वैयक्तिक विभिन्नता का शैक्षिक महत्व (Education implications of individual differences)
वैयक्तिक विभिन्नता का शैक्षिक महत्व- 1. कक्षा का वर्गीकरण (Class Classification) – विद्यालय में प्रवेश लेने वाले प्रत्येक विद्यार्थी दूसरे विद्यार्थी से पर्याप्त भिन्न होता है। अतः उनके सामाजिक विकास के लिये योग्यता आधार पर उन्हें अलग-अलग सेक्शन में रखा जाये। इस विभाजन के आधार पर तीन प्रकार के वर्ग बन सकते हैं। तेज बुद्धि के बालक, सामान्य बुद्धि के बालक तथा मंद बुद्धि के बालक। विद्यार्थियों के ये वर्ग उनके पिछली कक्षाओं के परिणाम के आधार पर भी बनाये जस सकते हैं। इन वर्गों में अध्यापक भी उसी श्रेणी में रखे जाने चाहिये।
2. कक्षा का आकार (Size of the Class)- आज कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या बहुत अधिक रखी जाती है जिससे अध्यापक सभी बालकों पर ध्यान नहीं दे पाता और उनकी व्यक्तिगत कठिनाइयों को भी हल नहीं कर पाता। इस दृष्टि से कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या बहुत कम रखी जाय ताकि अध्यापक प्रत्येक छात्र पर ध्यान दे सके तथा उसकी समस्याओं को हल कर सके। मनोवैज्ञानिकों का मत है कि एक कक्षा में छात्रों की संख्या 20 से अधिक नहीं रखनी चाहिये।
3. व्यक्तिगत शिक्षण (Individualized Instruction) – आज सभी विद्यालयों में सामूहिक शिक्षण की व्यवस्था है जो दोषपूर्ण है। मानसिक योग्यताओं में भिन्नता के कारण सभी छात्र इस व्यवस्था से लाभ नहीं उठा पाते । एक अध्यापक भी सामान्य छात्र को ध्यान में रखकर ही शिक्षण कार्य करता है जिससे तेज व मन्द बुद्धि बालकों को कोई लाभ नहीं होता। इसलिये प्रत्येक विद्यालय में व्यक्तिगत शिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिये ताकि प्रत्येक छात्र को लाभ मिल सके । व्यक्तिगत शिक्षण की व्यवस्था पर बल देते हुये क्रो व क्रो (Crow and Crow) ने लिखा है- “विद्यालय का यह कर्त्तव्य है कि वह प्रत्येक बालक के लिए उपयुक्त शिक्षा की व्यवस्था करे, भले ही वह अन्य सब बालकों से कितना ही भिन्न क्यों न हो। रॉस (Ross) ने भी इस सम्बन्ध में लिखा है- “ कठिनाई का वास्तविक समाधान प्रकारों के अनुसार वर्गीकरण नहीं है वरन् व्यक्तिगत शिक्षण है।”
4. शारीरिक दोषों की ओर ध्यान (Attention towards Physical Defects)- एक समझदार और योग्य शिक्षक छात्रों के शारीरिक दोषों को ध्यान में रखते हुए शिक्षण की व्यवस्था करता है। जो छात्र कम सुनते हैं या जिनकी दृष्टि कमजोर है या जो नाटे कद के हैं उन्हें शिक्षक कक्षा में आगे बैठाते हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक स्कूल में डॉक्टर की नियुक्ति की जाये जो प्रत्येक विद्यार्थी की नियमित रूप से जाँच करे। कमजोर तथा अत्यन्त गरीब बालकों के लिये विश्राम के घंटे तथा नाश्ते की व्यवस्था की जानी चाहिये। इस सम्बन्ध में स्किनर (Skinner) ने निम्नलिखित सुझाव दिये हैं-
(i) जिन बालकों को कम सुनाई देता है, उन्हें कक्षा में सबसे आगे स्थान दिया जाये।
(ii) निर्बल और कुपोषित बालकों के लिये विश्राम के घंटे निश्चित किये जायें।
(iii) प्रत्येक बालक की डॉक्टरी जाँच करायी जाये।
5. लिंगभेद के अनुसार शिक्षा (Sex-based Education) – लड़के तथा लड़कियाँ एक-दूसरे से भिन्न रुचियाँ तथा योग्यताएँ रखते हैं। अतः इन्हीं के अनुसार शिक्षा दी जानी चाहिये। प्राइमरी स्तर तक लड़के-लड़कियाँ के लिए एक से विषय हो सकते हैं लेकिन माध्यमिक स्तर पर नहीं। उदाहरण के तौर पर लड़कियाँ भाषा, कला, संगीत, गृह विज्ञान जैसे विषयों में रुचि लेती हैं तो लड़के विज्ञान, गणित, दर्शन, तर्कशास्त्र आदि विषयों में रुचि रखते हैं। छात्रों पर विषय थोपने नहीं चाहिए बल्कि उन्हें उन्हीं विषयों के चयन की स्वतंत्रता होनी चाहिये जिसमें उनकी रुचि हो ।
6. पाठ्यक्रम (Curriculum) – पाठ्यक्रम में कठोरता नहीं होनी चाहिये बल्कि उसमें लचीलापन होना चाहिये। साथ ही, पाठ्यक्रम में विषयों की इतनी भरमार होनी चाहिये ताकि छात्र अपनी रुचि के विषय को अपना सके। पाठ्यक्रम छात्र के मानसिक स्तर के अनुकूल बनाया जाना चाहिये, न तो अधिक सरल और न ही अधिक कठोर (जटिल ) । ऐसा न होने पर मन्द बुद्धि बालक पिछड़ जाते हैं तथा मेधावी छात्र उद्दण्ड बन जाते हैं। इसके सम्बन्ध में स्किनर (Skinner) का विचार है- “बालकों की विभिन्नताओं के चाहे जो भी कारण हों वास्तविकता यह है कि विद्यालय को विभिन्न पाठ्यक्रमों के द्वारा उनका सामना करना चाहिए।”
7. गृहकार्य (Home Assignment)- शिक्षक के गृह कार्य देते समय भी व्यक्तिगत भिन्नता का ध्यान रखना चाहिये। तीव्र बुद्धि बालकों को अधिक तथा कठिन कार्य देना चाहिये जबकि सामान्य तथा मन्द बुद्धि बालकों को उनकी मानसिक योग्यता के अनुसार कम तथा सरल कार्य देना चाहिये। ऐसा करने से भी छात्रों को लाभ पहुँचता है । गृहकार्य देते समय बच्चे की अवस्थाओं का भी ध्यान रखा जाना चाहिये जैसे-बाल्यावस्था में कम, किशोरावस्था में कुछ अधिक गृह कार्य तथा इससे अधिक उम्र के बालकों को स्व-अध्ययन के लिये प्रेरित किया जाना चाहिये।
8. शिक्षण-विधि (Teaching Methods) – सभी छात्रों को एक ही शिक्षण-विधि से नहीं पढ़ाया जा सकता। प्राचीन काल में गुरु अपने सभी विद्यार्थियों को एक ही ढंग से सामूहिक रूप से पढ़ाते थे। यदि किसी मंद बुद्धि बालक को कोई बात समझ नहीं आती थी तो उसको पीटते थे। लेकिन आज ऐसा नहीं है। मनोवैज्ञानिकों ने आधुनिकतम शिक्षण विधियों की खोज से शिक्षण कार्य को सरल बना दिया है। इसीलिये छोटे बालकों के लिये मोन्टेसरी तथा किण्डरगार्टन प्रणाली तथा किशोर विद्यार्थियों के लिये प्रोजेक्ट विधि तथा अनुदेशन प्रणाली को अपनाने की बात कही गई है।
9. निर्देशन (Guidance)- विद्यालय में प्रवेश लेने से पूर्व तथा विद्यालय छोड़ने के बाद बालक के सामने अनेक प्रकार की शैक्षिक, व्यावसायिक तथा व्यक्तिगत समस्यायें आती हैं जिनका समाधान निर्देशन के माध्यम से आसानी से किया जा सकता है। वैयक्तिक भिन्नताओं के ज्ञान ने हमें यह समझने में मदद की है कि हमें छात्र की शारीरिक एवं मानसिक योग्यताओं, रुचियों, क्षमताओं, विशिष्ट योग्यताओं एवं अभियोग्यताओं आदि के सन्दर्भ में ही उसके हितार्थ विषयों व क्षेत्र के चयन में मदद करनी चाहिये। इसी को हम शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन कहते हैं।
10. सहायक सामग्री (Teaching Aids)- हम इस तथ्य से भली-भाँति अवगत हैं। कि बच्चे एक जैसी शिक्षण सामग्री में रुचि नहीं लेते हैं अत: यह आवश्यक है कि शैशवास्था, बाल्यावस्था व किशोरावस्था में भिन्न-भिन्न प्रकार की शिक्षण सामग्री प्रयोग में लायी जाये। आज के समय में दृश्य-श्रव्य सामग्री जैसे टेलीविजन, कम्प्यूटर, शिरोमणि प्रक्षेपण आदि का अधिकांशतः प्रयोग किया जाता है लेकिन सभी बच्चे इनमें एक समान रुचि नहीं लेते। यही कारण है कि शिक्षक अपने शिक्षण को रुचिकर बनाने के लिये विभिन्न प्रकार के चार्ट, मॉडलों, चित्रों व रेखाचित्रों का सहारा लेता है।
उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि शिक्षा में व्यक्तिगत विभिन्नताओं का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रखकर शिक्षा की व्यवस्था करके ही बालकों के व्यक्तित्व का सर्वाङ्गीण विकास किया जा सकता है। शिक्षक, व्यक्तिगत विशेषताओं का ज्ञान प्राप्त करके अपने छात्रों की विविध प्रकार से सहायता कर सकता है। इस सम्बन्ध में स्किनर के विचार हैं-“यदि अध्यापक उस शिक्षा में सुधार करना चाहता है, जिसे सब बालक अपनी योग्यता का ध्यान किये बिना प्राप्त करते हैं, तो उसके लिये व्यक्तिगत विभिन्नताओं के स्वरूप का ज्ञान अनिवार्य है।”
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