सामाजिक परिवर्तन के उद्विकासवादी सिद्धान्त
सामाजिक परिवर्तन का उद्विकासवादी सिद्धान्त- सामाजिक परिवर्तन का उद्विकासवादी सिद्धान्त डार्विन के प्राणिशास्त्रीय सिद्धान्त पर आधारित है। वस्तुतः 19वीं शताब्दी में अनेक समाजशास्त्रियों ने डार्विन के जैविक उद्विकास के सिद्धान्त से प्रभावित होकर इसे समाज पर भी लागू करके देखा और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि समाज में भी उद्विकास की प्रक्रिया होती है। इस सिद्धान्त का विकास सर्वप्रथम हरबर्ट स्पेन्सर ने किया जिनके अनुसार, उद्विकास पदार्थ का एकीकरण तथा उसी से सम्बन्धित उसकी गति का आचरण परिवर्तन है जिसके मध्य पदार्थ एक सापेक्षतया अनिश्चित असम्बद्ध एकरूपता से सापेक्षतया निश्चित सम्बद्ध अनेकरूपता में बदल जाता है और जिसके मध्य पदार्थ की गति भी समानान्तर परिवर्तन से गुजरती है।
उद्विकासवादी सिद्धान्त के अनुसार समाज का विकास विशिष्ट दिशाओं में होता है। अतः प्रारम्भिक सामाजिक उद्विकासवादियों ने समाज को धीरे-धीरे उच्च एवं उच्चोत्तर स्तरों की ओर बढ़ते हुए देखा। इससे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि उनकी अपनी सांस्कृतिक मनोवृत्तियाँ एवं व्यवहार पहले समाजों की तुलना में अधिक अग्रवर्ती अथवा विकसित थे। समाजशास्त्र के पिता कहे जाने वाले फ्रांसीसी विद्वान ऑगस्त कॉम्ट ने भी उद्विकास को अपना समर्थन प्रदान किया है। उन्होंने समाजों के प्रत्यक्षवाद के आधार पर आगे बढ़ने का विचार प्रस्तुत किया। इसी भाँति, प्रकार्यवाद के प्रवर्तक फ्रांसीसी विद्वान इमाइल दुर्थीम ने भी यह प्रतिपादित किया कि समाज सरल सामाजिक संरचना से जटिल सामाजिक संरचना की ओर आगे बढ़ते हैं।
इस प्रकार कॉम्ट, दुर्थीम एवं स्पेन्सर ने समरेखीय उद्विकासवादी सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसके अनुसार समाज समान अवस्थाओं में से गुजरते हुए निरन्तर आगे बढ़ते हैं। इन विद्वानों के विपरीत, गेरहार्ड लैंसकी जूनियर जैसे आधुनिक सामाजिक उद्विकासवादी बहुरेखीय उद्विकासवादी सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं जिसके अनुसार परिवर्तन विविध रूपों में सम्भव द तथा सदैव एक ही दिशा की ओर आगे नहीं बढ़ता है। बहुरेखीव सिद्धान्तकार मानव समाजों को विभिन्न दिशाओं में विकसित होते हुए देखते हैं।
सामाजिक परिवर्तन के उद्विकासवादी सिद्धान्तों को समरेखीय एवं बहुरेखीय सिद्धानतों में विभाजन के साथ-साथ शास्त्रीय उद्विकासवादी सिद्धान्त तथा नव-शास्त्रीय उद्विकासवादी सिद्धान्त में भी विभाजित किया जाता है। शास्त्रीय उद्विकासवादी सिद्धान्त का प्रतिपादन 19वीं शताब्दी के मानवशास्त्रियों एवं समाजशास्त्रियों ने किया है। यद्यपि उनके परिप्रेक्ष्यों में अन्तर है, तथापि यह सभी विद्वान् स्वीकार करते हैं कि उद्विकास की गति समरेखीय एवं एक समान दिशा में होती है। उन्होंने प्राणिशास्त्र में एक कोष्ठ वाले प्राणियों से बहुकोष्ठीय आणियों के उद्विकास की प्रक्रिया को सरल समाज से जटिल समाज की ओर होने वाले उद्विकास की सादृश्यता को प्रतिपादित करने का प्रयास किया।
ऑगस्त कॉम्ट, हरबर्ट स्पेन्सर, लुईस हैनरी मॉगर्न, ई0बी0 टॉयलर आदि विद्वानों को शास्त्रीय उद्विकास सिद्धान्त का समर्थक माना जाता है। कॉम्ट के अनुसार बौद्धिक विकास के आधार पर सामाजिक विकास के क्षेत्र को तीन तार्किक स्तरों में विभक्त किया गया है- धार्मिक अवस्था, तात्त्विक अवस्था तथा वैज्ञानिक अवस्था। सर्वप्रथम समाज अपने धार्मिक स्तर में था। सामाजिक क्रियाएँ धर्म की परिधि पर केन्द्रित थीं। विकास की दूसरी अवस्था में समाज दार्शनिक विचारों से युक्त था। सामाजिक क्रियाएँ धर्म की परिधि पर केन्द्रित थीं। विकास की दूसरी अवस्था में समाज दार्शनिक विचारों से युक्त था। दार्शनिक विचारधारा और अभौतिक संस्कृति का विकास इस युग की विशेषता थी। सामाजिक विकास की तीसरी अवस्था है वैज्ञानिक। आज समाज में विज्ञान का बोलबाला है। आज हम हर बात को केवल वैज्ञानिक तर्कों के बाद ही स्वीकर करते हैं। इस प्रकार, सामाजिक उद्विकास के तीन स्तर धार्मिक, तात्त्विक एवं दार्शनिक अथवा वैज्ञानिक हैं।
हरबर्ट स्पेन्सर ने डार्विन के प्राणिशास्त्रीय उद्विकासवादी सिद्धान्त को समाज पर लागू किया तथा इसलिए उनके उद्विकासवादी सिद्धान्त को ‘सामाजिक डार्विनवाद’ के नाम से भी जाना जाता है। उनके मतानुसार उद्विकास पदार्थ का एकीकरण तथा उसी से सम्बन्धित उसकी गति का आचरण परिवर्तन है जिसके मध्य पदार्थ एक सापेक्षतया अनिश्चित असम्बद्ध एकरूपता से सापेक्षतया निश्चित सम्बद्ध अनेकरूपता में बदल जाता है और जिसके मध्य पदार्थ की गति भी समानान्तर परिवर्तन से गुजरती है। स्पेन्सर ने मानव समाज में भी सामाजिक उद्विकास को विभेदीकरण एवं एकीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से लागू किया। उनके अनुसार सामाजिक उद्विकास यह दर्शाता है कि मानव समाज सैनिकवाद से औद्योगिकवाद के स्तर पर पहुंचा है।
स्नेन्सर को सबसे अधिक ख्याति उनके अधिसावयव उद्विकास वाद के सिद्धान्त के परिणामस्वरूप प्राप्त हुई है। उन्होंने प्राणिशास्त्रीय उद्विकासीय सिद्धान्त को समाज पर भी लागू किया और यह निष्कर्ष निकाला कि समाज भी एक सावयव की भाँति है। व्यक्ति और समाज परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। व्यक्ति एक सामाजिक प्राणीक है तथा व्यक्ति ही मिलकर समाज का निर्माण करते हैं। दूसरी ओर, समाज के बिना व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता है।समाज के बिना व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है क्योंकि समाज में रहकर ही व्यक्ति का सामाजिक-सांस्कृति प्राणी के रूप में विकास होता है। अतः जा सकता है कि जहाँ एक ओर व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज पर निर्भर है, वहीं दूसरी ओर समाज का अस्तित्व भी व्यक्तियों के बिना सम्भव नहीं है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सामाजिक परिवर्तन का उद्विकासवादी सिद्धान्त अनेक परस्पर सम्बन्धित परिवर्तन के सिद्धान्तों का समूह है। इसकी मूल धारणा यह है कि सभी समाजों का विकास एक समान स्तरों में होता है। यह विकास सरल से जटिल स्तरों की ओर होता है। उद्विकासवादी सिद्धान्तकार परिवर्तन को प्रगति एवं वृद्धि के रूप में देखते हैं।
आलोचना-
सामाजिक उद्विकास के समर्थकों ने अपनी व्याख्या को बड़े क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत किया है लेकिन इन विद्वानों ने कुछ तथ्यों की इतनी अवहेलना की है कि इस सिद्धान्त को प्रत्येक दशा में उचित मानना बड़ी भूल होगी। निम्नांकित आधारों पर उद्विकास के सिद्धान्त की वास्तविकता को समझा जा सकता है-
(1) सर्वप्रथम मैकाइवर का समर्थन करते हुए कहा जा सकता है कि समाज और प्राणी का विकास समान रूप से नहीं होता इसलिए प्राणी के विकास में यह सिद्धान्त महत्वपूर्ण होते हुए भी समाज के विकास को स्पष्ट नहीं करता। सामाजिक सम्बन्ध किसी आन्तरिक शक्ति से उतने प्रभावित नहीं होते जितने कि मनुष्य के चारों ओर की सामाजिक दशाओं से। इस प्रकार सामाजिक सम्बन्धों और सामाजिक ढाँचों में होने वाले परिवर्तनों को उद्विकास जैसे स्वतः चालित प्रक्रिया के द्वारा नहीं समझा जा सकता।
(2) गोल्डन वीजर का कथन है कि सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख कारण संस्कृति में होने वाला प्रसार है, इसे उद्विकासीय क्रम के द्वारा स्पष्ट नहीं किया जा सकता।
(3) इस सिद्धान्त के समर्थकों के अनुसार सामाजिक जीवन के सभी पक्ष सभी समाजों में, समान स्तरों में से गुजरते हुए वर्तमान स्थिति तक पहुँच सके हैं। यदि यह सच है तो क्या में एकसमान नहीं रहे हैं। कारण है कि आज भिन्न-भिन्न समाजों के सामाजिक संगठन और सामाजिक ढाँचे में इतना अधिक अन्तर पाया जाता है? इससे भी यही प्रमाणित होता है कि विकास के विभिन्न सतर सभी समाजो
(4) गिन्सबर्ग का मत है कि “यह धारणा कि उद्विकास एक सरल स्थिति से जटिल स्थिति की ओर होने वाला परिवर्तन है, एक गम्भीर विवाद का विषय है।” वास्तव में, सामाजिक जीवन प्रत्येक परिवर्तन के साथ अनिवार्य रूप से जटिल नहीं हो जाता है। अधिक-से-अधिक इसकी सम्भवना मात्र की जा सकती है।
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