भारतीय जनजातियों के भौगोलिक वर्गीकरण
भारतीय जनजातियों का वर्गीकरण (Classification of Indian Tribes)- भारत में विस्तृत क्षेत्रफल और भौगोलिक विभिन्नताओं के कारण सभी जनजातियों का जीवन समान प्रकृति का नहीं है। उनमें भौगोलिक पृथकता के अतिरिक्त संस्कृति, भाषा और अर्थव्यवस्था के आधार पर भी महत्वपूर्ण भिन्नता देखने को मिलती है। इस प्रकार अनेक आधारों पर इन जनजातियों का वर्गीकरण करके इनकी वास्तविक स्थिति को समझा जा सकता है:
(1) भौगोलिक अथवा प्रादेशिक आधार पर वर्गीकरण-
मजूमदार तथा मदान ने भारत की सभी जनजातियों को तीन प्रमुख भौगोलिक क्षेत्रों में विभाजित किया है :
क) उत्तरी तथा उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र (North and North-Eastern Zone) – यह क्षेत्र पश्चिम में लेह और शिमला से लेकर समस्त उत्तरी सीमा-प्रदेशों से नीचे होता हुआ पूर्व में लुशाई पर्वतों तक फैला हुआ है। इस प्रकार इस क्षेत्र में कश्मीर, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और असम का पर्वतीय क्षेत्र सम्मिलित किया जाता है। खासी, गारो, थारु, भील, कचारी, नागा, राभा, कूकी, खम्पा, जौनसारी, भूटिया और लाहौला इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियाँ हैं
(ख) मध्य क्षेत्र (Central Zone)- इसके अन्तर्गत हम मध्य भारत में स्थित उन सभी पहाड़ी और पठारी भागों को सम्मिलित करते हैं जो दक्षिण भारत को सिन्धु और गंगा के मैदानों से पृथक् करते हैं। अथवा यह कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र नर्वदा और गोदावरी के बीच में स्थित है। जनजातियों की जनसंख्या के दृष्टिकोण से यह क्षेत्र सबसे बड़ा है जिसमें केवल गोड और संथाल जनजाति के सदस्यों की जनसंख्या ही 83 लाख से अधिक है। इस क्षेत्र में दक्षिणी राजस्थान, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, पूर्वी गुजरात, उत्तरी महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बंगाल, उड़ीसा तथा बिहार के अधिकतर भाग और असम का कुछ हिस्सा आ जाता है। उराँव, हो, संथाल, गोंड, खरिया, बैंगा, कोटा, चेंचू, मुण्डा, भील और कमार इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियाँ हैं।
(ग) दक्षिणी क्षेत्र (Southern Zone) – यह क्षेत्र भारत के सुदूरवर्ती दक्षिणी-पश्चिमी भागों की पहाड़ियों और पूर्वी तथा पश्चिमी घाटों तक फैला हुआ है, इस प्रकार इसके अन्तर्गत हैदराबाद, मैसूर, आन्ध्र प्रदेश, चेन्नई, केरल तथा कुर्ग प्रदेश आ जाते हैं। इस क्षेत्र में टोडा, वडगा, कोटा, कादर, पणियन, कुसुम्ब, उराली पुलन और युरूब आदि प्रमुख जनजातियाँ निवास करती हैं।
(2) भाषा के आधार पर वर्गीकरण-
भाषा के आधार पर सभी जनजातियों को निम्नांकित तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है।
(क) द्रविड़ भाषा परिवार (Dravidian Speech Family)- इस वर्ग की विभिन्न भाषाओं में हम प्रमुख रुप से कन्नड़, तमिल, तेलगू और मलयालम को सम्मिलित करते हैं। इनसे सम्बन्धित जनातियाँ भारत के मध्यवर्ती और दक्षिणी भागों में पायी जाती है। कुछ मानवशास्त्रियों का विचार है कि द्रविड़ भाषा-भाषी जनजातियाँ ही सबसे अधिक प्राचीन और भारत की मौलिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। डॉ. मजूमदार ने टोडा, मालेर, ओरांव, खोड, मालसर, कादर, इरुला तथा साओरा जनजातियों को इनका विशेष प्रतिनिधि माना है। इसके अतिरिक्त घू, गोंड तथा पनियन जनजातियाँ भी इसी वर्ग के अन्तर्गत आती हैं।
(ख) आस्ट्रिक भाषा परिवार (Austric Speech Family)- इस वर्ग की भाषा- भाषी जनजातियों का सम्बन्ध आस्ट्रेलायड शाखा से जोड़ा जाता है। मुण्डा, कोलू, संथाली, हो, खरिया, गारो, खासी और भूमिज भाषाएँ इसी वर्ग के अन्तर्गत आती हैं। इन्हें बोलने वाली जनजातियाँ बड़ी संख्या में मध्य प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल, और असम में स्थित है। कुछ भाषाशास्त्री मुण्डा भाषा बोलने वाली जनातियों को भारत का प्राचीनतम निवासी मानते हैं।
(ग) चीनी-तिब्बती भाषा परिवार (Sino-Tibetan Speech Family)- इस भाषा का प्रमुख सम्बन्ध मंगोल अथवा मंगोल प्रजाति से मिश्रित जनजातियों से है। हिमालय के दक्षिणी ढालों, उत्तरी सीमा प्रान्तों, उत्तर-पूर्वी बंगाल तथा असम के अधिकतर भागों में रहने वाली जनजातियाँ यह भाषा बोलती हैं। इस वर्ग की जनजातियों गारो, कूकी, खासी, मिरी, गलोंग, पासी, पदम, पंगी, मिशनी, खमटी, सिंहपो, लेपचा तथा गलोंग आदि प्रमुख हैं। डॉ मजूमदार का कथन है कि भाषा के आधार पर जनजातियों का वर्गीकरण करना अधिक प्रामाणिक नहीं है क्योंकि सभ्य समाजों के सम्पर्क में आने के कारण अनेक जनजातियाँ एक से अधिक भाषाओं को बोलने लगी हैं जिससे उनकी मूल भाषा के तत्वों को ज्ञात करना अत्यधिक कठिन हो जाता है। इस दृष्टिकोण से भाषा को केवल एक सहायक आधार रुप में ही लिया जाना चाहिए।
(3) अर्थव्यवस्था के आधार पर वर्गीकरण-
विभिन्न जनजातियों के जीविका उपार्जन करने के साधन भिन्न-भिन्न होने कारण भी उन्हें अनेक भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है। यद्यपि अधिकतर जनजातियाँ खेती से जीविका उपार्जित करती है, लेकिन ऐसी जनजातियों की भी संख्या कम नहीं है जो एक से अधिक स्रोतों के द्वारा जीविका उपार्जित करती हैं। इन जनजातियों में खाद्य पदार्थों का संग्रह करने वाली जनजातियों से लेकर उद्योगों में लगी हुई जनजातियाँ तक पायी जाती हैं।
इस आधार पर समस्त जातियों को चार प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है :
(क) शिकार करने और खाद्य-पदार्थों का संग्रह करने वाली जनजातियाँ,
(ख) पशुपालक जनजातियाँ,
(ग) खेती करने वाली जनजातियाँ एवं
(घ) विभिन्न उद्योगों और दस्तकारियों द्वारा जीविका उपार्जित करने वाली जनजातियाँ।
(4) सांस्कृतिक स्तरों के आधार पर वर्गीकरण-
सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के दृष्टिकोण से भी विभिन्न जनजातियों का जीवन एक-दूसरे से अत्यधिक भिन्न है। इस दृष्टिकोण से एलविन, मजूमदार तथा डॉ. दुबे ने जनजातियों को अनेक भागों में विभक्त किया है। एलविन ने सांस्कृतिक स्तरों के आधार पर जनजातियों को चार श्रेणियों में विभाजित किया है:
(क) प्रथम श्रेणी में वे जातियाँ हैं जो बिल्कुल आदिम स्थिति में हैं। यह दुर्गम पहाड़ों, जंगलों अथवा निर्जन स्थानों में रहती हैं। इनका जीवन पूर्णतया सामूहिक और साम्यवादी है। ये प्रमुख रुप से जंगलों को जलाकर खेती करती है अथवा शिकार के द्वारा उदरपूर्ति करती है और सभ्य मनुष्य को देखते ही डरकर भागती है। भाड़िया, जुआंग और बाँदो इसी प्रकार की जनजातियाँ हैं।
(ख) दूसरी श्रेणी की जनजातियाँ यद्यपि अपनी परम्पराओं और विश्वासों को स्थायी बनाये हुई हैं, लेकिन सभ्य समाज के प्रति वे इतनी अधिक संशक्ति नहीं रहती। इनमें व्यक्तिगत सम्पत्ति की भावना पायी जाती है और सभ्य समाज के प्रभाव से परिवर्तन की प्रक्रिया भी आरम्भ हो गयी है।
(ग) तीसरी श्रेणी की जनजातियों की जनसंख्या सबसे अधिक है। यह कुल जनजातीय जनसंख्या के लगभग 60 प्रतिशत भाग का प्रतिनिधित्व करती है। इन जनजातियों के सदस्य कृषि करते हैं और जीविका उपार्जित करने के लिए नगरों अथवा आस-पास की बस्तियों में जाते हैं। आधुनिक संस्कृतियों के निकट सम्पर्क में आने से इनके विश्वासों, धर्म, प्रथाओं और परम्पराओं में तेजी से परिवर्तन हो रहा है।
(घ) चौथी श्रेणी की जनजातियों को एलविन ने कुलीन जनजातियाँ कहा है क्योंकि आधुनिक संस्कृतियों के सम्पर्क में आने के बाद भी इन्होंने अपनी मौलिक संस्कृति को नष्ट नहीं होने दिया है। ऐसी जनजातियों में नागा तथा भील प्रमुख हैं।
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