पुरंदर दास का जीवन परिचय- जीवन की पाठशाला से पुरंदर दास ने जो सबक हासिल किया था, उससे इनका जीवन ही परिवर्तित हो गया था। इंसानी जीवन की विचित्रता और उसके सारांश को उन्होंने प्रदर्शित किया है।
जीवन परिचय | |
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वास्तविक नाम | श्रीनिवास नायक |
अन्य नाम | पुरन्दर दास |
व्यवसाय | शास्त्रीय संगीतकार, महान् कवि व रचनाकार |
व्यक्तिगत जीवन | |
जन्मतिथि | 1484 ई. |
मृत्यु तिथि | 1564 ई. |
मृत्यु स्थल | हम्पी, कर्नाटक राज्य, भारत |
मृत्यु कारण | स्वाभाविक मृत्यु |
समाधि स्थल | पुरन्दर मंतपा, हम्पी में विजयित्थला मंदिर के निकट |
आयु (मृत्यु के समय) | 80 वर्ष |
जन्मस्थान | शिवमोगा जिले में तीर्थहल्ली के पास क्षेमपुरा, भारत |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
गृहनगर | पुरन्दरगढ़, पुणे, भारत |
परिवार | पिता – नाम ज्ञात नहीं (हीरा व्यापारी) माता – नाम ज्ञात नहीं भाई – ज्ञात नहीं बहन – ज्ञात नहीं |
धर्म | हिन्दू |
संगीत शैली | कर्नाटक संगीत |
प्रमुख रचनाएं | • स्वरवलिस • जयंती स्वर • अलंकार • लक्ष्मण गीता • प्रबन्ध • उगभोग • दातुवरसे • सुलादिस नाथादी गुरूगुहो |
प्रेम संबन्ध एवं अन्य जानकारियां | |
वैवाहिक स्थिति | विवाहित |
पत्नी | सरस्वती बाई |
बच्चे | ज्ञात नहीं |
कर्नाटक के इस महान भक्त व कवि के जन्मस्थान या कालखंड के बारे में सटीक तथ्यों की जानकारी नहीं है। यह माना जाता है कि विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय, जो 1509-1529 के मध्य राजा थे और इसी समय पुरंदर दास का भी जन्म हुआ था। इनके बचपन का नाम श्रीनिवास नायक था। इनके पिता वर्तप्पा व्यापारी थे। बड़ा होने पर इन्होंने भी व्यापार करना आरंभ कर दिया। कुछ वर्ष पुरंदर ने सुखपूर्वक गृहस्थ जिंदगी गुजारी, लेकिन एक दिन ऐसी घटना घटी, जिससे श्रीनिवास के जीवन की दिशा में समग्र परिवर्तन आ गया।
ऐसा माना जाता है कि एक गरीब ब्राह्मण अपने पुत्र के जनेऊ संस्कार के लिए कुछ धन मांगने श्रीनिवास के पास आया, किंतु कंजूस श्रीनिवास ने उसे लज्जित कर भगा दिया। तब हताश ब्राह्मण श्रीनिवास की पत्नी सरस्वती के पास गया तो सरस्वती ने धन न होने की वजह से अपनी मूल्यवान नथ ब्राह्मण को दे दी। नथ लेकर ब्राह्मण उसे गिरवी रखकर धन लेने के लिए जब पुनः श्रीनिवास के पास गया तो उसने पत्नी की नथ को पहचान लिया। अपने शक को पुख्ता करने के लिए वह घर गया और पत्नी से नथ मांगी। नथ तो वह ब्राह्मण को दे चुकी थी। अतः पति के हाथों अपमानित होने से बचने के लिए वह कटोरे में विष घोलकर मरने से पूर्व भगवान की मूर्ति के समक्ष प्रणाम करने लगी। आंख खोलने पर उसे कटोरे में विष के स्थान पर अपनी नथ ही मिल गई। श्रीनिवास यह सब देख रहा था। उसके विचार परिवर्तित हो गए। सांसारिक मायाजाल को वह समझ गया। पुरंदर को फिर न मोह रहा और न ही किसी प्रकार की आसक्ति शेष रही। उसने अपनी संपूर्ण संपत्ति जरूरतमंदों में बांट दी और मुनि व्यास तीर्थ से दीक्षा ग्रहण कर ली। फिर ये पुरंदर दास के नाम से प्रसिद्ध हुए।
अब पुरंदर दास अपने आराध्य देवता की अराधना में रोज ही नए पद रचने लगे। कहा जाता है कि इन्होंने लगभग 4 लाख पदों का सृजन किया। इन पदों को ये गाकर लोगों को सुनाया करते थे। इन्होंने अपने पदों के माध्यम से लोगों को सांसारिक मायामोह की सच्चाई बताई, वर्गभेद मिटाने का प्रयास किया और संगीत को जनप्रिय किया। इनके भजनों में भी सूरदास की तरह कृष्ण की बालक्रीड़ाओं का बेहद सजीव वर्णन हुआ है। ये सुबह जल्दी उठकर अपनी पत्नी व बच्चों के संग भिक्षा को जाते और भजन गाकर भिक्षा मांगते। इसी से संपूर्ण पवार की
उदरपूर्ति होती थी। पुरंदर दास का ज्यादातर समय विजयनगर राज्य की उस समय की राजधानी हम्पी में गुजरा, किंतु जीवन के अंतिम समय में ये शोलापुर के पास पुरंदर गढ़ निवास करने लगे थे। पुरंदर दास बेहद लोकप्रिय थे। ये चरित्र-निर्माण को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण मानते थे। वह कहते थे स्वयं का सुधार किए बिना अन्य लोगों को उपदेश देना बेकार है। विचार-व्यवहार ही यदि पवित्र न हो तो फिर तीर्थाटन व सभी पूजा-विधान महज आडंबर हैं।
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