टालकाट पारसन्स के सामाजिक व्यवस्था एवं इसके सकारात्मक एवं नकारात्मक तत्व
पारसन्स के अनुसार सामाजिक व्यवस्था का निर्माण परस्पर अन्तः क्रिया करते हुए अनेक व्यक्तियों द्वारा होता है। पारसन्स की इस व्याख्या के विश्लेषण से सामाजिक व्यवस्था के कुछ आवश्यक तत्व स्पष्ट होते हैं उनमें से कुछ प्रमुख तत्व इस प्रकार हैं—
(1) अनेक या एकाधिक वैयक्तिक कर्त्ता।
(2) इन कर्ताओं के बीच होने वाली अन्तः क्रियाएँ।
(3) इन अन्तः क्रियाओं का एक उद्देश्य या लक्ष्य या ‘इच्छाओं की आदर्श प्राप्ति’ जोकि इन अन्तःक्रियाओं के घटित होने के विषय में एक प्रेरक शक्ति के रूप में कार्य करता है
(4) इन अन्तःक्रियाओं के घटित होने के लिए आवस्यक एक सामाजिक परिस्थिति, जिसका कि कम-से-कम भौतिक या पर्यावरण सम्बन्धी पक्ष हो ।
(5) अन्तःक्रियाओं द्वारा उत्पन्न व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों की सांस्कृतिक व्यवस्था से सम्बद्ध या उस सांस्कृतिक व्यवस्था द्वारा नियमित व परिभाषित।
वास्तव में, एक सांस्कृतिक व्यवस्था-विशेष द्वारा नियमित व परिभाषित होते हुए मानवीय आवश्यकताओं या इच्छाओं की पूर्ति के हेत् सामाजिक परिस्थिति में होने वाली अन्तः क्रियाओं द्वारा उत्पन्न सामाजिक सम्बन्धों के व्यवस्थित प्रतिमान को ही सामाजिक व्यवस्था कहते हैं। स्वयं पारसन्स के ही शब्दों में, सामाजिक व्यवस्था आवस्यक रूप में अन्तः क्रियात्मक (interactive) सम्बन्धों का एक जाल है।
पारसन्स द्वारा प्रतिपादित सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा के पाँच प्रमुख तत्वों की उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। इन पाँच तत्वों में से कुछ तत्वों को एक साथ मिलाकर इस व्यवस्था के तत्वों की संख्या तीन भी की जा सकती है— प्रथम, वैयक्तिक कर्त्ताः द्वितीय, अन्तः क्रियात्मक व्यवस्था। स्मरण रहे कि अन्तःक्रियात्मक व्यवस्था के अन्तर्गत तीन तत्वों का समावेश होता है। एकाधिक वैयक्तिक कर्ताओं के बीच होने वाली अन्तःक्रियाएँ, इन अन्तःक्रियाओं की प्रेरक शक्ति या मानवीय इच्छाएँ व आवश्यकताएँ, तथा अन्तःक्रियाओं के घटित होने के लिए आवश्यक सामाजिक परिस्थिति। इन तीनों तत्वों को सम्मिलित कर लेने पर सामाजिक व्यवस्था में अन्तर्निहित तत्वों की संख्या पाँच हो जाती है, वरना उन्हें केवल तीन भी कहा जा सकता है। ये तीनों तत्व परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित और एक-दूसरे के पूरक है। इनमें से एक भी तत्व के न होने पर सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा अधूरी ही रह जाएगी। इस पारस्परिक सम्बन्ध के दो पहलू उल्लेखनीय हैं—प्रथम, तो यह सामाजिक व्यवस्था इस प्रकार संरचित नहीं हो सकती कि उसके अन्तर्गत प्राणिशास्त्रीय सावयवों या सामाजिक व्यक्तियों के रूप में वैयक्तिक कर्त्ता या सांस्कृतिक व्यवस्था अपने-अपने कार्यों को उचित ढंग से कर न सकें। द्वितीयतः सामाजिक व्यवस्था स्वयं ही अन्य दो व्यवस्थाओं (अन्तःक्रियात्मक व्यवस्था और सांस्कृतिक व्यवस्था) से प्राप्त आवश्यक सहयोग या सहायता पर ही निर्भर है। सामाजिक व्यवस्था तब तक पनप नहीं सकती जब तक वैयक्तिक कर्ताओं को उनके पद (status) के अनुसार कार्य करने के लिए पर्याप्त मात्रा में इस भाँति प्रेरित न किया जाए कि सकारात्मक रूप में वे अपने को अत्यधिक भ्रष्ट व विनाशकारी प्रवृत्तियों या समाज-विरोधी व्यवहारों अथवा आचरणों से दूर रखें। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि सांस्कृतिक व्यवस्था भी इस प्रकार की न हो कि वह सदस्यों से असम्भव माँग करे जिससे कि समाज-विरोधी कार्यों को प्रोत्साहन मिले। यदि संस्कृति को मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन माना जाए तो सांस्कृतिक व्यवस्था इस भाँति होनी चाहिए कि इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक अवस्थाएँ बनी रहें। इस साधन (संस्कृति) की सहायता से व्यक्ति सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
सामाजिक व्यवस्था के सकारात्मक व नकारात्मक तत्व (Positive and Negative Elements of Social System)
पारसन्स ने लिखा है कि सामाजिक व्यवस्थाओं और व्यक्तियों के बीच कोई सीधा-सादा सम्बन्ध नहीं होता। इसलिए यह कहना कठिन है कि व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताएँ क्या हैं। सामाजिक व्यवस्था की क्रियाशीलता के दृष्टिकोण से केवल इतना ही कह जा सकता है कि इनके अन्तर्गत न तो अंश ग्रहण करने वाले सभी कलाओं की और न ही किसी एक कर्ता की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, बल्कि अधिकतर कर्ताओं की अधिकतम आवश्यकताओं की पूर्ति सम्भव होती है। साधारणतया यह देखा गया है कुछ सामाजिक शक्तियाँ कतिपय व्यक्तियों को और सभी लोगों की कुछ आवश्यकताओं को हानि पहुँचाने या उन्हें नष्ट करे के विषय में प्रत्यक्षतः उत्तरदायी होती है। यह हो सकता है कि इन सम्भावाओं को कम किया जा सके, परन्तु व्यावहारिक रूप में उन्हें पूर्णतया समाप्त नहीं किया जा सकता। उदाहरणार्थ, कुछ लोगों के प्राणों की भेंट चढ़ाए बिना युद्ध में कदापि विजय प्राप्त नहीं की जा सकती है और कभी-कभी एक विशिष्ट व्यवस्था के रूप में एक सामाजिक व्यवस्था का अस्तित्व इसी शर्त पर निर्भर करता है कि युद्ध को स्वीकार कर लिया जाए। इसका तात्यय तो यही हुआ कि सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा के अन्तर्गत इस प्रकार कतिपय विनाशकारी शक्तियों को भी सामाजिक व्यवस्था का ही एक आवश्यक अंग या एक न टाला जा सकने वाला तत्व मान लिया जाए। हाँ, इन्हें निकालकर एक जड़वत व काल्पनिक समाज-व्यवस्था की की जा सकती है। क्रियाशील व वास्तविक सामाजिक व्यवस्थाओं के लिए ये शक्तियाँ भी पूर्वपेक्षित या आवश्यक शर्त है।
समाज या सामाजिक व्यवस्था के अस्तित्व के लिए यह आवश्यक है कि वैयक्तिक जीव का अस्तित्व बना रहे और वैयक्तिक जीवन के अस्तित्व के बने रहने के लिए यह अनिवार्य है कि भोजन, शारीरिक सुरक्षा आदि मानव की प्राथमिक या आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे। अतः सामाजिक व्यवस्था की स्थिरता के लिए यह आवश्यक है कि वह अपना अनुकूलन इन आवश्यकताओं से करे। सामाजिक व्यवस्था ऐसा करने में असफल होती है तो उसकी अपनी एक प्रतिक्रिया इसी ओर वह इस रूप में कि व्यक्तियों में या वैयक्तिक कर्ताओं या समूहों में विनाशकारी समाज-विरोधी प्रवृत्तियों, आचरणों या व्यवहारों का विकास होगा क्योंकि उचित या वैध तरीकों से उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति न होने पर वे अनुचित या अवैध उपायों को अपनाने की ओर स्वतः ही प्रवृत्त होगे जिसके फलस्वरूप सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आवश्यक अवस्था समाप्त हो जाएगी और सामाजिक व्यवस्था के विघटित होने रहेगा। अतः सामाजिक व्यवस्था के अस्तित्व व स्थिरता के लिए एक आवश्यक शर्त यह है कि समाज के अधिकाधिक कर्ताओं की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करके उन्हें क्रियाशील रहने के लिए प्रेरित किया जाए, जिससे कि वे पर्याप्त मात्रा में सामाजिक क्रियाओं में अंश ग्रहण करते रहें।
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