विद्यालय संगठन में निरीक्षण का क्या महत्त्व है? समालोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
विद्यालय संगठन में निरीक्षण का महत्त्व- प्रधानाचार्य विद्यालय से सम्बन्धित समस्त कार्यों का संचालक होता है अर्थात् विद्यालय में किसी भी कार्य को क्रियान्वित करना तथा उसमें सफलता प्राप्त करना यह सम्पूर्ण श्रेय प्रधानाचार्य को प्राप्त होता है। अब यदि किसी कार्य का समय-समय पर निरीक्षण न किया जाये तब उस कार्य मे सफलता प्राप्त हो रही है अथवा असफलता प्राप्त हो रही है इसका ज्ञान होना सम्भव नहीं है।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना ही आवश्यक है कि निरीक्षण का अभिप्राय कार्य को देखना ही नहीं है वरन् विद्यालय की समस्त क्रियाएँ उसके निरीक्षण के क्षेत्र में आती हैं। इस विषय में मि. रायबर्न ने कहा है कि–“निरीक्षण विस्तृत होना चाहिये। विद्यालय की समस्त क्रियायें उसके अधिकार क्षेत्र में आ जाती है।” इससे स्पष्ट है कि विद्यालय के अन्दर व्यवस्था से सम्बन्धित समस्त कार्यों का प्रधानाचार्य को निरीक्षण करना चाहिए। इसका कारण यह है कि विद्यालय में ऐसा कोई कार्य नहीं होता जिसका प्रधानाध्यापक से सम्बन्ध न हो।
इस प्रकार प्रधानाध्यापक को विद्यालय के निम्नलिखित कार्यों का निरीक्षण करते रहना चाहिए-
(1) अध्यापकों के कार्यों का निरीक्षण— विद्यालय में सबसे प्रमुख कार्य अध्यापन होता है जिसको अध्यापक करते हैं। प्रत्येक विद्यालय की प्रगति एवं प्रतिष्ठा इसी कार्य पर केन्द्रित होती है। इसीलिये प्रधानाध्यापक का यह प्रमुख कर्त्तव्य हो जाता है कि वह विद्यालय की कक्षाओं में अध्यापन कार्य करने वाले अध्यापकों के कार्यों का समय-समय पर निरीक्षण करे। किन्तु इस प्रकार के निरीक्षण को अत्यन्त सावधानी एवं कुशलता से करना चाहिए अर्थात् अध्यापकों के कार्यों का निरीक्षण करते समय प्रधानाध्यापक को निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-
- अध्यापकों की कक्षाओं के कार्यों का निरीक्षण करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि उनको निरीक्षण की पूर्व सूचना न हो अन्यथा वे सचेत हो जायेंगे जिससे उनके कार्यों का मूल्यांकन करने में प्रधानाध्यापक को असुविधा का सामना करना पड़ेगा।
- निरीक्षण पुस्तिका में अत्यन्त शिष्ट एवं संयत भाषा के द्वारा निर्देश देने चाहिए।
- निर्देश पुस्तिका में अत्यन्त शिष्ट एवं संयत भाषा के द्वारा निर्देश देने चाहिए।
- प्रधानाध्यापक को निरीक्षण करते समय अध्यापक के स्वभाव, क्षमता एवं योग्यता को ध्यान में रखकर निष्पक्ष होकर निर्देश देना चाहिए तथा यह ध्यान रखना चाहिए कि वह निर्देश छात्रों के सामने न दे तथा अपने विचारों को जबर्दस्ती नहीं थोपना चाहिए।
- प्रायः यह देखा जाता है कि अध्यापक अपनी डायरी को महीने के अन्त में मनमाने ढंग से भर देते हैं जिससे उनके कार्यों की सफलता या असफलता का ज्ञान यथार्थ रूप में नहीं हो पाता। इस प्रकार के अनुचित कार्यों को रोकने के लिए प्रधानाध्यापक को प्रति सप्ताह अध्यापकों की डायरी को देख लेना चाहिए।
(2) रजिस्टरों एवं हिसाब-किताब का निरीक्षण- प्रत्येक विद्यालयीय प्रबन्ध में रजिस्टरों का अत्याधिक महत्त्व होता है, क्योंकि विद्यालय से सम्बन्धित कार्यों का विवरण इन रजिस्टरों में ही लिखा होता है तथा इन्हीं के द्वारा समस्त कार्यो की सफलता-असफलता तथा स्थिति का ज्ञान होता है। विद्यालय के इन रजिस्टरों में कक्षा रजिस्टर, सम्पत्ति रजिस्टर, अध्यापकों एवं कर्मचारियों को उपस्थिति रजिस्टर, छात्रावास रजिस्टर, प्रवेश रजिस्टर, छात्रों के द्वारा विद्यालय छोड़ने का रजिस्टर प्रमुख होते हैं।
(3) छात्रावास का निरीक्षण- विद्यालय के छात्रावास का प्रबन्ध छात्रावास के वार्डन के हाथ में होता है किन्तु वार्डन की नियुक्ति प्रधानाध्यापक ही करता है। अतः प्रधानाध्यापक को छात्रावास के वार्डन के रूप में किसी अध्यापक की नियुक्ति करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि वह ऐसा व्यक्ति हो जो चरित्रवान हो, जिसका आचरण अनुकरणीय हो तथा जिसकी छवि स्वच्छ हो। इसके साथ ही प्रधानाध्यापक को वार्डन की नियुक्ति करके यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उसका कार्य समाप्त हो गया वरन् उसे समय-समय पर छात्रावास का निरीक्षण करते रहना चाहिए जिसमें छात्रावास की भोजन व्यवस्था, रसोईघर की स्वच्छता आदि को देखते रहना प्रमुख है।
(4) पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का निरीक्षण- शिक्षा का उद्देश्य मात्र बालक को अक्षर ज्ञान कराना ही नहीं वरन् उसका शारीरिक, मानसिक आदि विकास करना भी है जिसके लिए विद्यालय में खेल-केद, मनोरंजन एवं गोष्ठियों आदि की व्याख्या होती है।
(5) नैतिक मूल्यों का निरीक्षण- नैतिक मूल्य शैक्षिक वातावरण की रीढ़ होते हैं। अतः प्रधानाध्यापक को यह निरीक्षण करते रहना चाहिए कि उसके विद्यालय में अनैतिकता तो प्रवेश नहीं कर गयी है अर्थात् छात्रों एवं अध्यापकों में कोई ऐसा तत्त्व तो नहीं है जिससे सम्पूर्ण विद्यालय के वातावरण के दूषित होने की आशंका है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि किसी विद्यालय के प्रत्येक विभाग की सुन्दरता एवं सफलता के साथ उन्नति उस विद्यालय के प्रधानाध्यापक के सतर्कता एवं कुशलतापूर्ण निरीक्षण पर निर्भर करती है, क्योंकि विद्यालय में कहाँ क्या कमी है? किस कार्य में कितनी सफलता अथवा असफलता प्राप्त हो रही है? कहाँ क्या गतिविधि चल रही है? इन सब बातों का ज्ञान प्रधानाध्यापक को निरीक्षण द्वारा हो सकता है, क्योंकि विद्यालय की प्रगति प्रधानाध्यापक के सफल एवं कुशल निरीक्षण पर निर्भर करती है इसलिये प्रत्येक प्रधानाध्यापक को एक कुशल निरीक्षक बनना चाहिए।
प्रधानाध्यापक और अध्यापक-मण्डल
प्रधानाध्यापक एवं अध्यापक मण्डल दोनों के पारस्परिक मधुर सम्बन्ध होने पर ही विद्यालय संगठन का कार्य समुचित रूप में चल सकता है, क्योंकि विद्यालय का स्तर उसके अध्यापक मण्डल की कार्य-कुशलता, योग्यता, चारित्रिक गणों पर ही निर्भर करता है, अर्थात जिस विद्यालय का अध्यापक मण्डल जितना कार्यकुशल, चरित्रवान, योग्य एवं व्यवहार कुशल होता है उतना ही उस विद्यालय का स्तर ऊंचा होता है, क्योंकि प्रधानाध्यापक तो मात्र विद्यालय की व्यवस्था का नियन्त्रण करता है तथा विभिन्न कार्यों का निरीक्षण करता है जबकि समस्त कार्यों को क्रियान्वित तो अध्यापक मण्डल को ही करना होता है। इसलिये यह आवश्यक हो जाता है। कि वह अपने समस्न अध्यापको के साथ सहयोगपूर्ण व्यवहार कर तथा उसके प्रति उदार एवं सहानुभूतिपणे दाटकोण का अपनाय।
इसके अतिरिक्त प्रधानाध्यापक को यह भी सदेव स्मरण रखना चाहिए कि वह भी अध्यापक मण्डल के मध्य से ही निकला हुआ है तथा यह अच्छी प्रकार से समझ लेना चाहिए कि अध्यापक मण्डल बुद्धिमानी वर्ग है जिस पर किसी भी बात को जबर्दस्ती नहीं थोपा जा सकता। इसलिये इस बात को ध्यान में रखकर प्रधानाध्यापक का तानाशाही दृष्टिकोण का त्याग करके जनतन्त्रीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। ऐसा करने पर ही वह अध्यापक-मण्डल का सहयोग प्राप्त कर सकता है।
इसी के साथ प्रधानाध्यापक को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वह कभी भी ऐसा व्यवहार न करे जिससे किसी अध्यापक को यह लगे कि उसके साथ पक्षपात किया जा रहा है, क्योंकि यदि प्रधानाध्यापक का निष्पक्ष और न्यायपूर्ण एवं सबके साथ समान व्यवहार नहीं होता तब अध्यापक मण्डल में असन्तोष व्याप्त हो जाता है जिसका प्रभाव सम्पूर्ण विद्यालय प्रबन्ध पर पड़ता है।
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