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कोहलबर्ग की नैतिक विकास सिद्धान्त | Moral Development theory of Kohalbarg

कोहलबर्ग की नैतिक विकास सिद्धान्त
कोहलबर्ग की नैतिक विकास सिद्धान्त

कोहलबर्ग की नैतिक विकास सिद्धान्त (Moral Development theory of Kohalbarg)

कोहलबर्ग की नैतिक विकास सिद्धान्त- कोहलबर्ग ने नैतिक विकास से सम्बन्धित विचारों पर विस्तृत चर्चा की हैं। उन्होंने तार्किक चिन्तन के तीन स्तरों जिनमें से प्रत्येक स्तर के कुछ सोपान हैं, के रूप में नैतिक विकास के सिद्धान्त का प्रस्तुतीकण किया है। उन्होंने 10 से 16 वर्ष के बालकों के सामने नैतिक दुविधाओं को कहानियों के रूप में प्रस्तुत किया तथा इन सुविधाओं पर आधारित साक्षात्कार लिये। इन कहानियों में बड़ों को निर्देश पालन तथा नियमों से सम्बन्धित विभिन्न नैतिक दुविधाएँ प्रस्तुत की गयी थीं। इन साक्षात्कारों में प्राप्त सूचनाओं का विश्लेषण करने से कोहलबर्ग ने नैतिक विकास के प्रमुखः तीन मुख्य स्तर एवं सात सोपानों का वर्णन किया है।

नैतिक विकास के स्तर एवं सोपान

I. पूर्व परम्परागत स्तर (Pre-conventional level)

1. आत्मकेन्द्रित निर्णय (Egocentric judgement)

2. दण्ड एवं आज्ञापालन अभिमुखता (Punishment & obedience orientation)

3. यांत्रिक सापेक्षिक अभिमुखता (Instrument relativist orientation)

II परम्परागत स्तर (Conventional Level)

1. अधिकार संरक्षण अभिमुखता (Authority-maintaining orientation)

2. परस्पर एकरूप अभिमुखता (Interpersonal Concordance orientation)

III. उत्तर परम्परागत स्तर(Post-conventional level)

1. सामाजिक अनुबंध विधिसम्मत अभिमुखता (Social contract legaistic orientation)

2. सार्वभौमिक नैतिक सिद्धान्त अभिमुखता (Universalethical principle orientation)

3. पूर्व परम्परागत स्तर (Pre-conventional Level)

कोलहबर्ग ने इस स्तर को प्रथम स्तर माना है। इनका मत है कि इस स्तर पर बालक अपनी आवश्यकताओं के संदर्भ में अधिक चिन्तन करते हैं। इस स्तर पर यदि उनसे नैतिक दुविधाओं से युक्त प्रश्न पूछे जाएँ तो उनके उत्तर प्रायः लाभ या हानि पर आधारित होते हैं। इस स्तर पर नैतिक कार्य, अच्छे तथा बुरे कार्यों में निहित होते हैं न कि अच्छे या बुरे व्यक्तियों में। अच्छा या बुरा, सही अथवा गलत की व्याख्या मिलने वाले पुरस्कार, प्रशंसा या दण्ड या नियमों का समर्थन करने वाले व्यक्तियों की शारीरिक सामर्थ्य या होने वाले स्थूल परिणामों से आँकी जाती हैं। इस स्तर पर होने वाले नैतिक विकास को निम्नलिखित सोपानों में बाँटा गया है-

1. आत्मकेन्द्रित निर्णय (Egocentiric Judgement)- इस अवस्था का कार्यकाल तीसरे वर्ष से शुरू होकर 6 वर्ष तक रहता है। इस सोपान में बालक जिस कार्य को करना चाहते हैं, जिस वस्तु को पाना चाहते हैं और जिस व्यक्ति को पसन्द करते हैं, उसे अच्छा समरूपता है। इसके विपरीत कोई भी ऐसा कार्य जिसे वे न करना चाहते हों, कोई भी वस्तु जो उन्हें पसन्द नहीं या कोई भी व्यक्ति जो उन्हें हानि पहुँचाना चाहता है; उसे वे बुरा समझतें हैं। इस सोपान में बालक में अपनी पसन्द-नापसन्द से भिन्न नियमों का कोई महत्व नहीं होता है। इस अवस्था में बालक की सभी व्यावहारिक क्रियाएँ उसकी व्यक्तिगत आवश्यकताओं को पूरा करने के चारों ओर केन्द्रित रहती है।

2. दण्ड एवं आज्ञापालन अभिमुखता (Punishment an Obediance Orientation)- इस सोपान में बाल अपने से बड़े व्यक्तियों या अधिकार सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा दिये जाने वाले दण्ड से बचने के लिए चिन्तन रहते हैं। वे किसी भी प्रकार के बड़ों के द्वारा लगाये गये नियमों को तोड़ने के परिणाम जानते हैं। अधिकार तथा शक्ति ही कार्य को उचित या अनुचित ठहराते हैं। किसी भी तरह के कार्य करने पर होने वाले स्थूल परिणाम इस कार्य को अच्छा या बुरा निर्धारित करते हैं।

3. यांत्रिक सापेक्षिक अभिमुखता (Insrtrument Relativist Orien- tation) – इस सोपान में बालक अपनी आवश्यकताओं को पूरा तभी करना चाहते हैं जब उन आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम होते हैं। वे लाभ प्राप्त होने पर प्रोत्साहित होते हैं। वे मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं को देखना होता है तथा कोई भी व्यक्ति केवल उन्हीं व्यक्तियों के प्रति उत्तरदायी होता है जो उनकी मदद करते हैं। वे इस बात को भी स मझा जाते हैं कि सम्बन्ध स्थूल पर निर्भरता से निर्मित होते हैं।

II. परम्परागत स्तर (Conventional Level) – कोहलबर्ग के अनुसार नैतिक विकास के इस स्तर पर नैतिक मूल्य अच्छे या बुरे कार्यों को करने में निहित रहते हैं। बालक बाह्र सामाजिक अपेक्षाओं को पूर्ण करने में रुचि लेते हैं। वे अपने परिवार, अपने समूह अथवा अपने राष्ट्र की अपेक्षाओं को पूरा करने को महत्व देते हैं तथा महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों तथा सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप कार्य करते हैं। उनमें परम्परागत नियमों तथा उत्तरदायित्वों के प्रति समर्थन तथा औचित्य का भाव रहता है। इस तरह पर होने वाले नैतिक विकास को निम्नलिखित दो उप-सोपानों में विभक्त किया जा सकता है-

1. अधिकार संरक्षण अभिमुखता (Authority – Maintraining Orientation)- इस सोपान में बालक सामाजिक दृष्टि से स्वीकृत नियमों एवं दायित्वों के अनुरूप कार्य करने की भावना से प्रोत्साहित रहते हैं। वे सबके हित एवं कल्याण की दृष्टि से विद्यमान सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखना चाहते हैं। वे एक व्यापक सामाजिक प्रणाली है जो उसमें रहने वाले व्यक्तियों के व्यवहार को नियंत्रित यह जानते हैं कि समाज में करती है। उनके विचार में नैतिकता का आधार सामाजिक व्यवस्था है तथा व्यक्तिगत हानि होने की स्थिति में भी नियमों का पालन किया जाना चाहिए।

2. परस्पर एकरूप अभिमुखता (Inter-personal Concordance Orientation) – इस सोपान में बालक अच्छा बनकर अन्य व्यक्तियों से प्रशंसा प्राप्त करना चाहते हैं। वे अच्छे बालक या अच्छी बालिका जैसा व्यवहार करने में रुचि लेते हैं। जो कुछ अन्यों को अच्छा लगे या अन्यो की मदद करें या अन्यों के द्वारा स्वीकृत हो, वही उत्तम माना जाता है। बालक दूसरे व्यक्तियों के भावों एवं इरादों का ध्यान रखने की आवश्यकता के प्रति सजग रहते हैं। इस सोपान पर सहयोग को सर्वोत्तम आचरण के रूप में स्वीकार किया जाता है।

III. उत्तर परम्परागत स्तर (Post-conventional Level)- कोहलबर्ग के नैतिक विकास के इस तृतीय एवं सर्वोच्च स्तर पर बालक उन नैतिक मूल्यों एवं नैतिक सिद्धांतों को परिभाषित करने के स्पष्ट प्रयास करने लगते हैं जिनकी सामाजिक दृष्टि से वैधता होती है एवं जो परम्परागत मूल्यों एवं नियमों अथवा सिद्धान्तों से अलग हो सकते हैं। उनमें स्वनिर्धारित नैतिक सिद्धान्तों के प्रतिनिष्ठा एवं अनुसरण करने की भावना होती है। नैतिक मूल्य वस्तुतः उभयनिष्ठ मानदण्डों, अधिकारों एवं दायित्वों की पूर्ति में निहित माने जाते हैं। इस स्तर पर होने वाले नैतिक विकास को निम्नलिखित दो सोपानों में बाँटा जा सकता है-

1. सामाजिक अनुबंध विधिसम्मत अभिमुखता (Social Contract Legalistic Orientation)- इस सोपान के अन्तर्गत उचित कार्यों को आलोचनात्मक ढंग से परखकर सभी समुदाय के द्वारा स्वीकृत किये गये सामान्य व्यक्तिगत अधिकारों एवं मानदण्डों के रूप में परिभाषित करने की प्रवृत्ति आ जाती है। व्यक्तिगत मूल्यों द्वारा विचारों के सापेक्षवाद के प्रति जागरूकता के परिणामस्वरूप आम सहमति पर पहुँचने हेतु कार्यरत नियमों पर जो दिया जाने लगता है। समाज की आम सहमति क्या है, के अतिरिक्त नियमों के अलावा स्वतंत्र स्वीकारोक्ति या समर्पण भाव व्यक्ति को अपने उत्तरदायित्वों का पालन करने हेतु प्रेरित करता है।

2. सार्वभौमिक नैतिक सिद्धान्त अभिमुखता (UIniversal Ethical Principle Orientation) – नैतिक विकास के इस सोपान में मनुष्य उचित-अनुचित निर्णय ऐसे स्वयं के निर्धारित सिद्धान्तों के आधार पर करता है जो तार्किक, व्यापकता, सार्वभौमिकता एवं एकरूपता से युक्त होते हैं। यह सिद्धान्त अमूर्त होते हैं और नैतिक बोधगम्यता से मुक्त होते हैं। ये सिद्धान्त प्राकृतिक सिद्धान्त होने के साथ-साथ मानवीय अधिकारों की समानता, पराचरता एवं मानव जाति के प्रति सम्मान की भावना से युक्त होते हैं।

कोहलबर्ग के नैतिक विकास के सिद्धान्त के विभिन्न स्तरों का अवलोकन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि तीनों स्तर एवं उनमें निहित सातों सोपान नैतिक निर्णय लेने की व्यक्ति की बढ़ती योग्यता तथा दृष्टिकोणों की व्यापकता एवं अमूर्तता की ओर संकेत करते हैं। प्रथम स्तर पर बालक आत्मकेन्द्रित होते हैं क्योंकि वे दण्ड से बचना चाहते हैं और पुरस्कार पाना चाहते हैं चाहे वह पुरस्कार स्नेह या प्रशंसा के रूप में ही क्यों न हो। तृतीय स्तर पर बालक धीरे-धीरे सामाजिक होने लगते हैं और वे निष्पक्ष भाव से दूसरों से सम्बन्धों में विचार करने की योग्यता विकसित कर लेते हैं।

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