दुर्खीम का सामाजिक एकता सिद्धांत
दुर्खीम का सामाजिक एकता सिद्धांत – इमाइल दुर्खीम का सम्पूर्ण चिन्तन का सिद्धान्त सामूहिकतावाद पर आधारित है। उसके प्रत्येक सिद्धान्त में समूह और समाज का महत्त्व है। यह ठीक है कि मनुष्य समाज का निर्माण करते हैं। उसका गठन करते हैं। उसको गढ़ते हैं किन्तु वे उसके द्वारा संचारित, नियंत्रित और दिशा-निर्देशन भी प्राप्त करते हैं। व्यक्तियों की उन्नति, प्रगति और विकास समूह के विकास पर आधारित है। समूह का विकास उसकी एकता की भावना में समाहित है। एकता का अभिन्न अंग व्यक्ति है क्योंकि वह ही इसका निर्धारक है। इस दृष्टि से दुर्खीम का सामाजिक एकता का सिद्धान्त समजाशास्त्र में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। दुर्थीम का यह मत है कि सामाजिक जीवन में सामूहिकता और व्यक्तिवादिता दो तरह की भावनाएँ एक साथ देखी जा सकती हैं। व्यक्ति अपने वैयक्तिक कार्यक्षेत्र में स्वतन्त्र है किन्तु वह ऐसा कोई कार्य नहीं करता जिससे समूह अथवा अन्य व्यक्ति को क्षति पहुँचे। सामाजिक एकता का सिद्धान्त दुखीम के श्रम-विभाजन की अवधारणा में देखने को मिलता है। मानवीय मिलकर कार्य करने की भी। व्यवस्था के अनुरूप अपने को ढालना, उसी के अनुरूप व्यवहार करना, समाज में दोनों तरह की प्रक्रियाएँ देखी जाती हैं। वहाँ मिलजुकर काम करने की प्रवृत्ति भी है और न अपने व्यवहार पर नियन्त्रण रखना आदि व्यक्तियों के व्यवहारों से एक व्यवहार का सामान्य ढांचा जो श्रम विभाजन में दृष्टिगोचर होती हैं वे व्यक्तियों को परस्पर निकट भी लाती हैं और मिलकर काम अथवा प्रतिमान बनता है जो सामाजिक एकता को प्रकट करता है। इसके विपरीत कार्यों की विविधताएँ करने की प्रेरणा भी देती हैं और दबाव में डालती हैं। अन्ततः इनमें एक प्रकार की सामाजिक-एकता की भावना परिलक्षित होती है।
सामाजिक एकता के प्रकार-
(1) यांत्रिक एकता– दुर्खीम समूहवाद की अवधारणा को यांत्रिक एकता में भी प्रयोग करता है। उसका कहना है कि आदिम युगीन समाज में यांत्रिक एकता पायी जाती है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि जैसे मशीन के विभिन्न कल-पुर्जे एक दूसरे से अलग होते हुए भी वे परस्पर एक दूसरे से कार्य को संचालित करने हेतु जुड़े हैं, आदिम समाज में भी व्यक्ति एक दूसरे से जुड़ा होता है। उनमें सामूहिक भावना होती है। इसीलिए दुर्खीम ने मशीन से सामाजिक एकता की तुलना की है। इसके लिए उसने एक शब्द गढ़ा है यांत्रिक एकता। समाज में व्यक्ति यंत्र की तरह कार्य करता रहता है। जैसे यंत्र के कार्य करने की एक पद्धति और दिशा है वह उसी के अनुरूप कार्य करता है। ठीक इस प्रकार व्यक्ति समाज के नियमों और कानूनों का पालन करता है। आदिमयुगीन समाज में सामाजिक एकीकरण की भावना उच्चतम स्तर पर विद्यमान है। वास्तव में यांत्रिक एकता उन समाजों की विशेषता है जहाँ के व्यक्ति अपनी परम्पराओं और प्रथाओं से गहरे रूप में जुड़े हैं। उन्हें बगैर किसी तर्क के पालन करते हैं। ये उनके सामूहिक- जीवन के अभिन्न अंग हैं। अपने समाज की परम्पराओं, नैतिक मूल्यों और आदर्शों को बनाए रखने के लिए इनमें न किसी प्रकार का विवाद होता है और न भ्रम ही उत्पन्न होता है। इस समूह की एकता यंत्रों के पुजों की तरह जुड़े और परस्पर बंधे होते हैं। मशीन की तरह समूह के व्यक्ति भी मिलकर कार्य करते हैं इसीलिये इसे यांत्रिक एकता का नाम दिया गया है।
(2) सावयवी एकता- सावयवी एकता औद्योगीकृत और जटिल समाजों में पाई जाती है। इस समाज में सम्बन्ध औपचारिक होते हैं। यह विभिन्नताओं का समाज होता है। श्रम- विभाजन का आधार विशेषीकरण, विशेष योग्यता, क्षमता, कुशलता आदि हो जाते हैं। ऐसे समाज में उसी सीमा तक एक व्यक्ति दूसरे से जुड़ा रहता है तब तक उनकी आवश्यकताएँ पूर्ण होती रहती हैं। इस दृष्टि से किसी सीमा तक वे एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं क्योंकि इस समाज में व्यक्ति सभी प्रकार के कार्य स्वयं नहीं कर सकता है इसलिये वह सावयवी एकता अन्तःनिर्भता के कारण उत्पन्न होती है। सावयवी एकता का नाम इसे इसलिए दिया गया कि जैसे शरीर के समस्त अंग आँख, कान, नाक, हाथ, पैर स्वतन्त्र रूप से अपने विशेष प्रकार के कार्यों को करते हैं किन्तु यह कार्य तभी सम्भव है जब वे संयुक्त रूप से परस्पर जुड़े रहते हैं शरीर का कोई पृथक अंग शरीर से अलग होकर कार्य नहीं कर सकता है जैसे आँख, हाथ, पैर आदि। इस तरह शरीर के विभिन्न क्रिया अंगों में परस्पर एकता होने के कारण वे अपना कार्य करते हैं। यह एक प्रकार की सामाजिक सावयवी एकता है। दुर्खीम का यह मानना है कि समाज का स्वरूप तीव्रता से परिवर्तित हो रहा है। इस परिवर्तन की दिशा यांत्रिक एकता की स्थिति से पृथक होकर सावयवी एकता की ओर अग्रसर है। दुर्खीम का मत है कि श्रम विभाजन के विकास ने जो एक ऐतिहासिक रूप में आवश्यक प्रक्रिया है, उसने उच्चतम एकता को स्थापित किया है जो कभी नहीं थी। निश्चय ही वह बदलते हुए समाज की सामाजिक एकता और सावयव एकता के सम्बन्ध में कहते समाज में व्यक्तियों के विचारों और प्रवृत्तियों में सामान्यता होती है। दूसरे शब्दों में यान्त्रिक एकता वहाँ विकसित होती है जहाँ व्यक्तियों के मध्य पारस्परिक मतभेद कम होते हैं और व्यक्ति जनहित के लिए समर्पित होता है। सावयव एकता ठीक इसके वपिरीत है यह मतभेदों में उत्पन्न होती है। यह श्रम-विभाजन की उत्पत्ति है।
यांत्रिक एकता और सावयवी एकता कई प्रश्न खड़े करते हैं। आदिमयुगीन समाज परम्परात्मक विचार व कार्यों के आधार पर एकता और परम्परा निर्भरता क्या सभी प्रकार हैं कि यांत्रिक एकता के आदिम समूह में समान रूप से पाया जाता है अथवा आदिम समूहों के अन्दर भी अनेक छोटे समूह है जो परस्पर लड़ते रहते हैं। एक दूसरे कबीले या समूह अधिकार जमाने का निरन्तर प्रयास करते हैं। इस तरह यांत्रिक एकता सम्पूर्ण आदिम समाज की एकता का द्योतक नहीं है। बल्कि एक छोटे आदिम समूह की एकता का प्रतीक हो सकता है। सावयवी एकता औद्योगिक और श्रम-विभाजन के समाज में उत्पन्न होती है। श्रमिक वर्ग पृथक्-पृथक् होते हुए भी अपने हितों व स्वार्थों के लिए एक हो जाते हैं। किन्तु आधुनिक समय में श्रमिक-वर्ग अपने संघों में परिणित हो गया है जहाँ एकता के स्थान पर विघटन अधिक है। इसलिए दुखीम का कहना कि यांत्रिक एकता आधुनिक श्रम-विभाजन के विशेषीकरण के युग में सावयवी एकता में बदलती जा रही है। यह आपैचारिक एकता समूह का श्रम वर्ग के स्वार्थों व हितों पर आधारित है। यांत्रिक एकता का समापन होना सम्भव ही नहीं है। आदिम समाज में अपनापन, परस्पर सौहार्द्र लगाव, सामूहिक क्रियाकलापों में एकजुटता की भावना, उत्सव में सभी की भागीदारी आदि एकता के प्रतीक हैं जिनका औद्योगिक और जटिल समाज में पूर्णतया अभाव है। दुर्थीम का कहना कहीं से भी उचित नहीं लगता है कि आदिम समाज में पायी जाने वाली यांत्रिक एकता सावयवी एकता में बदल जाएगी।
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