मूल्य शिक्षा की विधियाँ और मूल्यांकन | Methods and Evaluation of value Education
पारस्परिक विधियाँ
(1) कहानी विधि- कहानी प्रस्तुतीकरण विधि का बालकों के मन, मस्तिष्क पर अमिट प्रभाव पड़ता है। वस्तुतः बालक कहानियाँ सुनने में अत्यधिक रुचि लेते हैं, कहानी द्वारा संस्कृति इतिहास एवं तत्कालीन वातावरण एवं परिस्थितियों की जानकारी प्राप्त होती है। कहानी के माध्यम से बालक में दया, प्रेम, अहिंसा, कर्तव्य निष्ठा, परोपकार, राष्ट्र-प्रेम, प्रातृत्व, विश्व बन्धुत्व, सत्चरित्रता, बलिदान, अतिथि सत्कार, त्याग आदि अनेक मूल्यों का विकास होता है।
(2) कथा विधि- कथा वे कहानियाँ होती हैं, जो मनुष्य को सत्य एवं विश्वास की भावना की प्रवृत्ति को प्रबलता प्रदान करते हुए व्यक्ति में विभिन्न परिवर्तन एवं परिवर्धन करती हैं। एक ही कथा विभित्र संदर्भों और क्षेत्रों से बदलकर अनेक रूप ग्रहण कर लेती हैं, कथाएँ मानव को परम्परागत रूप से विरासत के रूप में प्राप्त होती हैं।
(3) आध्यात्मिक कहानियाँ- धर्म एवं ईश्वर से जुड़ी हुई कहानियाँ आध्यात्मिक कहानियाँ कहलाती हैं। जैसे- महाभारत, रामायण, पुराण आदि। अध्यात्म हमारे मन-मस्तिष्क से जुड़ा होता है, अध्यात्म ईश्वर को ही प्रकट करता है।
(4) नीति कथन विधि- नीति कथन विधि को कवियों ने कई प्रकार से व्यक्त किया है, कवि ने गद्यांश के रूप में तो किसी ने पद्यांश के रूप में नीति कथन से बालकों को सही-गलत अथवा सत्य असत्य का अर्थ पता चलता है तथा मूल्यों की ओर अग्रसर होते हैं। नीति कथन को विभिन्न कवियों ने अलग-अलग रूप प्रदान किया है, जिसमें इन्होंने नीतियों को पूर्णतः व्यक्त किया है तथा उसका सम्बन्ध मनुष्य के निजी जीवन से जोड़ा है।
व्यावहारिक विधियाँ
पाठ्य सामग्री क्रियाओं के सफल आयोजन एवं उनके माध्यम से जीवन मूल्यों की पुनः स्थापना करने का श्रेय एवं दायित्व निभाना शिक्षक का प्रोफेशनल कर्त्तव्य है। समाज भी हमसे इसकी अपेक्षा रखता है। वह हमें दृढ़ संकल्प के साथ उत्तरदायित्व पूर्ण व्यवहार करके कर्त्तव्य पालन के पीछे नहीं रहना चाहिए। शिक्षक छात्रों के जीवन में मूल्यों की प्रतिष्ठा भर सकते हैं। कुछ सदुपयोगी पाठ्य क्रियाएँ निम्नवत हैं-
(1) खेलकूद- मूल्यों के विकास में उनकी भूमिका उल्लेखनीय होती है। खेलते समय उचित खेल भावना के प्रदर्शन पर पर्याप्त ध्यान देना चाहिए। खेलते समय हर पल अनुशासित रहकर वह प्रारम्भिक निराशाओं के बावजूद ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, चालबाजी, हिंसा आदि से बचना चाहिए। शारीरिक व्यायाम तथा योग क्रियाओं के माध्यम से स्वास्थ्य सहयोग, व्यवस्था, सौन्दर्य बोध, शालीनता आदि मूल्य विकसित किए जा सकते हैं।
(2) विद्यार्थी संसद एवं समितियाँ- प्रत्येक विद्यालय तथा प्रत्येक कक्षा में एक छात्र संसद बनाई जा सकती है तथा इनके क्रिया-कलापों में गति व कार्य करने की प्रवृत्ति होती है। छात्रों को समूह में तथा आपस में मेल-जोल बढ़ाना चाहिए।
(3) वार्षिकोत्सव- प्रत्येक शैक्षिक स्तर के अन्त में वार्षिकोत्सव में साहित्यिक, स्काउटिंग पुरस्कार, वितरण, नैतिक मूल्यों व अन्य मूल्यों के पालन में उल्लेखनीय कार्य करने वाले विद्यार्थियों को सम्मानित व पुरस्कृत करने आदि जैसे क्रियाकलाप आयोजित किये जा सकते हैं। इससे, साहस, धैर्य, सहयोग, अनुशासन, न्याय प्रियता, श्रम के प्रति निष्ठा, सौन्दर्यबोध, ईमानदारी, विनम्रता, उत्तरदायित्व आदि जैसे मूल्य विकसित किये जा सकते हैं।
(4) बालदिवस- प्रत्येक वर्ष 14 नवम्बर को बाल दिवस समारोह आयोजित करते समय श्रमदान, साहित्यिक व सांस्कृतिक कार्यक्रम, सामूहिक जलपान, खेलकूद प्रतियोगिता व बाल मेला आदि क्रियाकलाप किये जा सकते हैं। बाल मेले में विज्ञान के खेल मनोरंजन तथा विद्यार्थियों द्वारा निर्मित वस्तुओं, जैसे खिलौने, तेल, इंक, साबुन, सर्फ, विम, अचार, मुरब्बा, पंखे, थैले, टोकरियाँ, भित्ति सजावट के उत्पाद, भोजन आदि के विक्रय की व्यवस्था की जा सकती हैं। इनमें मितव्ययिता, श्रम के प्रतिनिष्ठा, निर्भीकता, सहयोग, खेल भावना, शिष्टाचार, उत्तरदायत्व, आत्मनिर्भरता आदि मूल्य विकसित किये जा सकते हैं।
(5) प्रार्थना सभा- प्रत्येक विद्यालय में एक प्रार्थना स्थल होता है, जहाँ सभी शिक्षक शिक्षार्थी एकत्र होते हैं। शिक्षक रुचिपूर्ण ढंग से लय व गति साथ याचना करते हैं। समय-समय पर विद्यार्थियों को प्रार्थना के अर्थ व उसमें निहित विचारों की उपयोगिता भी स्पष्टतः समझनी चाहिए।
(6) जयन्ती पर्व व उत्सव- भारत में विभिन्न धर्मों व मतों के अनुयायी रहते हैं तथा वे अनेक व एव व उत्सवों का आयोजन करते हैं। दीपावली, रक्षाबन्धन, होली, रामनवमी, दशहरा, ईद-उल फितर, मुहर्रम, बारावफात, जन्माष्टमी, क्रिसमस-डे, गुड फ्रायडे, महावीर जयन्ती, गुरुनानक जन्म दिवस आदि पर्वो को सम्बन्धित धर्मों के लोग विश्वास पूर्वक मनाते हैं। इसके अलावा 15 अगस्त, 26 जनवरी, शिक्षक दिवस, विवेकानन्द जयन्ती आदि का भी आयोजन किया जाता है। इन सबके माध्यम से विद्यार्थियों में यह संदेश देना है कि वे भेद रहित, प्रेम निष्ठा, दया, परोपकार, धर्मनिरपेक्षता आदि मूल्यों के पूर्ति सजग रहें। इन मूल्यों के द्वारा विद्यार्थियों में सशक्त संस्कार व दिशा-निर्देश को प्रबलता प्राप्त होती है।
(7) समाजोपयोगी उत्पादक कार्य- समाजोपयोगी कार्य शैक्षिक हस्तकार्य है जिसे अर्थपूर्ण ढंग से सोद्देश्य करने के फलस्वरूप सामाजिक दृष्टि से उपयोगी सामग्री व सेवाएँ उपलब्ध हैं। समाजोपयोगी उत्पादक कार्यों द्वारा राष्ट्रीय एकता विकसित की जा सकती है। यह कार्य करने के दौरान विद्यार्थी स्वयं को अनुशासित रखकर, मिल-जुलकर रहने व काम करने की आदत, स्वशासन, सामाजिक प्रतिबद्धता, श्रम के प्रति आदर भाव उत्पन्न करते हैं। शिक्षा के सभी स्तरों को आवश्यक घटक के रूप में माना जाता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) को कहा गया है- सोद्देश्य और सार्थक शारीरिक कार्य की दृष्टि में कार्यानुभव को सीखने की प्रक्रिया का प्रमुख अंग है।
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