विशिष्ट बालक किसे कहते हैं? यह कितने प्रकार के होते हैं?
विशिष्ट बालक किसे कहते हैं?- साधारण रूप में देखा जाय तो विशिष्ट बालक वे बालक होते हैं जो सामान्य नहीं होते। सामान्य से तात्पर्य समूह के उन अधिकांश बालकों से है, जिनके लिए पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियों और अन्य प्रकार की पाठ्य सहगामी क्रियाओं में अधिक अन्तर रखने की आवश्यकता नहीं होती। अर्थात् इनके अध्ययन-अध्यापन, चिन्तन, मानसिकता, नैतिकता और जीवन लक्ष्यों में विशेषनहीं होता किन्तु कुछ बालक ऐसे भी होते हैं, जो सबके बीच में रहकर भी सबसे अलग दिखायी पड़ते हैं। ऐसे बालक संख्या में तो कम होते हैं, किन्तु गुणवत्ता में बहुत कम या बहुत अधिक होते हैं। जो बालक गुणवत्ता में बहुत अधिक होते हैं, वे विलक्षण प्रतिभा के धनी व कुशाग्र बुद्धि वाले होते हैं। इन जैसे बालकों के लिए ही यह कहा जाता है-“होनहार बिरवान के होत चीकने पात” अथवा “पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं।” ऐसे बच्चे असाधारण चिन्तनशक्ति, योग्यता, तर्क शक्ति और सृजनात्मक प्रतिभा के धनी होते हैं। यही बालक आगे चलकर समाज को नयी दिशा देते हैं और उसका मार्ग दर्शन करते हैं। इन्हीं में से बड़े होकर कोई वैज्ञानिक बनता है, तो कोई कवि, कोई साहित्यकार बनता है, तो कोई चित्रकार या कलाकार। समाज का विकास इन्हीं जैसे गिने-चुने व्यक्तियों की सूक्ष्म चिन्तन शक्ति के कारण होता है। अत: इनको विशिष्ट बालक का दर्जा देकर इन्हें विशेष प्रकार की शिक्षा प्रदान की जाती है, जिससे इनकी आन्तरिक शक्तियों का पूर्ण विकास किया जा सके।
इसके विपरीत जो बालक शारीरिक-मानसिक रूप से अत्यधिक कमजोर होते हैं, वे भी विशिष्ट बालकों की श्रेणी में ही आते हैं। ऐसे बालकों को समाज में उपेक्षित करके छोड़ा नहीं जा सकता है। शिक्षा का एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्देश्य समाज के प्रत्येक बालक की आन्तरिक शक्तियों का विकास करते हुए उसका सर्वांगीण भौतिक विकास करना है। अतः इन दुर्बल अथवा मन्द बुद्धि बालकों को भी विशिष्ट बालकों का दर्जा देते हुए इनके यथासंभव अधिक से अधिक विकास का प्रयास किया जाना चाहिए। ऐसे बालकों का चिन्तन, रहन-सहन, शैक्षिक गतिविधियाँ तथा अन्य क्रिया-कलाप सामान्य छात्रों से इतने अधिक होते हैं, कि इनके अध्ययन के लिए भी विशेष प्रकार के प्रबन्ध करने पड़ते हैं। टैलफोर्ड ने उक्त दोनों प्रकार के विशिष्ट बालकों की विशेषताएँ निम्न कथन के द्वारा प्रकट की हैं-“शब्द विशिष्ट बालक उन बच्चों के लिए प्रयुक्त होता है, जो सामान्य बालकों से शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक विशेषताओं में इस सीमा तक भिन्न होते हैं, कि उनकी क्षमताओं का अधिकतम विकास करने के लिए विशेष प्रकार की सामाजिक एवं शैक्षिक सेवाओं की आवश्यकता पड़ती है।”
विशिष्ट बालकों के प्रकार
विस्तृत रूप में विशिष्ट बालकों को दो प्रमुख भागों में बाँटा जाता है। एक भाग के अन्तर्गत अत्यधिक तीव्र बुद्धि वाले प्रतिभाशाली बालक आते हैं तथा दूसरे भाग में कमजोर व मन्दबुद्धि बालकों को रखा जा सकता है। किन्तु विद्वानों ने बालकों के व्यक्तित्व विकास के विभिन्न पक्षों को आधार मानकर इन बालकों के निम्न प्रकार बताये हैं-
1. शारीरिक विशेषताओं के आधार पर विशिष्ट बालक
कुछ बालक शारीरिक रूप और बनावट में सामान्य बच्चों से भिन्न होते हैं। आमतौर पर अपंग, विकलांग, अत्यधिक कमजोर (कृष काय) अथवा बहुत अधिक भारी-भरकम शरीर वाले छात्र इस श्रेणी में आते हैं। इन्हें सामान्य बालकों के साथ उठने-बैठने, पढ़ने-लिखने और खेल-कूद आदि में परेशानी उठानी पड़ती है। अत: इनके लिए शिक्षकों को कुछ भिन्न प्रकार की व्यवस्था करनी पड़ती है।
2. मानसिक रूप से विशिष्ट बालक
ये बालक मानसिक और बौद्धिक विकास की दृष्टि से सामान्य बालकों से पर्याप्त भिन्न होते हैं। इस वर्ग में प्रतिभाशाली तथा उच्च गुणों वाले बालक आते हैं। इसके विपरीत मन्द बुद्धि वाले, पिछड़े हुए समस्यात्मक बालक तथा अधिगम के लिए अयोग्य बालक भी इसी कोटि के अन्तर्गत सम्मिलित किये जाते हैं।
3. सामाजिक विकास की दृष्टि से विशिष्ट बालक
इस श्रेणी में वे बालक आते हैं जो अपने विशिष्ट व्यवहार के कारण समाज के सामान्य सदस्यों से समायोजन स्थापित नहीं कर पाते हैं। इस प्रकार के बालकों में प्रायः अपराधी बालक, समस्यात्मक बालक, शरारती व उद्यमी बालक, दुष्ट प्रकृति वाले बालक तथा नशे व ड्रग आदि के व्यसनी आदि बालकों को सम्मिलित किया जाता है।
4.संवेगात्मक विकास की दृष्टि से विशिष्ट बालक
इस प्रकार के बालक अपने विशिष्ट संवेगात्मक और भावनात्मक विकास के कारण सामान्य बालकों से भिन्न होते हैं। ऐसे बालक समूह के अन्य सदस्यों के साथ घुल-मिलकर नहीं रह पाते हैं। ये बालक प्रायः अत्यधिक अन्तर्मुखी या बहुत अधिक बहिर्मुखी अथवा मुँहफट, संकोची, शर्मीले, अत्यधिक क्रोधी, परेशान अथवा चिंताग्रस्त आदि विशेषताओं से युक्त होते हैं।
उक्त विभिन्न प्रकार के विशिष्ट बालकों को वर्गीकृत करने में अनेक प्रकार की व्यावहारिक कठिनाइयाँ भी सामने आती हैं। कभी-कभी एक ही बालक अनेक प्रकार की विशिष्टतायें लिए हुए होता है। उदाहरण के तौर पर अत्यधिक शरारती बालक अक्सर बहुत कार्य करने वाले निकल जाते हैं। इसी प्रकार बहुत से समस्यात्मक बालक अपनी विशिष्ट प्रतिभा का सम्यक विकास न हो पाने के कारण शरारती या समाज के लिए बाधक बन जाते हैं जबकि वे वास्तव में शरारती नहीं होते हैं। यही बात विकलांग या अंगभंग छात्रों के लिए भी कही जा सकती है। प्रायः ऐसा माना जाता है कि जिस व्यक्ति का कोई एक अंग निष्क्रिय हो जाता है तो उसके दूसरे अंग अधिक सक्रिय हो जाते हैं। इसीलिए अनेक विद्वानों ने व्यक्तित्व के विभिन्न गुणों के आधार पर विशिष्ट बालकों के निम्नलिखित प्रकार बताए हैं-
1. प्रतिभाशाली बालक,
3. अपंग या विकलांग बालक,
5. पिछड़े बालक,
7. वंचित बालक,
9. कुसमायोजित बालक,
2. सृजनात्मक बालक,
4. मन्द बुद्धि बालक,
6. समस्यात्मक बालक,
8. अधिगम के लिए अयोग्य बालक,
10. अपराधी बालक।
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