B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

किशोरों के विकास में अध्यापक की भूमिका

किशोरों के विकास में अध्यापक की भूमिका
किशोरों के विकास में अध्यापक की भूमिका

किशोरों के विकास में अध्यापक की भूमिका (Role of the teacher in the development of adolescence)

किशोरों के विकास में अध्यापक की भूमिका- किशोरों के सन्तुलित विकास में अध्यापकों की अति महत्त्वपूर्ण भूमिका होती हैं। किशोरों को विविध प्रकार की समस्याओं से बचाने के लिए विद्यालय के माध्यम से अध्यापकों से अनेक औपचारिक और अनौपचारिक कार्यों की अपेक्षा की जाती है।

(I) अध्यापक के औपचारिक कार्य (Formal Functions of Teacher )

1. बौद्धिक शक्तियों का विकास ( Development of Intellectual Powers)- विद्यालय में ऐसे वातावरण का निर्माण किया जाता है जहाँ बालक के ज्ञान और बुद्धि का विकास हो सके। विद्यालय बालक में तर्क शक्ति एवं वैज्ञानिक अभिवृत्ति का विकास करता है। विद्यालय विभिन्न संसाधनों और क्रियाकलापों से बालक के मस्तिष्क का विकास करता है, ज्ञान के द्वार खोलता है, बालक को चिन्तनशील बनाता है। बुद्धिमान व ज्ञानवान बालक उचित-अनुचित में भेद करने में सक्षम होते हैं और समाज सम्मत व्यवहार करना सीखते हैं। विभिन्न प्रकार के शैक्षिक उपकरणों या श्रव्य-दृश्य साधनों का उपयोग करके, खासकर शैक्षिक प्रौद्योगिकी का, विद्यालय को बालकों में विचारने, सोचने, तर्क करने, कल्पना करने तथा निरीक्षण, अवलोकन, परीक्षण, प्रयोग आदि के द्वारा बालकों में उचित निष्कर्ष निकालने की क्षमता का विकास करना चाहिए। अन्वेषणशीलता, मौलिकता, रचनात्मकता आदि में सहायक आवश्यक बौद्धिक क्षमताओं के विकास के लिए वाद-विवाद परिचर्चा, व्याख्यान, विशेषज्ञों के भाषण, विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन विद्यालय द्वारा किया जाना चाहिए।

2. गतिशील एवं सन्तुलित मस्तिष्क का निर्माण (Cultivation of a Dynamic and Adaptable Mind)- विद्यालय का एक महत्त्वपूर्ण कार्य यह है कि बालक को ऐसा ज्ञान दे जिससे बालक के मस्तिष्क का गतिशील और सन्तुलित विकास हो सके। प्राप्त ज्ञान को साधन बनाकर नवीन ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करे, अभिनव प्रयोग करने में सक्षम हो सके, परिवर्तनशील समाज और आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में सहयोगी हो सके। आवश्यकतानुसार आदतों, व्यवहार, मनोवृत्तियों आदि में परिवर्तन कर सके।

3. संस्कृति की सुरक्षा और हस्तान्तरण (Preservation and Transmission of Culture)- विद्यालय का प्रमुख कार्य मानव संस्कृति को सुरक्षित रखते हुए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरण करना है।

4. व्यावसायिक तथा औद्योगिक शिक्षा (Vocational and Industrial Education)- प्राचीन समय में परिवार द्वारा पारम्परिक व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त हो जाती थी, परन्तु आधुनिक समय में जीविकोपार्जन के लिए विशिष्ट तकनीकी ज्ञान की शिक्षा आवश्यक हो गयी है। अत: जीविकोपार्जन के लिए व्यावसायिक और औद्योगिक शिक्षा देना आवश्यक हो गया है। भविष्य में विद्यार्थी जीविकोपार्जन के लिए अपनी योग्यता और सामाजिक आवश्यकताओं के आधार पर सही दिशा का चयन कर सकें, इसके लिए शैक्षिक तथा व्यावसायिक निर्देशन की व्यवस्था भी विद्यालय में होनी चाहिए।

5. मानवीय अनुभवों का पुनर्गठन तथा पुनर्रचना (Reorganization and Reconstruction of Human Experiences) – विद्यालय का कार्य मानवीय अनुभवों का पुनर्गठन और पुनर्रचना भी है। वास्तविकता यह है कि विद्यालय का सम्बन्ध केवल समाज की निरंतरता को बनाये रखने से ही नहीं है, अपितु उसे इस विकास के लिए भी प्रयास करना चाहिए। विद्यालय को सदैव मानवीय अनुभवों का पुनर्गठन करना चाहिए। चूँकि विद्यालय समाज की पुनर्रचना करता है, इसलिए उसे उच्च प्रकार की संस्कृति के निकट भी रहना चाहिए। इसके लिए उच्च शाखाओं में शोध की आवश्यकता है। इस कार्य को केवल विद्यालय ही कर सकता है।

6. नागरिकता का विकास (Development of Citizenship)- विद्यालय का कार्य बालकों को कुशल नागरिक बनाना भी है जिससे कि वह सक्रिय रूप से राजनैतिक, और आर्थिक कार्य में भाग ले सके। उसमें अधिकार और कर्त्तव्य को सन्तुलित करने की क्षमता जाग्रत करना विद्यालय का ही कार्य है। जनतंत्र की सफलता योग्य नागरिकों पर ही निर्भर होती है। इस दृष्टि से विद्यालय को बालकों के समक्ष ऐसा वातावरण प्रस्तुत करना चाहिए जिसमें रहते हुए उन्हें अपने कर्त्तव्यों तथा अधिकारों का ज्ञान हो जाये।

7. चरित्र का विकास (Development of Character)- विद्यालयों का वातावरण ऐसा होना चाहिए जिसमें बालकों में अच्छी आदतों का निर्माण हो सके तथा उनके चारित्रिक और नैतिक गुणों का विकास हो सके। इसके लिए विद्यालयों को निरन्तर विविध कार्यक्रमों का आयोजन करते रहना चाहिए, जैसे-प्रार्थना सभा, विविध सांस्कृतिक एवं साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन, पुस्तकालय में उपयोगी अध्ययन सामग्री की उपलब्धता, समाज-सेवा कार्य आदि । एक अच्छे चरित्र वाला व्यक्ति ही संकुचित दृष्टिकोण, व्यक्तिगत लाभ, क्रोध, भय तथा धन-लोलुपता से ऊपर उठ सकता है। विद्यार्थी के चरित्र निर्माण का कार्य विद्यालय पर ही निर्भर होता है।

(II) अध्यापक के अनौपचारिक कार्य (Informal Functions of Teacher)

(1) शारीरिक विकास (Physical Development)- विद्यालयों का एक ‘अनौपचारिक कार्य ‘शरीर का उत्कर्ष’ करना है। मानसिक क्रियाओं का आधार भी शारीरिक विकास होता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है। विद्यालय का सम्पूर्ण वातावरण ऐसा होना चाहिए जिसमें रहते हुए बालक स्वयं ही स्फूर्ति अनुभव करते रहे।

(2) सामाजिक भावना का विकास (Development of Social Feeling)- विद्यालय का यह एक महत्त्वपूर्ण कार्य होता है कि वह बालक को इस प्रकार तैयार करे, ऐसी भावना का विकास करे, जिससे वह अपने आपका नहीं, समाज का ध्यान सर्वदा रखे । सामाजिक भावना के विकास से बालकों को सामाजिक उन्नयन, सामाजिक कल्याण तथा मानवतावादी दृष्टिकोण से कार्य-व्यवहार करना आ जाता है, जिससे समाज में एकता, भाईचारा, सौहार्द्र की स्थापना होती है।

विद्यालय में विभिन्न वर्गों, समुदायों और समाज के बालक एक साथ रहते हैं, एक साथ क्रिया करते हैं। विद्यालय को चाहिए कि ऐसे वातावरण का निर्माण करे जिससे बालकों में ‘हम’ भावना का विकास हो सके, हम भावना से एकता स्थापित होती है। एकता वह सम्बल है जिससे समाज अटूट बनता है।

बालक परिवार में जन्म लेता है, जहाँ उसका प्रारम्भिक विकास होता है, परंतु अन्ततः उसे समाज का सदस्य बनना पड़ता है। वह समाज का सफल और समाजोपयोगी सदस्य बन सके, इसके लिए विद्यालय को महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करनी पड़ती है। विद्यालय अनेक प्रकार से घर और समाज के बीच कड़ी का काम करता है। विद्यालय के इन महत्त्वपूर्ण कार्यों का उल्लेख निम्नवत् किया जा सकता है-

(i) समाज बन्धुओं से सम्पर्क

(ii) सामाजिकता की भावना का विकास

(iii) नागरिक गुणों का जागरण

(iv) सामाजिक संस्कृति की सुरक्षा

Important Links

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment