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किशोरावस्था की समस्याएं | Problems of Adolescence Stage in Hindi

किशोरावस्था की समस्याएं
किशोरावस्था की समस्याएं

किशोरावस्था की समस्याएं (Problems of Adolescence Stage)

किशोरावस्था की समस्याएं | Problems of Adolescence Stage in Hindi- किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन और नाजुक मोड़ है। इस अवस्था में बालक का झुकाव जिस ओर हो जाता है, उसी दिशा में उसके विकास का स्वरूप निर्धारित होता है। वह धार्मिक या अधार्मिक, अध्यवसायी या अकर्मण्य, देशप्रेमी या देशद्रोही कुछ भी बन सकता है। अगर किशोर बालक और बालिकायें अनेक प्रकार की उलझनों कठिनाइयों तथा चिन्ताओं का अनुभव करते रहते हैं तो ऐसे बालक लक्ष्यहीन व गुमराह हो जाते हैं जो स्वयं अपने लिये, माता-पिता, शिक्षकों तथा समाज के लिये समस्या बन जाते हैं।

यद्यपि किशोरावस्था “समस्या बाहुल्य की अवस्था” है किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि उनका विकास नकारात्मक होगा । यह सही है कि किशोरावस्था में उत्पन्न समस्यायें अत्यंत जटिल एवं गंभीर होती हैं जो बालक के समायोजन और व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करती हैं । यदि माता-पिता, शिक्षक और विद्यालय द्वारा उनकी इन समस्याओं को सहानुभूतिपूर्वक समझा जाता है और उचित परामर्श द्वारा उनका निराकरण किया जाता है तो किशोरों के एक अच्छे प्रौढ़ जीवन की भावी तैयारी हो जाती है।

किशोरावस्था में अनेक समस्यायें होती हैं। इनका पता लगाने के लिये मूनी (Mooney), पोप (Pope), विलियम्स (Williams), लेविस (Lewis) तथा अन्य मनोवैज्ञानिकों ने हाई स्कूल तथा कॉलेज स्तर के किशोरों की समस्याओं का अध्ययन किया और निम्नांकित समस्यायें बतायीं-

(i) विद्यालय की सस्यायें

(ii) पारिवारिक समस्यायें,

(iii) आर्थिक समस्यायें

(iv) विपरीत यौन की समस्यायें

(v) व्यक्तिगत सौन्दर्य की समस्यायें

(vi) स्वास्थ्य समस्यायें

(viii) भविष्य निर्धारण की समस्यायें

(vii) मनोरंजन की समस्यायें

(ix) व्यवसाय की समस्यायें।

किशोरावस्था में उत्पन्न होने वाली समस्याओं को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-

1. व्यावसायिक समस्यायें- किशोरावस्था भावी जीवन की तैयारी का समय होता है। उत्तर किशोरावस्था के अंत तक प्रत्येक बालक यह चाहता है कि वह आत्मनिर्भर बन जाये तथा उसे अपनी शिक्षा कुशलता तथा रुचि के अनुसार उपयुक्त व्यवसाय प्राप्त हो जाये लेकिन आज देश की वर्तमान स्थिति ऐसी है जिसमें बेरोजगारी एक विषम समस्या बनी हुई है। जिन किशोरों का सम्बन्ध उच्च आर्थिक व सामाजिक स्थिति वाले परिवारों से होता है। उनके सम्मुख व्यवसाय, अर्थोपार्जन और भविष्य की अनिश्चितता से सम्बन्धित समस्यायें कम होती हैं किनतु निम्न व मध्यम आर्थिक, सामाजिक स्तर वाली पृष्ठभूमि के किशोरों के सामने यह समस्यायें गंभीर और जटिल होती हैं।

2. काम प्रवृत्ति से सम्बन्धित समस्यायें- किशोरावस्था में काम प्रवृत्ति क्रियाशील हो उठती है। इस तथ्य को सभी मनोवैज्ञानिकों ने माना है। ‘स्लाटर’ का कथन है कि “काम समस्त जीवन का नहीं तो किशोरावस्था का अवश्य ही मूल तथ्य है। एक विशाल नदी के अति प्रवाह के समान यह जीवन की भूमि के बड़े भागों को सींचता है एवं उपजाऊ बनाता है।”

अतः काम प्रवृत्ति का विकसित होना इस अवस्था की एक विशेषता है फलस्वरूप किशोर काम सम्बन्धी बातों के प्रति जिज्ञासु हो जाता है और इस जानकारी को प्राप्त करने के लिये वह कामुकतापूर्ण साहित्य का अध्ययन करता है, मित्रों तथा समूह से वार्तालाप करता है, जबकि इस आयु में परिवार व समाज द्वारा उसकी काम सम्बन्धी बातों का दमन किया जाता है। वे इस सम्बन्ध में जो भी ज्ञान प्राप्त करते हैं वह अपूर्ण व भ्रमित करने वाला होता है। भारतीय परिवारों में आज भी किशोरों की यौन शिक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। अतः विशाल नदी के समान उफनती हुई कामोत्तेजनाओं का प्रदर्शन वे विभिन्न रूपों में करते हैं; जैसे- कामुकतापूर्ण बातें करना, अश्लील बातों को दीवारों पर लिखना, कामोत्तेजक चित्रों का बनाना, हस्तमैथुन करना तथा समलिंगीय व विषमलिंगीय मैथुन करना, इंटरनेट के माध्यम से अश्लील साइट का अवलोकन करना। ये सभी चीजें किशोरों के व्यक्तित्व विकास में बाधक होती हैं अतः मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि किशोरावस्था में काम प्रवृत्ति को उचित दिशा में ले जाने के लिये उन्हें उपयुक्त ढंग से यौन शिक्षा दी जाये क्योंकि किशोरों की अनेकों समस्याओं का मूल उनकी काम प्रवृत्ति होती है।

किशोरावस्था के यौनिक परिवर्तन बालक और बालिका दोनों में ही चिन्ता, भय तथा संकोच पैदा कर देते हैं जब बालिकाओं का मासिक धर्म प्रारम्भ होता है और बालकों को स्वप्नदोष के कारण वीर्य का स्राव हो जाता है तो वे इसे असाधारण घटना मानकर घबरा जाते हैं, संकोच तथा लज्जा के कारण किसी से बात करने में घबराते हैं और तनाव में रहते हैं । अतः यह आवश्यक है कि इस अवस्था के आने से पूर्व ही किशोर बालक तथा बालिकाओं को उनके यौनागों की रचना तथा उनकी कार्य विधि का ज्ञान किसी ऐसे माध्यम से देना चाहिये जिसे वे मानें तथा स्वीकार करें।

रॉस (Ross) ने भी इस सम्बन्ध में अपना मत व्यक्त करते हुये कहा है कि- “यौन शिक्षा की आवश्यकता को कोई अस्वीकार नहीं करता है। आवश्यकता इस बात की है कि किशोरों को एक ऐसे वयस्क द्वारा गोपनीय शिक्षा दी जाये जिस पर उसे पूर्ण विश्वास हो।”

यौन शिक्षा द्वारा किशोरों में विषमलिंगी के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण विकसित करना चाहिये तथा शिक्षा देते समय इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिये कि शिक्षा उत्तेजना प्रदान करने वाली न हो। घर पर माता-पिता और विद्यालय में शिक्षक बालकों को इस प्रकार की शिक्षा दे सकते हैं।

विद्यालय में अध्यापकों को चाहिये कि वे किशारों को अधिक से अधिक रचनात्मक कार्यों में लगायें जिससे उनकी काम शक्ति का मार्गान्तीकरण हो सके।

समायोजन समस्यायें- किशोरों की समायोजन समस्यायें अधिकांशतः वातावरण सम्बन्धी होती हैं। जिसमें प्रायः दो प्रकार के वातावरण आते हैं-

(i) पारिवारिक वातावरण (ii) विद्यालय का वातावरण।

यद्यपि जन्म के पश्चात् परिवार द्वारा ही बच्चे का पालन-पोषण होता है किन्तु किशोरावस्था में देखा जाता है कि बालक अपने परिवार के वातावरण में समायोजन करने में असमर्थ रहते हैं। इसके कई कारण हैं; जैसे-किशोरों की स्वतंत्रता की चाह, उचित महत्व तथा उचित स्थिति प्राप्त करने की प्रबल इच्छा, विषमलिंगी प्रेम आदि। यदि माता-पिता या अभिभावकों द्वारा किशोरों को नियंत्रण में रखा जाता है, उनके ऊपर बंधन लगाये जाते हैं। तो वह परिवार के साथ समायोजन नहीं कर पाता है। अतः माता-पिता को चाहिये कि वे किशोरों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें उनके ऊपर अनुशासन को न थोपें तथा उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने का अवसर दें।

दूसरी स्थिति तब उत्पन्न होती है जब विद्यालयों में किशोरों को उचित वातावरण नहीं मिलता है। शिक्षकों का व्यवहार, शिक्षण प्रकृति, विद्यालय का अनुशासन, पाठ्य सहगामी क्रियायें आदि किशोरों की समायोजन प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं अतः शिक्षकों को चाहिये कि बालकों के समायोजन में उनकी सहायता करें। किशोरों की शिक्षा के लिये विद्यालयों में उनकी रुचि, योग्यता व क्षमता के अनुसार विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था करनी चाहिये जिनके द्वारा भविष्य में वे किसी व्यवसाय का चुनाव कर सकें। ‘शैस’ के अनुसार- “विषयों का शिक्षण व्यावहारिक ढंग से होना चाहिये तथा दैनिक जीवन की बातों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित किया जाना चाहिये।” पाठ्यक्रम में पाठ्य सहगामी क्रियाओं का समावेश करना चाहिये इनके द्वारा किशोरों की पाशविक मूल प्रवृत्तियों का शोधन होता है, उनका जीवन सक्रिय तथा साहसिक होता है तथा सहयोग व सामाजिकता की भावना का विकास होता है। विद्यालय बालकों को उनकी उपयोगिता का अनुभव कराकर उनकी निराशा कम कर सकता है। सृजनात्मकता का विकास करके उनकी अपराध प्रवृत्ति को कम किया जा सकता है।

किशोरों के स्वस्थ व सुखी प्रौढ़ जीवन के लिये यह आवश्यक है कि उनकी समस्त समस्याओं का समाधान संतोषप्रद तथा प्रभावशाली ढंग से किया जाये। इस दिशा में माता-पिता, शिक्षक तथा स्वयं किशोरों तीनों के परस्पर सहयोग की आवश्यकता होती है।

किशोरों की समस्याओं के निराकरण के लिये माता-पिता तथा शिक्षकों को बड़े धैर्य से काम लेना चाहिये। उन्हें किशोरों के स्वभाव, उनकी समस्याओं तथा समस्याओं को उत्पन्न करने वाले कारणों का अध्ययन गंभीरतापूर्वक करना चाहिये जो प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से उसके समायोजन को प्रभावित कर रहे हैं तद्नुसार ही उनका निदान करना चाहिये। जैसे यदि कोई किशोर बालिका चित्रकारी में रुचि रखती है और उसी क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना चाहती है और यदि माता-पिता उसे एक चिकित्सक बनाने की सोचते हैं और उसी प्रकार के विषयों के चुनाव और शिक्षा के लिये बाध्य करते हैं तो उसका समायोजन परिवार और पाठशाला दोनों जगह नहीं हो पाता है अतः यह आवश्यक है कि किशोर स्वभाव को भली-भाँति समझें और उन सभी तथ्यों को जाने जो किशोरों के समायोजन को प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त बालक के सामाजिक सम्बन्धों, उनके ऊपर पड़ने वाले सामाजिक दबावों, उनकी प्रेरक वृत्तियों तथा किशोरों द्वारा अपनाई गई समायोजन विधियों का वांछित ज्ञान प्राप्त करे, साथ ही उन परिस्थितियों की भी जानकारी प्राप्त करें जो किशोरों की समस्याओं की उत्पत्ति के लिये उत्तरदायी हैं-इसके अतिरिक्त उनके साथ सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करें। किशोरों की समस्याओं का मूल्यांकन प्रौढ़ स्तर पर न करें, उनके साथ क्रोध व दण्ड का प्रयोग न करें। किशोरों को स्वयं अपनी समस्याओं पर विचार करने तथा उनके निराकरण के उपायों को ढूँढ़ने के लिये प्रेरित करें। किशोरों के साथ उनकी समस्या पर विचार-विमर्श करें, अधिक से अधिक प्रश्न पूछकर समस्या के मूल कारण को जानने का प्रयास करें, तभी निर्देश दें।

किशोरों की समस्याओं को जन्म देने वाले कारण

सामान्यतः निम्नलिखित दशायें किशोरों की समस्याओं को जन्म देती हैं-

(i) शारीरिक व यौनिक परिपक्वता या अपरिपक्वता।

(ii) संवेगात्मक अस्थिरता।

(iii) सामाजिक अपरिपक्वता

(iv) विषमलिंगी यौन सम्बन्धों में असफलता

(v) निम्न सामाजिक व आर्थिक दशायें।

(vi) परिवार की अनुपयुक्त दशायें।

(vii) लक्ष्य की प्राप्ति में असफलता।

इस प्रकार किशोर विभिन्न कारणों से अनेकानेक समस्याओं से ग्रसित रहता है। हरलॉक (Hurlock) का कथन है कि “किशोरावस्था प्रौढ़ावस्था की तैयारी है, एक ऐसा समय है जबकि लड़कपन का व्यवहार और अभिवृत्तियाँ प्रौढ़ प्रकार की अभिवृत्तियाँ और व्यवहार में बदल जाती हैं।

अतः किशोरों के स्वस्थ प्रौढ़ जीवन की तैयारी के लिये किशोरावस्था में ही उनकी समस्याओं का समाधान आवश्यक है।

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