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प्रसार शिक्षण पद्धति | प्रसार शिक्षण के विभिन्न चरण

प्रसार शिक्षण पद्धति
प्रसार शिक्षण पद्धति

प्रसार शिक्षण पद्धति की विस्तृत विवेचना कीजिए।

प्रसार शिक्षण पद्धति एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा शिक्षक अपनी बातें विद्यार्थी तक पहुँचाता है। इसके निमित्त एक ऐसा वातावरण तैयार करना होता है, जिसमें बात या संदेश का प्रसारण हो सके। विविध रीतियों से लोगों के साथ सम्पर्क स्थापित करके, उनका ध्यान आकर्षित करके, लोगों में अभिरुचि और आकांक्षा जगायी जाती है कि वे नई बातें सीखने के लिऐ प्रोत्साहित हों। प्रसार शिक्षण में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लोग काम करके सीखते हैं। यहाँ शिक्षण पद्धति का अर्थ है लोगों तक नई बातों की जानकारी पहुँचाना तथा उन्हें इस बात के लिए प्रेरित करना कि वे उन जानकारियों (पद्धतियों, सूचनाओं) को अपनाएँ और लाभान्वित हों। प्रसार शिक्षण पद्धति के अन्तर्गत वास्तव में एक ऐसा वातावरण तैयार किया जाता है जिसमें सीखना-प्रक्रिया को बढ़ावा मिलता है और प्रभावकारी शिक्षण का आयोजन प्रसारकर्त्ता कर पाता है। डॉ. एन्समिंजर प्रसार पद्धतियों को मशीन, रिंच, स्क्रू ड्राइवर, हथौड़े आदि की तरह मानते हैं। प्रसार कार्यकर्त्ता के जीवन में शिक्षण पद्धतियों का वही महत्व है जो एक मैकेनिक के जीवन में हथौड़े, पेंचकस, रिंच आदि का होता है। एक कुशल मिस्त्री या मैकेनिक के पास ये यन्त्र, उपकरण या साधन निश्चित रूप से रहते हैं, और जब उसे कोई काम दिया जाता है तो वह जानता है कि उक्त कार्य को निष्पादित करने में उसे कौन से या कौन-कौन से उपकरणों या साधनों का उपयोग करना चाहिए। कारीगर की कुशलता इस बात पर निर्भर करती है कि अपेक्षित उपकरण या साधन की कार्य प्रणाली से सम्बन्धित कितनी पैठ उसमें है और उसके सही उपयोग करने में वह कितना सक्षम है। उपकरण (साधन) के सही चयन एवं उपयोग प्रणाली द्वारा ही कोई कारीगर प्रभावशाली ढंग से, कठिन से कठिन कार्य निष्पादित कर सकता है। प्रसारकर्ता को सभी प्रसार पद्धतियों से भली- भाँति परिचित होना चाहिए, साथ ही उसे यह भी समझ होनी चाहिए कि कौन सी पद्धति को कब और कैसे उपयोग में लाया जाए। स्थानीय परिस्थितियों को देखते हुए प्रसारकर्ता को विवेकपूर्ण ढंग से निर्णय लेना होता है कि उसे किस शिक्षण पद्धति के माध्यम से अपनी बात लोगों तक पहुँचानी है जिससे उसकी बात प्रभावशाली लगे। प्रसार शिक्षण में विद्यार्थी के रूप में परिपक्व पुरुष, महिलाएँ, युवा तथा बच्चे प्रसारकर्ता को मिलते हैं। वयस्क समुदाय अनेक पूर्वाग्रहों से भी प्रभावित रहता है। प्रसारकर्ता को ऐसा वातावरण तैयार करना होता है जिसमें लोग उसकी बातों को सुनें, समझें तथा उनका अनुसरण करें। ऐसी परिस्थिति में सही प्रसार शिक्षण पद्धति का चयन एवं उसका कुशल निर्वाह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। वांछित परिणाम क्या है, उस परिणाम तक पहुँचने के निमित्त, स्थानीय परिस्थितियों (विद्यार्थियों का शैक्षिक स्तर, आर्थिक स्तर, संचार माध्यमों की उपलब्धता आदि) को देखते हुए कौन सी शिक्षण पद्धति उपयुक्त रहेगी, यही निर्णय विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। ऐसा भी सम्भव है कि परिस्थितिवश प्रसारकर्ता को एक साथ कई शिक्षण पद्धतियों का उपयोग करना पड़े।

प्रसार शिक्षण के विभिन्न चरण

प्रसार शिक्षण के माध्यम से सूचनाओं को कृषकों तक पहुँचाने से पूर्व प्रसार कार्यकर्ता को कुछ मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं का सहारा लेना पड़ता है, जिन्हें प्रसार शिक्षण के चरण (Steps in Extension Teaching) कहते हैं। नई सूचनाओं से परिचित कराने से पूर्व कृषक को अच्छे परिणाम दिखाये जाते हैं। इन्हें अनेक माध्यमों (छाया चित्र, पोस्टर, प्रदर्शनी, मेला, दूरदर्शन, चलचित्र आदि) द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। परिणाम प्रदर्शन के फलस्वरूप व्यक्ति में निम्न प्रतिक्रियाएँ होती हैं- 1. ध्यानाकर्षण, 2. अभिरुचि, 3. आकांक्षा, 4. विश्वास, 5. जानकारी, 6. क्रिया, 7. सन्तुष्टि 8. मूल्यांकन

1. ध्यानाकर्षण- किसी परिणाम या प्रतिफल को देखकर ही लोगों का ध्यान उसकी ओर जाता है। दूसरे शब्दों में, इसे ध्यानाकर्षण कहते हैं। गेहूँ के पुष्ट दाने, टमाटर-बैंगन के बड़े आकार, भुट्टों के लहलहाते खेत, फलों से लदे पेड़-पौधे इत्यादि देखकर कोई भी कृषक उनक प्रति आकर्षित होगा। इसी प्रकार स्वेटर के सुन्दर नमूने, नये-नये व्यंजन, हस्तकला से सुसज्जित घर महिलाओं को आकर्षित करते हैं। ग्रामीणों में अभिरुचि एवं आकांक्षा जगाने की पहली सीढ़ी ध्यानाकर्षण है। व्यक्ति समझता है कि उसकी समस्या का कोई हल है, तभी वह उस हल के प्रति आकर्षित होता है। प्रसार कार्यक्रम के अन्तर्गत कृष प्रदर्शनी, कृषि मेला, हस्तशिल्प प्रदर्शनी, पोस्टर, छायाचित्र प्रदर्शनी, रडियो तथा दूरदर्शन के कृषि एवं महिलोपयोगी प्रसारण, सिनेमा आदि के माध्यम से लोगों का ध्यान आकर्षित किया जाता है। दूसरे कृषकों के खेत और फसल देखकर भी कृषकों का ध्यान आकर्षित होता है।

2. अभिरुचि – कोई वस्तु या उपलब्धि जब किसी व्यक्ति का ध्यान आकर्षित करने में सक्षम हो जाती है तो आगे की क्रिया सहज हो जाती है। अभिरुचि एक प्रतिक्रया है जो ध्यानाकर्षण क कारण होती है। किसी वस्तु या उपलब्धि पर जब ध्यान केन्द्रित होता है तो उस परिणाम के प्रति अभिरुचि जागना स्वाभाविक है। जब ग्रामीणों का ध्यान परिणाम पर आकर्षित हो गया हो तो प्रसार शिक्षक को उसके विषय में थोड़ी जानकारी देना प्रारम्भ करना चाहिए। प्रसार शिक्षक को अपनी बात आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करनी चाहिए, जिससे लोगों को यह आभास न हो कि कोई बात उन पर थोपी जा रही है। ग्रामीणों के लिए इस स्थिति में इतना ही जानना पर्याप्त है कि नई पद्धति द्वारा ऐसा परिणाम प्राप्त किया जा सकता है और ये परिणाम लाभकारी हैं। पद्धति सम्बन्धी जानकारी आगे के चरणों में दी जायेगी।

3. आकांक्षा- प्रसार शिक्षक कायह कर्तव्य हो जाता है कि ग्रामीणों में नई जानकारियों को प्राप्त करने की जो अभिरुचि उसने जगाई है, उसे बनाए रखे क्योंकि जिस वस्तु के प्रति व्यक्ति की अभिरुचि जागती है, उसे प्राप्त करने की आकांक्षा भी उसके मन में जाग्रत होने लगती है। आकांक्षा एक आन्तरिक शक्ति है जो सीखना- क्रिया को गत्यात्मकता प्रदान करती है। आकांक्षा से प्रभावित व्यक्ति अधिक सक्रियता एवं उत्साह के साथ किसी भी काम को सीखना चाहता है। इससे वह कम समय और कम मेहनत द्वारा किसी भी पद्धति को सीख लेता है। प्रसार शिक्षक की चेष्टा यही होनी चाहिए कि वह अभिरुचि को आकांक्षा में परिवर्तित होने का वातावरण बनाए रखे। परिणाम प्रदर्शन की पुनरावृत्ति करें, लोगों को उनके लाभ की बातें बताता रहे। अभिरुचि का आकांक्षा में परिवर्तित होना प्रसार-शिक्षक की अर्द्ध-सफलता का द्योतक है क्योंकि आकांक्षा एक आन्तरिक प्रेरक शक्ति है जो व्यक्ति को कोई क्रिया करने को बाध्य करती है।

4. विश्वास- आवश्यकता व्यक्ति को सीखने की प्रेरणा देती है। विषय के प्रति आस्था व्यक्ति को इस बात के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित करती है कि वह क्रियाशील होकर आगे बढ़े। ग्रामीणों के मन में नई पद्धतियों के प्रति विश्वास जगाने में प्रसार कार्यकर्त्ता की महत्वपूर्ण भूमिका रहती हैं। विभिन्न प्रसार माध्यमों की सहायता लेकर वह ग्रामीणों के समक्ष, नई पद्धतियों एवं सूचनाओं को एक निर्विवाद सात्य की तरह प्रस्तुत कर सकता है। ग्रामीणों के मन में जब इनके प्रति आस्था जाग जाती है तो आगे की क्रियाएँ स्वतः स्वाभाविक हो जाती हैं।

5. जानकारी – किसी भी विषय के प्रति आस्था, व्यक्ति को इस बात के लिए बाध्य करती है कि वह तत्सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करे। इसी प्रकार ग्रामीणों के मन में, जब किसी पद्धति के प्रति विश्वास घर कर लेता है तो वे विषय सम्बन्धी विस्तृत जानकारी प्राप्त करने को उद्दीप्त हो जाते हैं। प्रसार कार्यकर्त्ता की भूमिका इस समय, ग्रामीणों को उन पद्धतियों से सम्बन्धित जानकारी देना है जिससे वे कार्य सम्पादन में जुट सकें क्योंकि अगला चरण कार्य सम्पादन है। ग्रामीणों को जानना चाहिए कि उन्हें क्या करना है, कहाँ से प्रारम्भ करना है।

6. क्रिया- प्रसार शिक्षण के अन्तर्गत यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है क्योंकि इसका सम्बन्ध शिक्षण के व्यावहारिक पक्ष से है। किसी भी कार्य से सम्बद्ध शिक्षण तभी सफल माना जाता है जब लोग उस कार्य को व्यवहार में लाते हैं। व्यावहारिक शिक्षण की लक्ष्य पूर्ति तभी होती है जब बताई गई बातों को क्रियात्मकता मिले।

प्रसार शिक्षण के माध्यम से प्राप्त पद्धतियों एवं सूचनाओं का ग्रामीण समुदाय जब अनुसरण करता है, उसके अनुरूप कार्य करता है तो प्रसार शिक्षण सफल कहा जा सकता है। जानकारियों के पहुँचने के बावजूद जब ग्रामीण पुरानी पद्धतियों के अनुसार काम करते रहते हैं तो प्रसार शिक्षण विफल माना जाता है। इन पद्धतियों के प्रतिपालन में आने वाले या उपस्थित व्यवधानों के प्रति प्रसारकर्ता को विशेष सतर्कता बरतनी चाहिए तथा ऐसा प्रयास करना चाहिए कि ये व्यवधान लोगों के कार्य सम्पादन को प्रभावित कर, उन्हें हतोत्साहित न करने पाएँ। ये व्यवधान भौतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक यहाँ तक कि मानवीय भी हो सकते हैं।

7. संतुष्टि- सीखने की क्रिया आवश्यकता से प्रारम्भ होती है तथा कई प्रेरक शक्तियों द्वारा प्रभावित होकर वांछित लक्ष्य तक पहुँचती है। कोई विद्यार्थी जब पढ़ता है तो परीक्षा में अच्छा फल प्राप्त करना उसका वांछित लक्ष्य होता है। इसी प्रकार जब कृषक हल जोतता है तो अच्छी फसल की प्राप्ति उसका वांछित लक्ष्य होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि व्यक्ति कोई भी कार्य किसी भी प्रलोभन या वांछित लक्ष्य की प्राप्ति के निमित्त करता है। अपने वांछित या प्रतिफल से वह पूरी तरह परिचित रहता है और उसे क्या चाहिए या उसकी क्या आकांक्षा है, यह भली-भांति जानता है। यही कारण है कि वांछित लक्ष्य की प्राप्ति होने पर ही वह संतुष्ट हो पाता है। वांछित लक्ष्य के अन्तर्गत व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति, उसकी समस्या के निदान, कार्य क्षमता में वृद्धि या इसी तरह की कोई और बात हो सकती है। प्रसारकर्ता को इस बात के प्रति सतर्क रहना चाहिए कि वह उन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए ग्रामीणों को उत्प्रेरित करे, जिन लक्ष्यों की प्राप्ति की क्षमता एवं योग्यता उनके पास हो। ग्रामीणों की कार्य- दक्षता एवं संसाधनों को ध्यान में रखकर ही किसी काम के निमित्त उन्हें प्रोत्साहित या प्रेरित करना बुद्धिमत्ता है।

8. मूल्यांकन- मूल्यांकन प्रसार शिक्षण का महत्वपूर्ण चरण है। मूल्यांकन द्वारा ही यह ज्ञात हो पाता है कि वांछित लक्ष्यों की प्राप्ति हुई है अथवा किस सीमा तक हुई है। मूल्यांकन एक विश्लेषणात्मक अध्ययन है जो कार्य सम्पादन की त्रुटियों या लाभों की जानकारी देता है। कार्य सम्पादन के क्रम में भी समय-समय पर कार्य प्रगति से सम्बन्धित सूचनाएँ मूल्यांकन द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं। इससे सीखने वाले तथा सिखाने वाले दोनों को लाभ होता है। समय पर दोष निवारण होना अपने आप में महत्वपूर्ण है।

प्रसार शिक्षण के अन्तर्गत मूल्यांकन द्वारा ही इस बात की जानकारी हो पाती है कि लोगों के व्यवहार में उनकी आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति में प्रसार शिक्षा के फलस्वरूप कौन- कौन से परिवर्तन आए।

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