भारतीय जनजातियों में परिवार के प्रकार
जनजातीय परिवार के प्रकारों का वर्णन कीजिए।
भारतीय जनजातियों में परिवार के प्रकार- जनजातियों में परिवार के आकार (size), विवाह के स्वरूप और पारिवारिक सत्ता के आधार पर परिवारों को छः उपविभागों में विभाजित किया जा सकता है। इस विभाजन को इस प्रकार समझा जा सकता है-
(1) एकाकी परिवार (Nuclear Family)-
सामाजिक संरचना में एकाकी परिवार सबसे छोटी इकाई है। ऐसे परिवारों में हम केवल पति-पत्नी तथा उनके अविवाहित बच्चों को ही सम्मिलित करते हैं। यदि पति-पत्नी के कोई सन्तान न हो, तब उनके द्वारा गोद लिए हुए बच्चे को भी ऐसे परिवारों में सम्मिलित किया जा सकता है। जनजातियों का जीवन सामूहिक विशेषताओं से युक्त होने के कारण उनके समाज में ऐसे परिवारों की संख्या बहुत कम है। भारत में सभ्यता के सम्पर्क में आ जाने वाली अनेक जनजातियों जैसे संथाल, थारू और इस प्रकार के परिवारों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है।
(2) विस्तृत परिवार-
डॉ. दुबे के अनुसार, “विस्तृत परिवार की संज्ञा उस परिवार- संकुल को दी जाती है जो एक वंशानुक्रम से सम्बन्ध होते हुए भी भिन्न इकाइयों के रूप में अनेक परिवारों में बंटा हो।” अथवा यह कहा जा सकता है कि “जब अनेक एकाकी परिवार एक साथ रहते हों, उनमें निकट का नाता हो और वे एक आर्थिक इकाई के रूप में कार्य करते हों, तब ऐसे परिवार को विस्तृत अथवा संयुक्त परिवार कहा जा सकता है।” परिवार का दो या तीन पीढ़ियों में विस्तृत होना विस्तारित परिवार का आधार है। विस्तृत परिवार को ‘एकपक्षीय परिवार’ भी कहा जाता है, क्योंकि इसके अन्तर्गत सभी सदस्य एक ही वंश परम्परा से सम्बन्धित होते हैं, वह वंश परम्परा चाहे माता के नाम पर हो अथवा पिता के। इसका तात्पर्य है कि सामान्यतया विस्तृत परिवार में रक्त सम्बन्धों का अधिक महत्व होता है। इस आधार पर ऐसे परिवारों को कुछ मानवशास्त्री ‘रक्त सम्बन्धी परिवार’ (consanguine family)भी कहते हैं। भारत की लगभग सभी जनजातियों में परिवारों का संगठन देखने को मिलता है।
(3) एकविवाही और बहुविवाही परिवार-
विवाह अथवा जीवन-साथियों की संख्या के आधार पर जनजातियों में परिवार के दो अन्य स्वरूपों का उल्लेख किया जा सकता है- एक तो वे जिनमें एक पति अथवा पत्नी के जीवित होते हुए व्यक्ति को दूसरे जीवन-साथी का वरण करने की अनुमति नहीं दी जाती और दूसरे परिवार वे हैं जिनकी संरचना एक पति और अनेक पत्नियों अथवा एक पत्नी और अनेक पतियों द्वारा होती है। ऐसे परिवारों का विस्तृत उल्लेख हम एकविवाह और बहुविवाह के सन्दर्भ में पहले ही कर चुके हैं। यहां पर केवल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि विवाह के आधार पर परिवार को दो या तीन भागों में विभाजित करना अधिक उपयुक्त प्रतीत नहीं होता है। इसका कारण यह है कि जनजातियों में विवाह के रूप और उनसे सम्बन्धित प्रथाओं में इतनी विभिन्नता पायी जाती है कि इसके आधार पर परिवार के रूप को स्पष्ट करने से परिवार की धारणा भी बहुत भ्रमपूर्ण हो जायेगी। सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि कुछ शताब्दियों पहले तक भारत में सम्भवतः किसी भी जनजाति में एकविवाही परिवार नहीं पाये जाते थे जबकि वर्तमान समय में किसी ऐसी जनजाति को ढूंढ़ पाना अत्यधिक कठिन है, जिसमें प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कछ संख्या में एकविवाही परिवार न मिलते हों। औगा, गोंड और लुगाई जनजातियों में बहुपत्नी परिवारों की संख्या काफी अधिक है जबकि टोडा, खस.टियान- कुसुम्ब और नायर जनजातियों में आज भी बहपति विवाही परिया प्रचुरता से देखने को मिलते हैं।
(4) मातृसत्तात्मक परिवार-
मातृसत्तात्मक परिवार वे हैं जिनमें परिवार के समान अधिकार और नियन्त्रण शक्ति स्त्रियों के ही हाथों में होती है, कुछ मानवशास्त्रियों का मत है । जनजातियों में सभी आरम्भिक परिवार मातृसत्तात्मक थे क्योंकि पुरुषों का सम्बन्ध केवल शिकार का अथवा जीविका के अन्य साधन ढूंढ़ने से था। उनका यहां तक मत है कि मातृसत्तात्मक परिवारों के प्राचीनता इस तथ्य से भी स्पष्ट होती है कि पितृसत्तात्मक परिवारों की व्यवस्था में भी स्त्रियों को यौन और सामाजिक सम्पर्क के क्षेत्र में तब विशेष छूट मिली होती है जब वह अपनी मां के घर चली जाती है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश के जौनसार बाबर क्षेत्र में रहने वाली ‘खस’ जनजाति में परिवारों का रूप पितृसत्तात्मक है। इस जनजाति में एक पत्नी के रूप में स्त्रियों पर यौन से सम्बन्धित सभी प्रकार के नियन्त्रण हैं लेकिन अपने माता-पिता के घर जाने पर उसे यौन की पूर्ण स्वतन्त्रता मिल जाती है। यद्यपि यह उदाहरण मातृसत्तात्मक परिवारों की सार्वभौमिकता को स्पष्ट नहीं करता, लेकिन जनजातीय समाज में ऐसे परिवारों के महत्व को अवश्य स्पष्ट करता है।
(5) पित् सत्तात्मक परिवार (Patriarchal Family)-
पितृसत्तात्मक परिवार का अर्थ ऐसे परिवार से है जिसमें परिवार से सम्बन्धित सभी प्रकार के अधिकार कर्ता-पुरुष के हाथ में होते हैं। ऐसे परिवार पितृवंशीय (patrilineal)और पितृस्थानीय (patrilocal)भी होते हैं, अर्थात् वंश का नाम किसी प्रमुख पुरुष पूर्वज के नाम से चलता है और विवाह के बाद पत्नी को पति के निवास स्थान में ही स्थायी रूप से रहना आवश्यक होता है। भारत की अधिकांश जनजातियां पितृसत्तात्मक परिवारों में ही संगठित है और जो जनजातियां इसकी अपवाद हैं वे भी बहुत तेजी से अपनी मातृसत्तात्मक विशेषताओं को छोड़ रही हैं। इस आधार पर यह कल्पना की जा सकती है कि जैसे-जैसे जनजातियों का सम्पर्क सभ्य समाजों से बढ़ता जायेगा, वे पूर्ण रूप से पितृसत्तात्मक परिवारों का रूप ग्रहण कर लेंगी।
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