मूल्य शिक्षा की अवधारणा- जैसा कि हम जानते हैं कि मानव एक सामाजिक प्राणी है। इसलिए शिक्षा मानव जीवन की आधार साबित होती है। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व कार्य व्यक्ति एवं समाज के उत्थान व कल्याण में सहयोग देना है। यह उत्थान उन्नति, प्रगति, विकास तथा कल्याण तभी संभव है जबकि समाज के सभी व्यक्तियों में जीवन के विभिन्न पक्षों में जैसे- सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, नैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक आदि से सम्बन्धित आवश्यक मूल्यों का विकास हुआ हो।
मूल्यों का स्वरूप-
मूल्यों के स्वरूप को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-
- मूल्य एक अमूर्त संप्रत्यय है जिसका सम्बन्ध मानव के अन्तर्मन से होता है।
- मूल्य मनुष्य के व्यवहार को निर्देशित एवं नियन्त्रित करते हैं।
- समाजों के अलग-अलग मूल्य होते हैं। मूल्यों से ही उनकी पहचान होती हैं।
- मानव के अन्दर मूल्यों का विकास समाज की विभिन्न क्रियाओं (सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक) में भाग लेने से होता है।
- व्यक्तियों द्वारा मूल्य पालन करने पर संतोष प्राप्त होता है। मूल्य की रक्षा के लिए लोग जान तक दे देते हैं।
- व्यक्ति, समाज और राष्ट्र सभी स्वयं के मूल्य की रक्षा करते हैं, किन्तु साथ ही आवश्यकता होने पर इसमें परिवर्तन भी करते हैं।
- मूल्य किसी समाज द्वारा माने गये नैतिक नियम, आदर्श, सिद्धान्त, विश्वास एवं व्यवहार मानदण्डों को व्यक्तियों द्वारा माना गया महत्त्व है।
- मूल्य मनुष्य को उचित-अनुचित, अच्छा-बुरा और कोई कार्य न करने का निर्णय लेने में सहयोग करते हैं।
- मूल्य दीर्घकालीन अनुभव का परिणाम होते हैं।
मूल्य शिक्षा वह शिक्षा है, जिसके अन्तर्गत बालकों को मूल्यों की शिक्षा प्रदान की जाती है। वस्तुतः मूल्य शिक्षा के दो अर्थ है-
(1) मूल्य से सम्बन्धित शिक्षा- इससे तात्पर्य ऐसी शिक्षा से है जिसके अन्तर्गत पाठ्यक्रम के विभिन्न विषयों में मनोवैज्ञानिक विधि से सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक, आध्यात्मिक आदि मूल्यों को समाहित करके अर्थात् उक्त विभिन्न विषयों को मूल्य परक बनाकर सामान्य शिक्षण प्रक्रिया से ही उन मूल्यों का छात्रों में विकास करते हैं, ताकि उनका सर्वोन्मुखी विकास हो सके।
(2) मूल्यों की शिक्षा- मूल्यों की शिक्षा का अर्थ, उस शिक्षा से है जिसके अन्तर्गत हम सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा, इतिहास, अर्थशास्त्र, भूगोल, भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, जीव विज्ञान आदि की शिक्षा की भाँति एक स्वतन्त्र विषय के रूप में देना चाहते हैं।
मूल्य परक शिक्षा के उद्देश्य
मूल्य परक शिक्षा के निम्नवत् उद्देश्य हैं-
(1) बालक को राष्ट्र की सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक परिस्थितियों के संबंध में जागरुक बनाना तथा उन परिस्थितियों में वांछित सुधार हेतु प्रोत्साहित करना।
(2) स्वयं के प्रति अपने मित्रों के प्रति मानवता, राष्ट्र, सभी धर्मों संस्कृतियों, जीवन, पर्यावरण आदि के प्रति समुचित दृष्टिकोण का विकास करना।
(3) वैज्ञानिक दृष्टिकोण विभेदीकरण की शक्ति श्रम गरिमा समानता, बन्धुत्व, शान्ति, अहिंसा, प्रेम, साहस, सहयोग, परोपकार आदि मूलभूत गुणों का बालक में विकास करना।
(4) बालक को ‘उत्तरदायी नागरिक बनाने के लिए प्रशिक्षण देना।
(5) बालक को स्वयं को जानने के लिए प्रोत्साहित करना ताकि वे स्वयं के प्रति आस्था स्थिर रख सकें।
(6) धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, समाजवाद, राष्ट्रीय एकता जैसे ‘राष्ट्रीय लक्ष्यों का ज्ञान प्राप्त करना।
मूल्य शिक्षा के लक्षण
मूल्य शिक्षा की निम्नवत् विशेषताएँ हैं-
(1) मूल्य शिक्षा पर किसी शिक्षक का आधिपत्य नहीं होना चाहिए, बल्कि यह उत्तरदायित्व शिक्षालय के सभी शिक्षकों का होना चाहिए।
(2) मूल्य परक शिक्षा हेतु जहाँ तक सम्भव हो छात्रों में स्वप्रेरणा होनी चाहिए। अतः इस शिक्षा को छात्रों पर प्रतिरोपित नहीं करना चाहिए।
(3) मूल्य शिक्षा को स्वतन्त्र पाठ्यक्रम के रूप में स्थान देकर विभिन्न विषयों में इसके मूल्यों को मनोवैज्ञानिक ढंग से स्थान दिया जाना चाहिए।
(4) मूल्य परक कार्यक्रम की सफलता परिवार, विद्यालय के आदर्श वातावर तथा अध्यापक के आधार पर निर्भर करती है।
(5) मूल्य शिक्षा को समाज की सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था के संदर्भ में क्रियान्वित किया जाना चाहिए।
(6) मूल्य शिक्षा धार्मिक शिक्षा से भिन्न हैं, अतः उसमें धर्म पर विशेष वांछित बल नहीं दिया जाना चाहिए।
(7) मूल्य की शिक्षा बालकों की आयु एवं स्तर के अनुरूप ही देनी चाहिए।
(8) भारतीय संविधान में निर्देशित मूल्य तथा सामाजिक उत्तरदायित्व मूल्य पर शिक्षा का केन्द्र बिन्दु होना चाहिए।
मूल्य शिक्षा की आवश्यकता
मूल्य शिक्षा की निम्नवत् आवश्यकताएँ हैं-
(1) मूल्य ह्रास रोकने तथा मूल्यों को पुनर्स्थापित करने हेतु- मानव कभी पुरातन मूल्यों की ओर आकर्षित होता है तो कभी आधुनिकता की भ्रामक अवधारणा की ओर। इस समय समाज में उपभोक्ता संस्कृति का वर्चस्व है और हमारे जीवन-मूल्यों में तीव्र गति से पतन हो रहा है। मूल्यों के हास व पतन के कारण मानव जीवन-दिशाविहीन हो गया है और व्यक्ति, समाज, परिवार, समुदाय व देश में विघटनकारी प्रवृत्तियाँ पनप रही हैं। इनसे बचने के लिए हमें न केवल मूल्यों के पतन को रोकना होगा। बल्कि मूल्यों को फिर से स्थापित करना होगा। इसके लिए मूल्य शिक्षा की अत्यधिक आवश्यकता है।
(2) मूल्य अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति से बचने हेतु- वर्तमान समय में भारत में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास करके जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धियाँ अवश्य अर्जित की है, लेकिन जब हम अपनी संस्कृतियों एवं मूल्यों पर विचार करते हैं, तो हम संतुष्ट नहीं हो पाते क्योंकि हमारी संस्कृति तथा उनमें जीवन मूल्यों का दिन-प्रतिदिन पतन होता जा रहा है। आज हमारे सामने बहुत सी विषय परिस्थितियाँ हैं। एक तो हमें भारतीय मूल्यों का ज्ञान नहीं है तथा यदि हमें भारतीय मूल्यों का ज्ञान है भी तो हम उनके प्रति आस्था नहीं रखते और मूल्य विहीन व्यवहार करने में जरा भी संकोच नहीं करते। बहुत ऐसे लोग भी हैं जिन्हें मूल्यों का ज्ञान तो है लेकिन उनके अनुसार चलना हम पिछड़ेपन का प्रतीक समझते हैं और आधुनिकता की दौड़ में हम इतनी तेजी से चलना चाहते हैं कि हमारे मूल्य उस दौड़ में विलुप्त हो जाते हैं। इस मूल्य अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति से बचने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि मूल्य व मूल्यपरक शिक्षा द्वारा छात्रों को वांछित मूल्यों का ज्ञान करायें एवं उनके अनुकूल चलने के लिए प्रेरित करें।
(3) सुखद भावी जीवन हेतु- पाश्चात्य देशों की तरह भारत में भी धीरे-धीरे उपभोक्ता संस्कृति विकसित हो रही हैं और व्यक्ति अपने भौतिक सुख एवं ऐश्वर्य की सभी वस्तु प्राप्त करना चाहता है। व्यक्ति इन्द्रिय सुख में आस्था रखता है और दूसरे के हित को भूलकर स्वकेन्द्रित होता जा रहा है। ऐसी स्थित में आज व्यक्ति के सुखद भविष्य व उसके व्यक्तित्व के संतुलित विकास के लिए सामाजिक, नतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा की अनिवार्य आवश्यकता है। इससे मनुष्य स्वयं को अमानवीय, अलगावाद एवं सांस्कृतिक विपत्रता को दूर रख सकेगा जो उसके सुख-समृद्ध के लिए जरूरी है।
(4) अनैतिकता की परख हेतु- अनैतिकता की परख हेतु बालक को मूल्य शिक्षा दिया जाना आवश्यक है। बालक उसी आचरण को करता है, जो उसके माँ-बाप, पड़ोस, विद्यालय एवं समुदाय करता रहता है। धीरे-धीरे वह जब बड़ा होने लगता है, तो चिन्तन के द्वारा अच्छी-खराब बातें समझ कर व्यवहार में उतारता है। इसलिए यह आवश्यक है कि बालक को सदैव अच्छे वातावरण में रखा जाए, तत्पश्चात् उसे उचित रूप से मूल्य शिक्षा के ज्ञान को आधानित किया जाए।
(5) भौतिक संस्कृति तथा आध्यात्मिक संस्कृति में समन्वय हेतु- भारतीय संस्कृति का आधार आध्यात्मिक दर्शन है। परन्तु यह धारणा वस्तुतः प्राचीनकालीन थी। आज भारतीय संस्कृति भौतिकवादी दर्शन की ओर अग्रसर हो रही है। वर्तमान समय की बढ़ती हुई भौतिकवादी अवस्था में पूर्णतया भौतिक जीवन जीना कठिन हो रहा है। हम पूर्णतया आध्यात्मवादी जीवन भी अकर्मण्य बन नहीं जी सकते हैं, इसके लिए आज आवश्यकता है, दोनों के समन्वय की यह समन्वय तभी स्थापित हो सकता है, जब हम नवीन पीढ़ियों को मूल्यवादी शिक्षा प्रदान करें, उन्हें नैतिकता की ओर प्रेरित करें।
(6) समाज एवं राष्ट्र के भविष्य हेतु- समाज व राष्ट्र के भविष्य के लिए आज प्रबल आवश्यकता है कि सभी को मूल्य परक शिक्षा द्वारा ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, प्रेम, दया व नैतिक भावनाओं का समावेश कराया जाए, जिससे हम पुनः अपनी खोई हुई नैतिकता को प्राप्त कर सकें। इस समय देश में भ्रष्टाचार, दहेज प्रथा आतंकवाद, जाति प्रथा, साम्प्रदायिकता, नशीले पदार्थों का सेवन जैसी समस्याएँ उभरकर आयी हैं, जिसका निदान मूल्य परक शिक्षा द्वारा किया जाना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होगा।
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