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सामाजीकरण से क्या तात्पर्य है? सामाजीकरण की परिभाषा

सामाजीकरण से क्या तात्पर्य है
सामाजीकरण से क्या तात्पर्य है

सामाजीकरण से क्या तात्पर्य है?

सामाजीकरण- जन्म के समय मानव सिर्फ एक प्राणिशास्त्रीय इकाई होता है तथा सामाजिक व्यवहारों एवं संस्कृतियों से बिल्कुल अनभिज्ञ होता है। उस समय बच्चा केवल शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति चाहता है। शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति क्रम में वह समाज के सम्पर्क में आता है और यहीं से उसके सीखने की प्रक्रिया शुरू होती है। इसके पूर्व बच्चा न तो सामाजिक होता है और न ही समाज-विरोधी; लेकिन प्रत्येक व्यक्ति में कुछ अन्तर्निहित क्षमताएँ होती हैं जिन्हें विकसित कर उसे सामाजिक प्राणी बनाया जा सकता है। समाज के सम्पर्क में आने के बाद ही वह मानवीय गुणों, सामाजिक गुणों एवं संस्कृति को सीखता है। सीखने की इसी प्रक्रिया को समाजीकरण कहते हैं। सीखने की कोई उम्र निर्धारित नहीं होती। जन्म से लेकर मृत्यु तक के सफर में व्यक्ति हर कदम पर कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है अर्थात् समाजीकरण की प्रक्रिया जीवनकाल तक सतत् चलती रहती है। इस सम्बन्ध में डी फ्लेयूर, डी एनटोनियो एवं डी. फ्लेअर के विचार इस प्रकार हैं- “समाजीकरण की प्रक्रिया कभी समाप्त नहीं होती है। सामाजिकता बदलती प्रत्याशाओं एवं माँगों के प्रति समायोजन की एक निरन्तर प्रक्रिया है।”

समाजीकरण एक जटिल अवधारणा है। समाजशास्त्र में समाजीकरण को एक ऐसी प्रक्रिया माना गया है जिसके द्वारा मानव को सामाजिक-सांस्कृतिक संसार से न सिर्फ परिचित कराया जाता है बल्कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित भी किया जाता है अर्थात् समाजशास्त्रियों के अनुसार समाजीकरण की अवधारणा का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है- एक अर्थ में, बच्चों द्वारा की जाने वाली ‘सामाजिक अनुकूलन की प्रक्रिया’ (Process of adaption) से है तथा दूसरे अर्थ में, समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसने ‘संस्कृति की सीख’ को महत्त्वपूर्ण माना है। इस सम्बन्ध में रोजेबर्ग एवं ट्यूनर का मानना है, का मानना है, “समाजीकरण का अभिप्राय समाज के अन्य व्यक्तियों की प्रत्याशाओं, दूसरे व्यक्तियों के विचारों, समाज के मूल्यों तथा मानदण्डों के प्रति व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले अनुकूलन तथा अनुरूपता से है। “

सामाजीकरण की परिभाषा

इन्केल्स (Inkels) तथा दूसरे समाजशास्त्रियों ने समाजीकरण के अन्तर्गत व्यक्तित्व के विकास की अपेक्षा ‘संस्कृति की सीख’ को अधिक महत्त्वपूर्ण माना है।

रोज़ेनबर्ग की तरह चैपलिन ने भी सामाजिक अनुकूलन को महत्त्वपूर्ण माना है। उन्हीं के शब्दों में, “किसी विशेष संस्कृति की प्रथाओं, आदतों, जनरीतियों तथा लोकाचारों को सीखने की प्रक्रिया ही समाजीकरण है।”

अर्थात् जिस प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति एक-दूसरे के साथ अन्तक्रियाएँ करता है, जिसके फलस्वरूप उसके जीवन में परिवर्तन आता है या फिर व्यक्तित्व का परिमार्जन होता है, इसे ही समाजीकरण की प्रक्रिया कहते हैं ।

बैकमैन के कथनानुसार- ” अन्य लोगों के साथ की जाने वाली अन्तक्रियाओं के परिणामस्वरूप व्यक्ति के जीवन में घटित होने वाली परिवर्तन की प्रक्रिया को ही समाजीकरण की प्रक्रिया कहा जा सकता है।”

इससे स्पष्ट होता है कि कुछ समाजशास्त्रियों ने समाजीकरण को ‘सामाजिक अनुकूलन’ की प्रक्रिया माना है तो कुछ समाजशास्त्रियों ने इसे ‘व्यक्तित्व के विकास’ की प्रक्रिया माना , परन्तु कुछ समाजशास्त्री ऐसे भी हैं, जिन्होंने अपनी परिभाषा में इन दोनों विचारों का समन्वय किया है, जो निम्नलिखित हैं-

किम्बाल यंग के अनुसार, “समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रवेश करता है, समाज के विभिन्न समूहों का सदस्य बनता है तथा जिसके द्वारा उसे समाज के मूल्यों और आदर्श नियमों को स्वीकर करने की प्रेरणा मिलती है।”

गिलिन एवं गिलिन के अनुसार “समाजीकरण से हमारा तात्पर्य उस प्रक्रिया से है, जिसके द्वारा व्यक्ति, समूह में एक क्रियाशील सदस्य बनता है, समूह की कार्य-विधियों से समन्वय स्थापित करता है, उसकी परम्पराओं का ध्यान रखता है और सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूल करके अपने साथियों के प्रति सहनशक्ति की भावना विकसित करता है।”

ए. डब्ल्यू. ग्रीन के कथननुसार – “समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बच्चा सांस्कृतिक विशेषताओं, आत्मपन और व्यक्तित्व को प्राप्त करता है। फिचर के अनुसार- ” समाजीकरण एक व्यक्ति और अनेक दूसरे व्यक्तियों के बीच पारस्परिक प्रभाव की एक प्रक्रिया है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक व्यवहारों को स्वीकार करता है तथा उनसे अनुकूलन करना सीखता है।”

जोन्स तथा गैरार्ड ने भी समाजीकरण को परिभाषित करते हुए लिखा है- “समाजीकरण का तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा व्यक्ति उन मूल्यों, विश्वासों तथा व्यवहार के तरीकों को आत्मसात् करने का प्रयत्न करता है जो उसके समूह में प्रचलित होते हैं।”

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति समूह अथवा समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताओं को ग्रहण करता है, अपने व्यक्तित्व का विकास करता है और समाज का क्रियाशील सदस्य बनता है। समाजीकरण द्वारा बच्चा सामाजिक प्रतिमानों को सीखकर उनके अनुरूप आचरण करता है। इससे समाज में नियन्त्रण बना रहता है।

समाजशास्त्री ब्रूम तथा सेल्जनिक ने समाजीकरण की अवधारणा को इस प्रकार स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उनका मानना है कि समाजीकरण में तीन पक्ष पाये जाते से हैं- (i) सावयव या जीव रचना (Organism), (ii) व्यक्ति (Individual), और (iii) समाज (Society)।  सावयव व्यक्ति में वह क्षमता है जो उसे दूसरों के व्यवहार को सिखाता है तथा व्यक्ति में अभिव्यक्ति की क्षमताएँ लाता है। व्यक्ति समाजीकरण प्रक्रिया का मुख्य आधार है। इसी के द्वारा व्यक्ति में ‘आत्म’ का विकास होता है और तत्पश्चात् समाजीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ती है। समाज ही वह क्षेत्र है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति विभिन्न प्रकार से अन्तक्रियाएँ करके अपने आत्म का विकास करता है।

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