काल से ही इसकी निरन्तरता अविछिन्न रूप से बनी है। यह विश्वास किया जाता है कि मनुष्य के सभी क्रिया-कलापों का अंतिम लक्ष्य धन संचय करना है। किंग्सले डेविस ने अपनी पुस्तक ‘ह्यूमन सोसाइटी’ में लिखा है, “धर्म मानव समाज का ऐसा सर्वव्यापी, स्थायी और शाश्वत तत्व है जिसे समझे बिना समाज के रूप को बिल्कुल भी नहीं समझा जा सकता। जिस प्रकार, पाश्चात्य समाज अर्थ व भौतिक सुख पर अवलम्बित है, उसी प्रकार, भारतीय समाज धर्म पर अवलम्बित है। समाजशास्त्रियों ने धर्म के तीन पक्षों पर अधिक बल दिया है। पहला पक्ष ‘धर्म की वैचारिकी’ से सम्बन्धित है। इसके अन्तर्गत हम उन सिद्धान्तों पर नैतिक नियमों को सम्मिलित करते हैं जो हमारे व्यवहारों को एक विशेष रूप देते हैं। दूसरे पक्ष का सम्बन्ध उन विश्वासों से है जो मनुष्य और अलौकिक शक्ति के सम्बन्ध को स्पष्ट करते हैं। तीसरे पक्ष का सम्बन्ध उन विभिन्न अनुष्ठानों से होता है जिन्हें पूरा करके व्यक्ति मानसिक रूप से अपने आपको सन्तुष्ट महसूस करता है।

हिन्दू धर्म (Hindu Dharma) –

हिन्दू धर्म भारत का सबसे प्राचीन व मौलिक धर्म रहा है। भारतीय समाज में इस धर्म को मानने वाले लोगों की संख्या सबसे अधिक है। हिन्दू धर्म की विशेषता यह है कि इसमें धर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के कर्त्तव्यों, करने योग्य कार्यों और पवित्र जीवन से है। सभी हिन्दू वेदों को अपने सबसे प्राचीन धर्मग्रन्थ के रूप में स्वीकार करते हैं। लेकिन हिन्दुओं के अधिकांश धार्मिक विश्वास और व्यवहार के तरीके वे हैं जिनका वेदों से नहीं बल्कि पुराणों और स्मृतियों में दिये गये व्यवहार के नियमों से सम्बन्ध है। डॉ. राधाकृष्णन ने लिखा है कि “जिन सिद्धान्तों के अनुसार हम अपना दैनिक जीवन बिताते हैं तथा जिनके द्वारा हम विभिन्न प्रकार के सम्बन्ध स्थापित करते हैं, वही धर्म है।

इस्लाम धर्म (Islam Dharma) –

इस्लाम धर्म भारतीय समाज में हिन्दू धर्म के बाद दूसरा एवं प्रमुख स्थान रखता है। इस धर्म के मानने वाले लोगों की संख्या हिन्दू धर्म वाले लोगों के बाद सबसे बड़ी है। इस्लाम धर्म का आरम्भ यहाँ आठवीं शताब्दी से शुरू हो गया था, किन्तु जब तुर्क, अफगान और मुगलों ने यहाँ वर्षों तक शासन किया तब इस धर्म के मानने वाले लोगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई । इस्लाम धर्म दो सम्प्रदायों शिया और सुन्नी में विभाजित है। सुन्नियों की संख्या भारतीय समाज में शिया लोगों की तुलना में काफी अधिक है। व्यावहारिक रूप से भी मुसलमान अनेक उच्च और निम्न जातियों में बंटे हुए हैं जबकि सैद्धान्तिक रूप से सभी मुसलमान समान हैं। इस्लाम के अनुसार, व्यक्ति का सामाजिक, आर्थिक जीवन पूरी तरह धार्मिक नियमों के अधीन है।

ईसाई धर्म (Christianity ) –

वर्तमान समय में दिखायी देने वाले ईसाई धर्म का आरम्भ ईसा मसीह द्वारा किया गया। ईसा मसीह का जन्म फिलस्तीन के येरूशलम के पास एक यहूदी परिवार में हुआ था। ईसा द्वारा इस धर्म में फैले हुए अन्धविश्वासों और कुरीतियों का विरोध किया गया। फलस्वरूप रोमन पुरोहित इन्हें अपना विरोधी मानकर दण्ड देने की माँग करने लगे। मात्र 33 वर्ष की आयु में ईसा को क्रूश (क्रास) पर कीलों से जड़कर मारने की सजा दे दी गयी। ईसा द्वारा बतायी गयी शिक्षाओं और सिद्धान्तों का उल्लेख ‘न्यू टेस्टामेंट’ में मिलता है। इस्लाम धर्म के समान ईसाई धर्म की भी दो शाखायें हैं- (क) कैथोलिक, (2) प्रोटेस्टेंट। कैथोलिक शाखा के अनुयायी चर्च के विधि-विधानों के अनुसार व्यवहार करना जरूरी मानते हैं जबकि प्रोटेस्टेंट शाखा उन सुधारवादी लोगों से सम्बन्धित है जो धर्म में वैयक्तिक स्वतन्त्रता को जरूरी समझते हैं। भारत में इन दोनों शाखाओं के अनुयायियों की संख्या का प्रतिशत लगभग बराबर । संख्या में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट ईसाई लगभग बराबर होने के बाद भी कैथोलिक चर्च अपने आपको ऊँचा मानते हैं। अनेक विद्वानों के अनुसार, भारत में पहले ईसाई चर्च की स्थापना दूसरी सदी के अन्त में हुई थी।

सिख धर्म (Sikhism)-

सिख धर्म की स्थापना मध्य काल में गुरु नामक देव के उपदेशों द्वारा हुई। मध्यकाल एक ऐसा समय था। जब हिन्दू धर्म में कुरीतियों, कर्मकाण्डों और रूढ़िवादिता का बोलबाला था। उस समय गुरु नानक देव ने कर्मकाण्डों का विरोध कर घोषणा की कि “एक अकाल प्रभु की सन्तान होने के कारण सभी लोग आपस में भाई-भाई हैं, सबका ईश्वर एक है और ईश्वर ने सभी को समान बनाया ‘गुरु नानक के इन विचारों के आधार पर ही सिखों के पवित्र धर्म ग्रन्थ ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ में रामानन्द, कबीर, धन्ना, शेख, फरीद, सूरदास, त्रिलोचन और संत रविदास जैसे पन्द्रह भक्तों के भजन शामिल हैं। विशेष बात यह है कि यह सभी विभिन्न धर्मों और जातियों से सम्बन्धित थे। 

सिख का शाब्दिक अर्थ होता है ‘शिष्य’ अथवा ‘चेला’ । अतः जो व्यक्ति गुरु नानक देव की परम्परा से सम्बन्धित गुरुओं को अपने आपको चेला मानते हैं और उनके बताये रास्ते /पर चलते हैं, वे लोग ही सिख हैं। सिख धर्म में दस प्रमुख गुरु हुए हैं। सन् 1604 में सिखों के पाँचवें गुरु अर्जुन देव द्वारा ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ की रचना की गयी जबकि सिखों के दसवें और अन्तिम गुरु गोविन्द सिंह ने वैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की। यही कारण है कि वैसाखी सिखों का महत्वपूर्ण पर्व माना जाता है। खालसा पंथ में सिखों के लिए पाँच चीजों का उपयोग करना आवश्यक है। ये हैं- केश, कंघा, कृपाण, कच्छ और कड़ा। ये सभी चीजें सिखों को सैनिक रूप प्रदान करती हैं।

बौध धर्म (Buddhism) –

भारत में उत्पन्न हुए धर्मों में बौद्ध धर्म सर्वाधिक प्रभावशाली व विकसित धर्म सिद्ध हुआ है। इस धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध थे। बुद्ध का बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनका गोत्र गौतम था और ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् उन्हें बुद्ध पुकारा गया। कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनीवन नामक स्थान पर 566 ई.पू. के लगभग उनका जन्म हुआ। बुद्ध को क्षत्रियोचित शिक्षा प्रदान की गयी लेकिन उनका मन प्रारम्भ से ही संसार से विरक्त था। कुछ विद्वानों के अनुसार, “बुद्ध एक नये धर्म के संस्थापक नहीं अपितु हिन्दू धर्म के सुधारक थे। बुद्ध एक ऐसे सन्त थे जिन्होंने सत्कर्म और नैतिकता पर बल दिया। बुद्ध ने जो नैतिक नियम बनाये थे वे भी नवीन न थे अपितु किसी-न-किसी रूप में पहले से ही उपस्थित थे। बुद्ध ने तो संघों का निर्माण करके नैतिक सिद्धान्तों को केवल बल प्रदान किया। बुद्ध के सिद्धान्त चार सत्यों पर आधारित थे, जिन्हें वे चार आर्य सत्य कहा कहा करते थे। ये सत्य हैं- (1) जीवन दुःखमय है, (2) दुःख का कारण है, (3) दुःख को दूर किया जा सकता है, तथा (4) दुःख को दूर करने वाले रास्ते पर चलना ही ज्ञान है। अर्थात् मनुष्य को सत्य मार्ग का ज्ञान होना चाहिए।

जैन धर्म (Jainism) –

जैन धर्म के प्रतिपादक वर्धमान महावीर हैं। जैन धार्मिक विचारधारा के अनुसार जैनियों के 24 तीर्थंककर हुए हैं। ऋषभ इनके सबसे पहले और महावीर 24वें तीर्थंकर हैं। वर्धमान महावीर का जन्म वैशाली के निकट कुण्डग्राम में 540 ई.पू. के लगभग हुआ। अपने माता-पिता की मृत्यु के उपरान्त तीस वर्ष की आयु में महावीर ने परिवार को त्याग दिया और संन्यासी बन । तपस्वी जीवन के 12 वर्ष पश्चात् जिम्भिका ग्राम के निकट रिजुपालिका नदी के तट पर साल वृक्ष नीचे महावीर को सत्य का ज्ञान हुआ। अपनी इन्द्रियों के को जीतने के कारण वे ‘जिन’ कहलाये जबकि अपने पराक्रम के कारण महावीर के नाम से विख्यात हुए। तत्पश्चात् महावीर स्वामी ने धर्म प्रचार का कार्य आरम्भ किया। चम्पा, वैशाली, राजग्रह, श्रावस्ती, मिथिला और इनके निकटस्थ क्षेत्र उनके प्रचार के केन्द्र स्थल रहे। 72 वर्ष की आयु में 468 ई.पू. के लगभग पावा अथवा पावापुरी (पटना) में उनकी मृत्यु हुई।

वास्तव में वर्धमान महावीर ने किसी नवीन धर्म को जन्म नहीं दिया था अपितु पहले से स्थापित धर्म में सुधार किया था। जैन धर्म में अहिंसा और तपस्या पर सबसे अधिक बल दिया गया। अहिंसा का तात्पर्य सभी जीवों पर दया करना है। जैन धर्म के अनुसार मनुष्य को बुरे कर्मों से बचना चाहिए। इस हेतु मनुष्य को जैन धर्म के पाँच सिद्धान्तों का पालन करना चाहिए। ये पंच महाव्रत हैं- (1) सत्य, (2) अहिंसा, (3) अपरिग्रह, (4) अस्तेय, (5) ब्रह्मचर्य। पंच महाव्रत के अतिरिक्त त्रिरत्नों का पालन करना भी आवश्यक बताया गया है। ये त्रिरत्न हैं- सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् आचरण । त्रिरत्नों का पालन करने से कर्मों का बहाव जीव की ओर रुक जाता है। इसे संवर कहते हैं। जब जीव में पहले से किये गये कर्म का प्रभाव समाप्त होने लगता है तो उसे ‘निर्जरा’ कहते हैं। जैन धर्म ने पापों की भी व्याख्या की है। अर्थात् कर्म-बन्धन में फाँसने वाले कार्य ही पाप हैं। ये 18 प्रकार के पाप हैं- (1) अभिमान, (2) कलह, (3) हिंसा, (4) झूठ, (5) क्रोध, (6) परिग्रह, (7) मोह, (8) दोषारोपण, (9) रति, (10) लोभ, (11) माया, (12) चोरी, (13) असंयम, (14) मिथ्या दर्शन, (15) छल-कपट, (16) निन्दा, (17) चुगली, (18) ईर्ष्या ।

जैन धर्म के अनुसार उपर्युक्त पापों और कर्मों के त्याग द्वारा मनुष्य निर्वाण प्राप्ति के मार्ग पर बढ़ता है। निर्वाण तीन बातों पर निर्भर है- (1) सत्य विश्वास, (2) सत्य ज्ञान और (3) सत्य कर्म । इन्हें ही तीन रत्न पुकारा गया है।

जैन धर्म मुख्यतया दो भागों में विभाजित है- (1) दिगम्बर शाखा और (2) श्वेताम्बर . शाखा दिगम्बर शाखा के संत किसी भी प्रकार का वस्त्र नहीं पहनते। जबकि श्वेताम्बर शाखा के संत सफेद वस्त्र पहनते हैं। किसी भी तरह की हिंसा से बचने के लिए अपने मुँह पर कपड़ा बाँधते हैं।

इस प्रकार प्रारम्भ में जैन धर्म एक लोकप्रिय धर्म के रूप में उभरा यद्यपि बाद वह में बौद्ध तथा हिन्दू धर्म की तुलना में खड़ा न हो सका। परन्तु तब भी भारत में जैन धर्म मतावलम्बी अब भी बड़ी संख्या में हैं।

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