परिवार शिक्षा के प्रभावी कारक के रूप में
Family As an Affecting Factors of Education
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज की प्रथम इकाई परिवार है। समाज के अभाव में मानव का क्रमबद्ध सर्वांगीण विकास असम्भव है। चूँकि विकास की प्रथम अवस्था घर से प्रारम्भ होती है, इसलिये हमें परिवार का स्वरूप जानना अत्यन्त आवश्यक है। संसार में लगभग समस्त समाजों में विभिन्न प्रकार के परिवार पाये जाते हैं। इन परिवारों के कार्य लगभग समान ही होते हैं परन्तु संस्कृति एवं देश के आधार पर कार्यों में विभिन्नता पायी जाती है। एक समाज में जो प्रधान कार्य हैं, वह दूसरे समाज में गौण हो सकते हैं। सामान्य रूप से परिवार का अर्थ पति-पत्नी, माता-पिता, पुत्र-पुत्री एवं भाई तथा बहन आदि से होता है। परिवारों की भिन्नताओं के आधार पर ये अनेक प्रकार के होते हैं। घर या परिवार की विद्वानों द्वारा निम्नलिखित परिभाषाएँ दी गयी
(1) पेस्टालॉजी (Pestalozzi) के अनुसार “घर शिक्षा का सर्वोत्तम और बालक का प्रथम विद्यालय है।” “Home is the best place for education and the first school of the child.”
(2) फ्रॉबेल (Frobel) के शब्दों में, “माताएँ आदर्श अध्यापिकाएँ हैं और घर द्वारा दी जाने वाली अनौपचारिक शिक्षा सबसे अधिक प्रभावशाली और स्वाभाविक है।” “Mothers are ideal teachers and the informal education given by home is more effective.”
परिवार का महत्त्व (Importance of family)
परिवार की आवश्यकता एवं महत्त्व निम्नलिखित प्रकार हैं-
- परिवार बालक का पालन-पोषण करता है।
- वह उसको प्रारम्भिक आश्रय देता है।
- बालक की प्रारम्भिक पाठशाला घर है।
- परिवार उसको स्वाभाविक वातावरण, प्रेम तथा सहानुभूति प्रदान करता है। बिना परिवार के मानव का कोई अस्तित्व नहीं है।
- यह शिक्षा का सबसे प्राचीन साधन है।
परिवार में शिक्षा
Education in Family
परिवार बालक के लिये प्रथम पाठशाला के रूप में माना जाता है। बालक जब पैदा होता है तब उसको पूर्ण संरक्षण देने का दायित्व परिवार के अन्य बड़े सदस्यों का होता है। परिवार में रहकर बालक शारीरिक रूप से विकास करता है और मानवोचित गुणों को अपनाने की क्रिया को सीखता है। बालक का स्थायी विकास भी परिवार में ही रहकर होता है। परिवार में बालक को निम्नलिखित प्रकार की शिक्षा प्राप्त होती है।
1. आध्यात्मिक एवं नैतिक शिक्षा- समाज का प्रारम्भिक रूप परिवार को माना जाता है। परिवार के सदस्य जीवनोपयोगी सभी गुणों का स्वयं में समावेश करते हैं। ये सभी गुण नैतिक और आध्यात्मिक गुणों पर आधारित होते हैं। इस प्रकार परिवार के सदस्यों का सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक गुणों का विकास परिवार में रहकर होता है।
2. जीवन को समायोजित करने की शिक्षा- डार्विन का कथन है कि “शक्तिशाली व्यक्ति ही पारिवारिक जीवन के संघर्ष में जीवित रह पाता है।” बड़ी शक्ति के पनपने से छोटी शक्ति स्वतः ही समाप्त हो जाती है। केवल जो व्यक्ति समायोजन की प्रवृत्ति रखता है, वही बच पाता है? बालक परिवार में रहकर समायोजन करना सीख पाता है।
3. जीवन व्यवहार की शिक्षा- भावी जीवन निर्धारण की शिक्षा बालक को परिवार से ही प्राप्त होती है। प्रत्येक परिवार के व्यवहार निश्चित होते हैं। प्राय: देखने को मिलता है कि जो बालक सुसंस्कृत परिवार में जन्म लेते हैं, वे आगे चलकर परिष्कृत व्यवहारों को अपनाते हैं। इसके विपरीत निर्धन परिवारों के बालक असंस्कृत व्यवहारों में पलते हैं।
4. स्थायी जीवन मूल्यों का विकास- परिवार के स्थायी जीवन मूल्य प्रेम, दया, सहयोग, ममता, सहनशीलता और सहायता पर आधारित होते हैं। परिवार के सदस्यों के व्यवहारों के प्रति होने वाली प्रक्रिया ही इन स्थायी मूल्यों के विकास में योगदान करती है। इन्हीं गुणों के आधार पर बालक के व्यक्तित्व का विकास होता है।
5. बालक की आदत एवं उत्तम चरित्र निर्माण की शिक्षा- परिवार में बालक जन्म लेता है। बड़ा होकर उसके चरित्र निर्माण की क्रियान्विति परिवार में स्थायी निवास करके होती है। बालक की आदत का निर्माण भी परिवार की परम्पराओं पर निर्भर करता है। परिवार में यदि प्रेम, सद्भावना और सहयोग का वातावरण होता है तो बालक में बड़े होने पर उत्तम गुण एवं अच्छी प्रवृत्तियों का निर्माण होता है। परिवार का कलह युक्त होना, बालक की मानसिक दशा को विकृत करता है और उसमें अपराधजन्य प्रवृत्तियों का निर्माण होना स्वाभाविक है।
6. पारस्परिक सहयोग की शिक्षा- परिवार के सभी सदस्य यदि परस्पर सहयोग करते हैं और आदर्श वातावरण में जीवन जीते हैं तो बालक के मन पर इसकी अमिट छाप पड़ती है। बाँसी (Bansi) के अनुसार, परिवार वह स्थल है, जहाँ प्रत्येक नयी पीढ़ी नागरिकता का नया पाठ पढ़ती है क्योंकि कोई व्यक्ति समाज में रहकर सहयोग के बिना जीवित नहीं रह सकता।”
7. परमार्थ की शिक्षा- परिवार एक ऐसा समूह है, जो सामाजिक बीमे (Social Insurance) का प्रमुख साधन माना जाता है। अतः परिवार छोटे तथा बड़े-बूढ़े दोनों को ही सामाजिक न्याय प्रदान करते हुए परमार्थ तथा परोपकार की शिक्षा प्रदान करता है। बर्नाड शॉ (Bernard Show) ने लिखा है, “परिवार ही वह साधन है, जिसके अनुसार नयी-नयी पीढ़ियाँ पारिवारिकता के साथ-साथ रोगी-सेवा, बड़ों और छोटों की सहायता केवल देखते ही नहीं हैं, अपितु उसे करते भी हैं।
8. आज्ञा पालन एवं अनुशासन की शिक्षा- परिवार का स्वामी परिवार का सबसे बुजुर्ग व्यक्ति होता है, उसी की आज्ञा एवं निर्देश के अनुसार परिवार के सभी कार्य होते हैं। परिवार के सभी सदस्य उसका सम्मान करते हैं। यह बात परिवार के सदस्यों से बालक भी सीखते हैं। कॉम्टे (Comtey) के शब्दों में, “आज्ञा पालन और अनुशासन दोनों रूपों में परिवार पारिवारिक जीवन के साथ-साथ सामाजिक जीवन का अनन्त विद्यालय बना रहेगा।”
9. जीविकोपार्जनकी शिक्षा- परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने परिवार के व्यवसाय में हाथ बँटाता है। बालक अपने बड़ों को देखता है और परिवार में रहकर सफलतापूर्वक घरेलू व्यवसाय को बिना किसी आधार के सीख लेता है। अत: पारिवारिक व्यवसाय सीखने के लिये उसे अन्यत्र प्रशिक्षण नहीं लेना पड़ता। इस प्रकार परिवार अपने नव सदस्य बालक को भावी जीवन निर्वाह के योग्य बना देता है।
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