नवाचार के प्रकार (Types of Innovation)
नवाचार के प्रकार (Types of Innovation)- शैक्षिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सुनियोजित रूप में नवाचार का निरन्तर उपयोग नहीं हो रहा है। कुछ शिक्षाशास्त्रियों का कहना है कि भारत के विश्वविद्यालयों में सुधार कार्य अथवा परिवर्तन विद्यालयी पद्धति के बाहर के दबावों पर निर्भर करता है। इस हेतु इसे नहीं अपनाया जा रहा है। कुछ विद्वानों की तो यहाँ तक धारणा उजागर हुई है कि भारत में शैक्षिक परिवर्तन निहित स्वार्थों के कारण होता है न कि सुनियोजित योजना के आधार पर। इस हेतु इन सभी आलोचनाओं तथा कारणों पर विचार करते हुए यह सोचना आवश्यक है कि नवाचारों को विद्यालय में प्रचलित करने के लिए सुसंगठित प्रयास किस रूप में किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय विषय है कि यदि नवाचार को अपना लिया जाए तो उसका परिणाम क्या होगा?
(1) सामाजिक अन्तक्रियात्मक नवाचार (Social Interaction Innovation)-
नवाचार को उसके गुणों एवं विशिष्टताओं के आधार पर चयन करके विद्यालय में उसी अवस्था में स्वीकार किया जा सकता है जब उसके विषय में जानकारी विद्यालय के प्रतिपालक शिक्षक द्वारा प्राप्त हो। इसलिए कोई भी नवाचार विभिन्न लोगों, संस्थाओं एवं अभिकरणों के परस्पर सामाजिक अन्तःक्रिया द्वारा प्रसारित होता है। इसीलिए इस प्रकार के नवाचार को सामाजिक अन्तःक्रियात्मक नवाचार कहा गया है।
(2) समस्या समाधानात्मक नवाचार (Problem Solving Innovation)-
जब किसी समस्या के समाधान तथा वांछित परिवर्तन के लिए किसी नवाचार को चुना जाता है तो उसे समस्या समाधानात्मक नवाचार कहते हैं। इस नवाचार में समस्या के समाधान की ओर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता है।
परिवर्तन और नवाचार के मध्य सम्बन्ध-
बिना परिवर्तन के नवाचार का कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता। परिवर्तन की अवधारणा के अन्तर्गत विशिष्ट नियम हैं। इस दृष्टि से परिवर्तन को हम निम्नलिखित रूप में वर्गीकृत करके अध्ययन कर सकते हैं-
(1) विकासवादी परिवर्तन (Evolutionary Changes)-
इस वर्ग में उन सभी परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है जो समय की गति से निरन्तर चलते रहते हैं। इसकी एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमें चाहें इनका ज्ञान हो या न हो, किन्तु इनकी गति कभी विराम नहीं लेती है। यह परिवर्तन अचेतन स्तर पर होता है। यह समय के लम्बे अन्तराल में घटता है। इसलिए इसके प्रभाव को पहचानना एक समकालीन निरीक्षक के लिए भी कठिन होता है। प्राकृतिक परिवर्तन में जो मंद या धीमी गति से परिवर्तन होते हैं, उनका अध्ययन हमारे लिये लाभकारी हो सकता है। जैसे- पर्वतों पर परिवर्तन होते रहते हैं तथा समुद्र की सीमाएँ कम या ज्यादा होती रहती हैं। परन्तु वर्तमान समय में निवास करने वाला व्यक्ति उनको नहीं जान पाता है। इसी प्रकार एक ही परिवार में परिवर्तन होते रहते हैं, परन्तु मनुष्य उनसे अनभिज्ञ रहते हैं। ये परिवर्तन शक्ल-सूरत तथा रूप-रंग में होते रहते हैं। इस दृष्टि से यह कहना न्याय संगत है कि विकासवादी परिवर्तन सामाजिक, शैक्षिक तथा सांस्कृतिक आयामों में भी होता रहता है। यह दूसरी बात है कि हम उसे अनुभव कर पाते हैं या नहीं, परन्तु इतिहासकार उसे खोजकर समझ लेते हैं।
(2) संतुलनात्मक परिवर्तन (Homeostatic Changes)-
इस क्षेत्र में जितने भी परिवर्तन होते हैं वे सभी चेतन और अचेतन या ज्ञात और अज्ञात दोनों स्तर पर होते हैं। इन परिवर्तनों की विशेष बात यह है कि ये उसी समय घटित होते हैं जब इनको प्रचलित करने की आवश्यकता होती है अथवा उद्दीपन को इनकी किसी स्थिति में जरूरत पड़ती है। यह परिवर्तन अनुक्रियात्मक अथवा प्रतिक्रियात्मक होता है। मनोवैज्ञानिक खोजों से यह सिद्ध हो चुका है कि यह परिवर्तन मनुष्य की उन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए होता है जो तनाव या असंतुलन को स्वतः ही दूर कर देती है। यह संतुलनात्मक परिवर्तन मुख्य रूप से अपने आप तथा मूल प्रवृत्ति वाला होता है। इसमें वैचारिक निर्देशन नहीं होता है। उदाहरण के लिए मनुष्य को क्षुधा का अनुभव होता है- इसका सीधा अर्थ यह है कि उसके शरीर में भोजन से प्राप्त होने वाले तत्त्वों की कमी हो गई है। इस कमी या असंतुलन के फलस्वरूप मनुष्य के शरीर में तनाव या असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और उस अवस्था में मनुष्य के शरीर में एक ऐसा परिवर्तन होता है जो उसे क्षुधा को शान्त करने वाले खाद्य-पदार्थों की ओर आकर्षित कर देता है। मनुष्य जब उन खाद्य-पदार्थों से अपनी क्षुधा को शान्त कर लेता है तो वह संतुलन की अवस्था में आ जाता है।
(3) नवगतिमानात्मक परिवर्तन (Neomobilistic Changes)-
यह परिवर्तन चेतन के रूप में होता है। इसमें नियोजित रूप या सचेतन हस्तक्षेप के तत्त्व विद्यमान रहते हैं। यह परिवर्तन प्रायः नवीनता की दिशा में होता है। व्यक्ति सामाजिक प्राणी है। वह समाज में रहकर सामाजिक तथा व्यक्तिगत विकास की ओर बढ़ना चाहता है। इसी कारण वह नवीन विचारों की ओर अग्रसर होता है। उसकी गति धीरे-धीरे नवीन दशा में रच-बस जाती है। उसके सभी प्रयास योजनानुसार होते हैं। वे सब-कुछ समझते हुए बड़ी सूझ-बूझ के साथ सुनिश्चित उद्देश्य की ओर बढ़ते हैं। उदाहरणार्थ किसी विद्यालय में प्रथम पीरियड में छात्रों की उपस्थिति देखी जाती थी। प्रधानाचार्य को पता चला कि अन्तिम पीरियड के पूर्व ही अधिकतर विद्यार्थी विद्यालय छोड़कर चले जाते हैं। अतः प्रधानाचार्य ने छात्रों की उपस्थिति बनाए रखने के लिए कुछ परिवर्तन किए। उपस्थिति का विवरण प्रथम तथा अन्तिम दोनों घंटों में रखा जाने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि छात्र अन्तिम घंटे तक विद्यालय में उपस्थित रहने लगे। इस परिवर्तन को नवागत्यात्मक परिवर्तन कहा गया है।
अतः शिक्षा के प्रवेश में तीनों परिवर्तनों का योगदान है, किन्तु कुछ नवाचार जिन्हें शैक्षिक क्षेत्र ने स्वीकार किया है, वे सभी केवल नवगतिमान परिवर्तन की श्रेणी में आते हैं। कक्षाओं में छात्रों की बढ़ती हुई संख्या, ज्ञान का तीव्र गति से प्रसार, प्रगतिशील विचारों आदि ने शिक्षा को ऐसे मोड़ पर ला दिया जिसमें परिवर्तन आवश्यक माना जाने लगा है। इसका प्रमुख कारण यह माना जाता है कि सुधार की दृष्टि से शैक्षिक परिवर्तन अनिवार्य होना चाहिए क्योंकि नवाचार और शैक्षिक परिवर्तन दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध है, इससे शिक्षा में सुधार लाया गया है। इसलिए नवाचार को शिक्षा के परिवर्तन का एक अंग कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
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