प्रसार शिक्षण विधियों का चुनाव
प्रसार शिक्षण विधियों का चुनाव- अब तक हमारी छात्राओं को यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रसार शिक्षा का उद्देश्य बिना मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन लाये पूरा नहीं हा सकता और इस काम के लिये ही व्यक्तिगत समूह तथा जन सम्पर्क विधियों के अन्तर्गत विभिन्न तरीकों से ग्रामवासियों से सम्पर्क कर उनके सर्वांगीण विकास हेतु उन्हें प्रेरित करने का काम किया जाता है ताकि उनके सोचने के ढंग में परिवर्तन आये, उनके कार्य कौशल में परिवर्तन आये। प्रसार शिक्षा शिक्षण की विभिन्न विधियों की विशेषताओं के आधार पर उनकी अपनी सीमाएँ होती हैं क्योंकि स्थान समय प्रतिभागी की मनोवृत्तियों को देखते हुये यदि विधि का चुनाव नहीं किया जाता तो वह अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाती है। इस विषय में प्रसार कार्यकर्त्ता को सचेत रहना होगा कि वह ऐसी विधि का चुनाव करे जो उसे उसके उद्देश्य में सफलता दिलाये। विधि का चुनाव तथा प्रयोग प्रभावी पूर्ण ढंग से करना चाहिये। शिक्षा देने के लिये अलग-अलग चरण होते हैं। प्रथम चरण है प्रतिभागियों का अपने कार्यक्रम के प्रति ध्यान खींचना, जिसके लिए आकर्षक रंगीन सुन्दर पोस्टर या चार्ट का प्रयोग, ब्लैकबोर्ड का प्रयोग करें। कार्यक्रम सम्बन्धी फिल्म प्रदर्शनी मेले का आयोजन किया जाये।
स्थानीय निवासियों में कार्यक्रम के प्रति रुचि उत्पन्न करने के लिये सामूहिक चर्चा, परिणाम प्रदर्शन, भ्रमण, विषय विशेषज्ञों के साथ वार्ता, उस कार्यक्रम के सहयोग से सफलता पाये लोगों से साक्षात्कार, भेंट वार्ता का आयोजन करवाया जा सकता है। कार्यविधि सिखाने के लिये- प्रदर्शन विधि, फिल्म ब्लैकबोर्ड का प्रयोग सम्पर्क कर उन्हें सिखाया जा सकता है। प्रसार शिक्षा हेतु शिक्षण विधि का चुनाव करते समय 9 बिन्दुओं पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है-
(1) स्थानीय निवासियों का मानसिक तथा शैक्षिक स्तर- यदि दी जाने वाली शिक्षा या शिक्षा की विधि क्लिष्ट होगी तो वह सीखने वाले के सिर के ऊपर से निकल जायेगी अतः कार्यक्रम तथा शिक्षण पद्धति का चुनाव करने के पहले उसकी शैक्षिक पृष्ठभूमि जानना आवश्यक है क्योंकि उसी पर उसका मानसिक स्तर निर्भर करेगा। मानसिक स्तर को वहाँ की मान्यताएँ, विश्वास, आस्थाएँ भी प्रभावित करती हैं अतः उन्हें जानना भी जरूरी है। यदि वहाँ के निवासियों का शैक्षिक स्तर शून्य है तो लिखित छपी सामग्री उनके लिये कोई अर्थ नहीं रखती है। यदि वहाँ के निवासियों की आस्थाएँ मान्यताएँ आज भी 18वीं सदी की हैं तो उन्हें एक साथ एक स्थान पर एकत्र करना भी सम्भव नहीं होगा। यदि वहाँ के निवासी निरक्षर हैं, मानसिक स्तर भी निम्न है तो उनके लिये विधि का चुनाव करने में अधिक सतर्कता की आवश्यकता होगी।
(2) प्रसार शिक्षा ग्रहण करने वालों की संख्या- प्रसार शिक्षा विधि का चुनाव करते समय उस समूह के आकार को ध्यान में रखना आवश्यक है क्योंकि छोटे समूह के लिये जो विधियाँ तथा शिक्षण सामग्रियाँ उपयुक्त होती हैं वे बड़े समूह के लिये सफल नहीं हो पाती हैं।
छोटे समूह के लिये- चार्ट, फ्लैशकार्ड, फलानेल कार्ड, ब्लैकबोर्ड उपयोगी हैं। किन्तु बड़े समूह में – यह साधन प्रभावी नहीं हो पाते उसके लिये बड़ा स्क्रीन, प्रोजेक्टर तथा दूर तक आवाज जा सके इसलिये लाउडस्पीकर भी आवश्यक है।
(3) आर्थिक स्थिति- कुछ शिक्षण विधियाँ ऐसी हैं जिनका प्रयोग करने पर धन अधिक व्यय होता है जैसे भ्रमण विधि, प्रदर्शन विधि, चित्र प्रदर्शनी, नाटक आदि। इन योजनाओं में सरकार भी व्यय करती है पर उसका बजट भी निर्धारित होता है अतः जहाँ शिक्षा कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं वहाँ के निवासियों की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखें कि यदि कल वे लोग इन विधियों का प्रयोग स्वयं करेंगे तो व्यय वहन कर पायेंगे।
(4) आयु- हर आयु वर्ग की मानसिक आयु तथा ग्रहण क्षमता में भी अन्तर होता है। अतः शिक्षा ग्रहण करने वालों की उम्र को ध्यान में रखकर विधि का चुनाव करें। इसके साथ ही – यह भी देखा गया है कि कम उम्र के सदस्य नयी तकनीक, नये ज्ञान को शीघ्र बिना हिचक के अपनाते हैं जबकि बुजुर्ग अपनी पुरानी मान्यताओं तथा आस्था के कारण नये विचारों को जल्दी नहीं अपनाते हैं। अतः इस आयुवर्ग में कार्यक्रम के प्रति रुचि जाग्रत करने हेतु परिणाम, प्रदर्शन, क्षेत्र में सफल लोगों से भेंट जैसी विधियाँ अपनाई जानी चाहिए।
(5) अभिरुचि- प्रसार शिक्षा अनौपचारिक शिक्षा है। इसमें अभ्यर्थियों की रुचि उत्पन्न करने के लिये जरूरी है कि ऐसी विधि का चुनाव करें जो विधि वहाँ के निवासियों को आकर्षक तथा रुचिकर लगे। इसके लिये प्रसारकर्ता को अपने पुराने अनुभवों तथा वहाँ के स्थानीय निवासियों का थोड़ा मनोवैज्ञानिक अध्ययन करना चाहिये जिसके लिये व्यक्तिगत या छोटे समूह में मिलकर बातचीत करनी चाहिये ताकि वह उनके विचार जान सकें और उन विधियों का प्रयोग करे जिन विधियों में स्थानीय लोगों की रुचि हो ताकि उनके बीच कार्यक्रम का आकर्षण भी बढ़े।
(6) समस्याओं का निदान- प्रसार शिक्षा का एक उद्देश्य स्थानीय वासियों के धन्धों से जुड़ी तथा अन्य समस्याओं के निदान हेतु उनकी सहायता करना तथा उनमें इतना विश्वास पैदा करना है कि वे अपनी समस्याएँ स्वयं सुलझा सकें। इसके लिये प्रसार शिक्षा कार्यकर्ता को शिक्षण की उन विधियों पर जोर देना चाहिये जो विधियाँ उनकी खेती तथा वहाँ के अन्य धन्धों से सम्बन्धित समस्याएँ जैसे- सिंचाई, बीज, ऋण सम्बन्धी, बाजार सम्बन्धी, अनाज भण्डारण, पशु सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाने में उनकी मदद कर सकें।
(7) यातायात सुविधाएँ – भारतीय ग्रामीणों की उन्नति में बाधक तत्वों में एक तत्व है पर्याप्त यातायात सुविधाओं का न होना अतः विशेषकर, प्रदर्शनी मेला, नौटंकी, नृत्य गायन कार्यक्रमों का शिक्षा का साधन बनाते समय प्रसार कार्यकर्ता को ध्यान रखना चाहिये कि वह इन कार्यक्रमों का आयोजन ऐसे स्थल पर करे जहाँ यातायात सुविधाएँ हों ताकि आसपास के क्षेत्र के अधिकाधिक लोग आकर उसमें भाग ले सकें।
(8) शिक्षण साधनों की उपलब्धता- यातायात की सुविधाएँ उपलब्ध न होने पर, विद्युत आपूर्ति न होने पर अनेक प्रसार शिक्षा सम्बन्धी साधनों की उपलब्धता नगण्य हो जाती है। प्रोजेक्ट, एम्प्लीफायर, लाउडस्पीकर, टी.वी. जैसे साधन के अभाव में बड़े समूह को सम्बोधित करना सम्भव नहीं हो पाता। यातायात असुविधा, विद्युत न होने के कारण ये साधन दूर दराज के क्षेत्रों में नहीं पहुँच पाते हैं। इसी प्रकार यदि स्थानीय लोग पूर्णतया निरक्षर होते हैं तो छपी सामग्री चार्ट आदि का प्रयोग उनके साथ अप्रभावी होता है। अतः शिक्षण विधि का चुनाव करते समय ध्यान रखना होगा कि शिक्षण पद्धतियों सम्बन्धी कौन-कौन से साधन उपलब्ध हो सकते हैं उसी के अनुसार शिक्षण विधि का चुनाव करें।
(9) एक साथ एक से अधिक शिक्षण विधियों का प्रयोग- शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावी बनाने के लिए एक समय में एक से अधिक विधियों का प्रयोग एक साथ कराना चाहिये पर प्रसारकर्ता को यह ध्यान रखना चाहिये कि वह एक समय में एक साथ सफलतापूर्वक कितनी विधियाँ प्रयोग कर सकता है ऐसा न हो कि उतनी विधियाँ एक साथ लेकर चले कि उनका संचालन समायोजन न कर पाये और वे अप्रभावी हो जायें।
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