कक्षा में वैयक्तिक भिन्नताओं के समायोजन (Accommodating individual differences in the class)
कक्षा में वैयक्तिक भिन्नताओं के समायोजन- आज के युग में हमारे देश में वैयक्तिक विभिन्नताओं के आधार पर सभी स्तरों के विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करना सम्भव नहीं है। यद्यपि कुछ स्कूल अन्धे, बहरे, गूंगे बालकों के लिये अलग-अलग प्रारम्भ किये जा चुके हैं जबकि अधिकांश बालक एक साथ सामान्य स्कूलों में ही शिक्षा ग्रहण करते हैं। ऐसी परिस्थिति में शिक्षकों को विशेष प्रकार के प्रशिक्षण प्रदान करने की आवश्यकता होती है ताकि वे इन वैयक्तिक भिन्नताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षण कर सकें। इस सन्दर्भ में यह जानना आवश्यक है कि हम कक्षाओं को किस प्रकार व्यवस्थित करें, बच्चों को साथ-साथ शिक्षा कैसे प्रदान करें तथा उनके साथ किस प्रकार व्यवहार करें। निम्न बिन्दुओं के माध्यम से इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है-
शारीरिक भिन्नताओं की ओर ध्यान (Attention to Physical Differences)- शारीरिक संरचना के आधार पर कुछ छात्र छोटे होते हैं, कुछ लम्बे होते हैं और अधिकांश औसत दर्जे के होते हैं । इस दृष्टि से अध्यापक को चाहिये कि वह सबसे छोटे बच्चों को सबसे पहली पंक्ति में बैठाये तथा सबसे लम्बे छात्रों को सबसे अंतिम पंक्ति में बैठाये। यह भी हो सकता है कि कुछ छात्रों में दृष्टि सम्बन्धी या श्रवण सम्बन्धी शिकार हो तो ऐसे छात्रों को भी प्रथम पंक्ति में बिठाने की व्यवस्था करनी चाहिये। कुछ छात्र अपंग भी हो सकते हैं तो ऐसे छात्रों को कमरे के दरवाजे के पास कुर्सी पर बिठाने की व्यवस्था करनी चाहिये। साथ ही, ऐसे बच्चों से स्नेह, सहानूभूति व सहयोगपूर्ण व्यवहार करना चाहिये। किसी भी अवस्था में ऐसे छात्रों को यह अहसास नहीं होना चाहिये कि वे दया के पात्र हैं तथा शिक्षक उन्हें दयाभाव रखते हैं अन्यथा ऐसे बच्चे हीनभावना के शिकार हो जायेंगे जो आगे चलकर उनके व्यक्तिगत विकास में बाधक सिद्ध होगा। अपंग बालकों को बैठे-बैठे ही प्रश्न का उत्तर देने की अनुमति प्रदान की जानी चाहियों तथा प्रश्नों का सही उत्तर देने पर इनकी विशेष तौर पर भूरि-भूरि की अनुमति प्रदान की जानी चाहियें तथा प्रश्नों का सही उत्तर देने पर इनकी विशेष तौर पर भूरि-भूरि प्रशंसा की जानी चाहिये जिससे इनमें आत्म-विश्वास एवं आत्म-निर्भरता की इच्छा प्रबल हो सके।
मानसिक भिन्नताओं की ओर ध्यान (Attention to Mental Differences)- इस दृष्टि से अध्यापक का यह कर्त्तव्य है कि वह अपनी कक्षा में ऐसे विद्यार्थियों की पहचान करे जो बुद्धि स्तर तथा शैक्षिक उपलब्धि की दृष्टि से निम्न, मध्यम व उच्च श्रेणी में आते हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि इस प्रकार के बालकों को अपनी ऊँचाई के अनुसार कक्षा में बैठने की अनुमति प्रदान की जा सकती है। अध्यापक को प्रश्न पूछते समय कम बुद्धि व कम शैक्षिक उपलब्धि वालों से सरल प्रश्न, मध्यम स्तर के बुद्धि-स्तर व शैक्षिक उपलब्धि वालों से मध्यम स्तर के प्रश्न तथा उच्च बौद्धिक स्तर व उच्च शैक्षिक उपलब्धि वाले बालकों कठिन प्रश्न पूछने चाहियें। प्रश्न पूछने के इस क्रम में थोड़ा हेर-फेर हो सकता है ताकि सभी विद्यार्थी इन प्रश्नों के उत्तर देने के लिये स्वयं आगे आ सकें। साथ ही, छात्रों को भी यह आभास नहीं होने देना चाहिये कि उनमें अध्यापक के द्वारा किसी प्रकार का भेद किया जा रहा है। यह सब स्वाभाविक रूप से चलना चाहिये। ठीक इसी प्रकार की सावधानी इन छात्रों को गृहकार्य देने समय भी बरतनी चाहिये। कम बौद्धिक स्तर व शैक्षिक उपलब्धि वाले छात्रों को कम गृहकार्य, सामान्य बौद्धिक स्तर व शैक्षिक उपलब्धि वाले छात्र को मध्यम स्तर का गृहकार्य तथा तीव्र बौद्धिक स्तर व शैक्षिक उपलब्धि वाले छात्र को अधिक गृहकार्य दिया। जाना चाहिये। गृहकार्य देते समय छात्र की व्यक्तिगत तौर पर सहायता करना बहुत आवश्यक होता है विशेषतः छोटी व उच्च कक्षा के विद्यार्थियों के लिये। साथ ही, व्यक्तिगत तौर पर छात्रों की किसी भी प्रकार की कठिनाई को दूर करने में शिक्षक को इन छात्रों की पूरी-पूरी सहायता करनी चाहिये।
सांवेगिक भिन्नता की ओर ध्यान (Attention to Emotional Differences)- हम सभी इस तथ्य से भी भली-भाँति परिचित हैं कि छात्रों में सांवेगिक भिन्नताएँ भी पायी जाती हैं। प्रायः कक्षा में हमें अनेक प्रकार के छात्र देखने को मिलते हैं। कुछ शमीले होते हैं, कुछ दब्बू होते हैं, कुछ शरारती, कुछ चिन्तित, कुछ शंकालु, कुछ सौम्य स्वभाव के, कुछ नटखट प्रकृति व कुछ उग्र व आक्रामक स्वभाव वाले आदि। अध्यापक के लिये यह बहुत कठिन कार्य होता है कि वह इन विभिन्न प्रकृति वाले बालकों के साथ एक समान सही प्रकार से व्यवहार करे। इन सभी बालकों को अधिकारपूर्वक साथ-साथ लेकर चलना पड़ता है ताकि इन्हें स्नेह, सहानुभूति व सहयोग प्रदान करते हुए अपेक्षित व्यवहार की ओर ले जाया जा सके। इन दो अलग-अलग चीजों को बनाये रखने के लिये अध्यापक को विशेष योग्यता व दक्षता से काम लेना पड़ता है जो उसकी सूझ-बूझ पर अधिक निर्भर करती मैं यहाँ यह उल्लेखनीय है कि छात्र रुचियों में भी एक-दूसरे से पर्याप्त भिन्नता रखते हैं। इस सन्दर्भ अतः शिक्षण विधियों एवं शिक्षण सामग्री का चयन करते समय अध्यापक को बालकों की इन रुचियों के अंतर को भी ध्यान में रखना चाहिये। यह आवश्यक है कि सभी बालकों को इन शिक्षण विधियों एवं शिक्षण सामग्रियों की समझ एवं उपयोग के पर्याप्त अवसर प्रदान किये जायें ताकि वे अपने पसंद की शिक्षण विधि व शिक्षण सामग्री का चयन कर सकें। निःसन्देह नवीनता (Novelty) रुचि को बनाये रखने में सहायक सिद्ध होती है तथा शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को गति प्रदान करती है।
सामाजिक एवं सांस्कृतिक भिन्नता की ओर ध्यान (Attention to Social and Cultural Differences) – सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी छात्रों में पर्याप्त भिन्नता देखने को मिलती है। देखने में आता है कि कुछ छात्र आपस में मिलने-जुलने में विश्वास रखते हैं, अपने संगी-साथी (Peer Group) बनाते हैं तथा मिल-जुल कर सहयोगपूर्वक कार्य करते हैं जबकि दूसरी ओर कुछ छात्र ऐसे भी होते हैं जो अन्य छात्रों से अलग-अलग रहते हैं, एकांत में बैठना पसंद करते हैं, दूसरों से हमेशा दूरी बनाये रखते हैं तथा यहाँ तक कि दिवा स्वप्नों (Day-dreaming) में ही खोये रहते हैं। उन्हें केवल अपने हित की ही चिन्ता रहती है दूसरों से वे कोई सम्बन्ध नहीं रखते। उनकी अपनी दुनिया सबसे अलग होती है तथा वे उसी दुनिया में विचरण करते रहते हैं। इस रिक्तता को भरने की दृष्टि से सामूहिक शिक्षण व सामूहिक गतिविधियाँ पर्याप्त सहायक सिद्ध हो सकती हैं। हम इस तथ्य से भी भली-भाँति परिचित हैं कि किसी भी स्कूल की कक्षा में छात्र भिन्न-भिन्न संस्कृतियों से सम्बन्ध रखते हैं। सांस्कृतिक अंतर का यह स्वरूप उनकी उठने-बैठने, बोल-चाल, पहनावे, खाने-पीने, रीति-रिवाजों एवं धार्मिक प्रवृत्तियों में आसानी से देखा जा सकता है । इस सन्दर्भ में स्कूल ड्रैस व स्कूली परम्पराएँ सांस्कृतिक विचारधाराओं में एकरूपता व सकारात्मकता बनाये रखने में प्रभावी साधन के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। पारम्परिक वेश-भूषा व धार्मिक विचारधाराएँ इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर पातीं। इस दृष्टि से अध्यापक का यह कर्त्तव्य है कि सभी धर्मों का एक समान सम्मान करे तथा उनमें अपनी पूर्ण निष्ठा अभिव्यक्त करे तभी वह धार्मिक अंतरों को प्रगति की राह में बाधक बनने से रोक पायेगा और यदि वह इस सन्दर्भ में विशेष कुछ नहीं कर पाता है तो ऐसी स्थिति में उसका उदासीन (Neutral) बना रहना ही अधिक सार्थक सिद्ध होगा। यही कारण है कि स्कूलों में इस प्रकार की सामाजिक एवं सांस्कृतिक विविधताओं को एकरूपता प्रदान करने की दृष्टि से अनेक प्रकार की सांस्कृतिक गतिविधियाँ पाठ्य सहगामी क्रियाओं के अन्तर्गत आयोजित की जाती हैं ताकि विविधता में एकता (Unity in Diversity) के सिद्धांत को जीवन में उतारा जा सके तथा राष्ट्रीय अस्मिता को अक्षुण्य बनाया रखा जा सके।
Important Links
- लिंग की अवधारणा | लिंग असमानता | लिंग असमानता को दूर करने के उपाय
- बालिका विद्यालयीकरण से क्या तात्पर्य हैं? उद्देश्य, महत्त्व तथा आवश्यकता
- सामाजीकरण से क्या तात्पर्य है? सामाजीकरण की परिभाषा
- समाजीकरण की विशेषताएँ | समाजीकरण की प्रक्रिया
- किशोरों के विकास में अध्यापक की भूमिका
- एरिक्सन का सिद्धांत
- कोहलबर्ग की नैतिक विकास सिद्धान्त
- भाषा की उपयोगिता
- भाषा में सामाजिक सांस्कृतिक विविधता
- बालक के सामाजिक विकास में विद्यालय की भूमिका