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बालकों के विकास में खेलों का महत्व

बालकों के विकास में खेलों का महत्व
बालकों के विकास में खेलों का महत्व

बालकों के विकास में खेलों का महत्व (Importance of Plays in Development of Children)

बालकों के विकास में खेलों का निम्नलिखित महत्व हैं:-

1. शारीरिक महत्त्व (Physical Importance)

(i) खेलने से बालक के शरीर की माँसपेशियाँ समुचित ढंग से विकसित और पुष्ट हो जाती है।

(ii) शरीर में रक्त संचालन अच्छी प्रकार से होने लगता है और रक्त का शुद्धीकरण होने से अविकसित शरीर विकसित होकर पुष्ट हो जाता है।

(iii) स्वास्थ्य अच्छा हो जाता है।

(iv) रोगों से लड़ने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है।

(v) खेल से बालक के शरीर के सभी अंगों का समान रूप से व्यायाम हो जाता है।

(vi) बालक का स्वभाव चिड़चिड़ा और तनावपूर्ण नहीं होता है।

(vii) बालक में वातावरण से समायोजन की शक्ति आ जाती है। दौड़ने-कूदने से बालकों को प्रोत्साहन मिलता है और स्फूर्ति के कारण कार्यों में गति तीव्र हो जाती है।

2. खेलों का मानसिक महत्त्व (Mental Importance of Palys) – बच्चों का मानसिक विकास विभिन्न ज्ञानेन्द्रिय अनुभवों से आरम्भ होता है। खेलों के माध्यम से बालक का मानसिक विकास भी होता है जो उसके व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है। खेलों द्वारा बच्चा नवीन परिस्थितियों से परिचित होता है। संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, स्मृति, कल्पना, विचार आदि मानसिक क्रियाओं का अच्छी तरह से कार्य करना खेल द्वारा ही सम्भव होता है। बच्चों में मानसिक सन्तुलन की सामर्थ्य आ जाती है तथा उसकी रचनात्मक कल्पना का भी खेलों के माध्यम से विकास हो जाता है। खेलों द्वारा भाषा का विकास भी द्रुत गति से होता है। खेलों से तर्क एवं चिन्तन-शक्ति विकसित होती है।

3. खेलों का संवेगात्मक महत्त्व (Emotional Importance of Plays)- खेलों द्वारा बालक का संवेगात्मक विकास भी होता है । बालक समुदाय और समाज में खेलने लगता है और इसके लिए दूसरों के प्रति सहयोग, सहानुभूति और सहनशीलता दिखानी पड़ती । उत्साह द्वारा बालक में अनेक खेलों का प्रयोग कराया जाता है। खेलों द्वारा बच्चा दिवास्वप्न देखना बन्द कर देता है और वह प्रसन्न तथा आशावादी हो जाता है और वह संवेगों पर नियन्त्रण रखना भी सीख जाता है। उसमें लज्जाशीलता, कायरता, चिड़चिड़ापन, लड़ाकूपन, मारपीट करने की प्रवृत्ति आदि दोष समाप्त हो जाते हैं। यदि बालक खेल में रुचि लेता है तो संवेगात्मक खेल की अस्थिरता समाप्त हो जाती है तथा वह दूसरों की भावनाओं तथा आवश्यकताओं का ध्यान रखना सीख जाता है।

4. खेलों का सामाजिक महत्त्व (Social Importance of Plays)- आरम्भ में शिशु के खेल वैयक्तिक होते हैं जो बाद में समाजिकता में बदल जाते हैं। आयु के विकास के साथ-साथ वह समूह में खेलना पसन्द करता है। स्वार्थ को छोड़कर परमार्थ की ओर चिन्तन करने लगता है । वह बराबर की आयु वाले बच्चों के साथ संगठित रूप से खेलना आरम्भ कर देता है। उसे ऊँच-नीच, गरीब-अमीर का कोई अन्तर नहीं पड़ता। खेल द्वारा वह अपने साथियों की भावनाओं और इच्छाओं का आदर करना सीखता है अन्यथा उसे खेलने के साथी नहीं मिलेंगे। इस प्रकार उसमें सामाजिकता की भावना का जन्म होता है। इससे नियम पालन, आज्ञापालन, सहयोग, ईमानदारी, अनुशासन, सहिष्णुता, उत्तरदायित्व, नेतृत्व, परोपकारिता आदि गुणों का उसमें विकास होता है तथा ऊँच-नीच, जाति-पाँति एवं प्रजातीय संघर्षो की समाप्ति होती है। खेलों द्वारा दूसरे बच्चों से उसका सम्पर्क बढ़ता है। इस प्रकार मित्रता विकसित होती है जो धीरे-धीरे राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय भावना के रूप में विकसित होती है। परिवार में भी बालक जब अपने भाई-बहनों के साथ खेलता है तो परिवार में स्नेह, सौहार्द्र की भावना का विकास होता है और द्वेष की भावना समाप्त हो जाती है। इस प्रकार बालक के व्यक्तित्व का उचित रूप से विकास होना सम्भव है।

5. खेलों द्वारा नैतिक विकास (Moral Development by Plays) – खेलों द्वारा नैतिक गुणों का भी बालक में विकास होता है। वह खेलों में सत्यनिष्ठ, ईमानदार, आत्म-संयमी, साहसी, विनम्र, विजयी और सफल खिलाड़ी बनता है । वह सहनशील तथा दूसरों के अधिकारों और वस्तुओं का आदर करने वाला बनता है। खेलों द्वारा बालक सहयोग की भावना सीखता है और नियमनिष्ठता की भावना उसमें उत्पन्न हो जाती है जिससे खेलते समय उसमें आत्म नियन्त्रण व ईमानदारी, दयानतदारी, सच्चाई, निष्पक्षता और सहयोग, सहनशीलता आदि गुणों का विकास होता है और हार जाने पर भी उत्साहहीन नहीं होता तथा न ही उसमें द्वेष का भाव आता है। इस प्रकार खेलों द्वारा उसका नैतिक और चारित्रिक विकास अच्छी तरह से होता है।

6. खेलों का शैक्षिक महत्त्व (Educational Value or Importance of Play)-

(अ) करके सीखने का महत्त्व (Importance of Learning by Doing)- यह खेल का ही महत्त्व है कि आधुनिक शिक्षा प्रणाली में करके सीखने का सिद्धान्त अपनाया जा रहा है । फलस्वरूप बच्चों को जो भी ज्ञान प्राप्त होता है वह व्यावहारिक होता है जिसे प्राप्त करके भविष्य में वे कुशल नागरिक बनकर अपने कर्त्तव्यों और अधिकारों का सदुपयोग करते हैं।

(ब) शिक्षा में खेल प्रणाली का महत्त्व (Importance of Education of Play-way)- शिक्षा में खेल का इतना अधिक महत्त्व हो गया है कि फाल्डवेल कुक नामक शिक्षाशास्त्री ने शिक्षा में खेल प्रणाली का आविष्कार किया। इस प्रणाली द्वारा शिक्षा में स्वतन्त्रता, आनन्ददायकता, स्वाभाविकता आदि गुणों का समावेश किया जाता है जिससे बालक ज्ञानार्जन में सुख तथा आनन्द का अनुभव करते हैं। सर्वश्री के. भाटिया तथा वी. डी. भाटिया के शब्दों में- “यह खेल की पद्धति है जिससे स्वतन्त्र शासन में अपने कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों को जानने से शिक्षालय में सामाजिकता एवं नागरिकता की शिक्षा मिलती है।”

(स) पाठ्यक्रम के निर्माण में महत्त्व (Importance in Curriculum Construction)- खेल ऐसी प्रवृत्ति है जो स्वतन्त्रता, आनन्ददायकता, स्वाभाविकता, स्फूर्तिदायकता आदि गुणों से अतिरंजित रहती है। परिणामतः जब पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है तो इस बात का ध्यान दिया जाता है कि खेल के समस्त गुणों को पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाये।

(द) अनुशासन सम्बन्धी समस्याओं के समाधान में महत्त्व (Importance in Solving the Problems of Dicipline) – शिक्षकों का यह परम कर्तव्य है कि वह बालकों में अनुशासन अथवा विनय की भावना का विकास करें। वास्तव में बालक खेल द्वारा अपनी पाशविक मूल प्रवृत्तियों का शोधन करते हैं, नियमों का पालन करते हैं। मार्ग-प्रदर्शक की आज्ञापालन का अभ्यास करते हैं जिससे उनमें अनुशासन तथा विनय की भावना का विकास होता है।

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