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समावेशी स्कूल से क्या तात्पर्य है? आधुनिक युग में समावेशी विद्यालयों की भूमिका

समावेशी स्कूल से क्या तात्पर्य है
समावेशी स्कूल से क्या तात्पर्य है

समावेशी स्कूल से क्या तात्पर्य है?

बालक का घर से निकल कर विद्यालय में आगमन होता है। इसके अन्तर्गत बालक पारिवारिक परिवेश से बाहर निकलकर विद्यालय में प्रवेश करता है तथा प्रवेश के उपरांत बालक का भावनात्मक, बौद्धिक एवं मानसिक विकास सुनिश्चित किया जाता है। बालक को विद्यालय में विभिन्न कौशलों को सीखने के लिये शारीरिक व मानसिक रूप से तैयार किया जाता है।

मे (May) के अनुसार- “समावेशी विद्यालय वह गुण है, जो कि बच्चे को सामान्य विद्यालय पाठ्यक्रम में सफलतापूर्वक भाग लेने में सहायता करता है।”

समावेशी विद्यालय बालकों की विभिन्न आवश्यकताओं को समझते हुए उचित पाठ्यक्रम एवं कौशलों के माध्यम से शिक्षा प्रदान कराते हैं तथा उचित वातावरण एवं सुविधाओं का ध्यान रखते हुए उनको उनकी योग्यता के अनुसार विभिन्न शिक्षण विधियाँ उपलब्ध कराते हैं तथा विशिष्ट बालकों को विभिन्न शैक्षिक कार्यक्रम प्रदान करने के लिये उचित प्रशिक्षण शिक्षण प्रबंधन कराते हैं ताकि सकारात्मक वातावरण पैदा हो।

आधुनिक युग में समावेशी विद्यालयों की भूमिका (Role of Inclusive School in Modern Times)

आधुनिक युग में समावेशी विद्यालयों की भूमिका निम्नलिखित हैं-

1. विशेष बालकों की आवश्यकताओं की खोज- विशेष बालक-बालिकाओं में यह शिक्षा आधारभूत सामाजिक सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिये। सामान्य बालक को औसत बालक से भिन्न नहीं समझना चाहिए। उनकी भी वे सब आवश्यकताएँ हैं जो कि अन्य बालकों की हैं। सभी लोगों को विशेष शिक्षा के मूल्य का ज्ञान होना चाहिए। अध्यापकों को वे विधियाँ बतानी चाहिए जिनके द्वारा वह पढ़ाये। उन विधियों को पुनर्परीक्षण और निरीक्षण करवाना चाहिए। जब बालकों/बालिकाओं को और अधिक विशेष शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती है तो उन्हें सामान्य कक्षा में भेज देना चाहिए। पृथकीकरण का दर्शन विद्यार्थी, माता-पिता तथा अध्यापकों को बताना चाहिए। कक्षा का आकार निश्चित करना चाहिए।

2. बालकों की पहचान- विद्यालय की पहचान के लिए विभिन्न विशेष एजेन्सियों की सहायता लेनी चाहिए। स्वास्थ्य विभाग शारीरिक रूप से अयोग्य बालकों की पहचान कराने में सहायता कर सकता है। जब बालक/बालिकाओं की पहचान हो जाती है, तो उनका गहन अध्ययन करना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो उन्हें मनोवैज्ञानिकों, आँख-नाक-कान के विशेषज्ञों को दिखाना चाहिए।

3. अध्यापकों का चुनाव- अध्यापकों को विशेष बालकों को पढ़ाने का प्रशिक्षण भी देना चाहिए। साधारण बालकों को पढ़ाने का अनुभव विशेष बालकों के अध्यापक के लिए बहुत आवश्यक है। एक अच्छे कुशल अध्यापक के लिए केवल प्रशिक्षण की ही आवश्यकता नहीं होती। इस बात की ओर भी ध्यान देना चाहिए कि उसका व्यक्तित्व अच्छा हो, उसे विशेष बालकों में रुचि हो। विशेष बालकों की समस्याओं को समझने के लिए उसमें सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण हो चूँकि एक अध्यापक बालकों को कई वर्ष तक पढ़ाता है तथा कई तरह के बालकों को एक कक्षा में रखते हैं, अध्यापक को विशेष शिक्षा के अभिमुखीकरण (orientation) कोर्स को पूरा करना चाहिए।

4. विशेष कक्षाओं का निरीक्षण- छोटे शहरों में विशेष कक्षा के निरीक्षण का कार्य एक सहायक या प्राइमरी को देना चाहिए। बड़े नगरों में प्रत्येक स्कूल का एक निरीक्षक होना चाहिए। उसे इस क्षेत्र में प्रशिक्षित भी होना चाहिए। इस निरीक्षक को पढ़ाने का अनुभव, इस क्षेत्र में विशिष्टीकरण तथा कम-से-कम मास्टर डिग्री होनी चाहिए। इसके कार्य प्रशासन तथा निरीक्षण, दोनों ही हैं। इसे पाठ्यक्रम को तैयार करना, सामान का प्रबंध करना, अध्यापकों की नियुक्ति तथा स्थानान्तरण आदि का प्रबंध करना चाहिए।

इन निरीक्षकों को विशेष शिक्षा के क्षेत्र में हुए प्रत्येक परिवर्तन व विकास से अवगत होना चाहिए। इससे वे अपने प्रोग्राम को यथोचित्त रूप से कर सकते हैं। विशेष स्कूल के प्रधानाध्यापक को भी विशेष शिक्षा दी जानी चाहिए। अध्यापकों को विशेष वेतन व भत्ते देने चाहिए उन्हें स्कूल के प्रधानाध्यापक के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। वे सब कर्त्तव्य निभाने चाहिए जो कि साधारण कक्षा में होते हैं ताकि बालक अपने से औरों को भिन्न न मानें। अध्यापकों के लिए सेवा प्रशिक्षण तथा विस्तार सेवा होनी चाहिए ।

5. निर्देशन विद्यालयों में विभिन्न प्रकार के विलक्षण बालकों की आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न होती हैं, उनका मुख्य उद्देश्य एक है-अच्छा सामाजिक एवं व्यक्तिगत सामंजस्य, नागरिक उत्तरदायित्व तथा व्यावसायिक क्षमता। निर्देशन देते समय बालक से सम्बन्धित हर पहलू पर ध्यान देना चाहिए। जैसे- (i) शारीरिक दशा, (ii) सीखने की क्षमता, (iii) स्कूल रिकॉर्ड (iv) सामाजिक सामंजस्य, (V) रुचि एवं ध्यान ।

6. पाठ्यक्रम – विशेष बालकों की शिक्षा के उद्देश्य भिन्न होते हैं, अतः उनके पाठ्यक्रम को विशेष रूप में तैयार करना पड़ता है। यह पाठ्यक्रम प्रत्येक बालक के लिए उसकी आवश्यकतानुसार भिन्न होता है। ये सुझाव दिये गए हैं कि औसत बालकों के कार्यक्रम में विशेष बालकों को भाग लेना चाहिए। एक अध्यापक के लिए यह अत्यन्त कठिन है कि वह हर भिन्न आयु के बालक के लिए पूर्ण विशेष शिक्षा का प्रोग्राम बनाये । बालकों को समूह कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अध्यापक को औसत बालकों के अध्यापक से ही सहायता लेनी चाहिए। विभिन्न प्रकार के समूहों के लिए भिन्न-भिन्न कोर्स तथा पाठ्यक्रम सामंजस्य होते हैं। बालकों को जो अन्धे हैं, टंकण-लेखन का हस्तलिपि लिखना सिखाते हैं । अपाहिज बालकों को विभिन्न प्रकार के कार्य जैसे-बुनना, कातना, जेवर आदि बनाना बताया जाता। बहरे बालकों को भाषा का ज्ञान दिया जाता है।

7. इमारत – समावेशी विद्यालयों के लिये अलग इमारत का भी निर्माण कराया जाये। इमारत हवादार और खुली होनी चाहिए। विद्यालय को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इमारत उसी प्रकार की हो, जैसी सामान्य बालकों के लिए है। उसमें बिजली का प्रबंध, खिड़कियाँ, अच्छा फर्नीचर तथा खेलने का मैदान अवश्य होना चाहिए। बालक को विशेष शिक्षा के लिए एक पुरानी इमारत में भी भेजने से न तो बालक पर ही और न माता-पिता पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

विद्यालय के शिक्षा विभाग को इमारत बनाने तथा सामान का प्रबंध करने में बालकों की समस्त आवश्यकताओं का ध्यान रखना चाहिए । बालकों की खाने की समस्या का भी समाधान होना चाहिए। यदि बालक बहुत दूर आते हैं तो दिन में उसके नाश्ते का प्रबंध करना चाहिए इसके लिए माता-पिता की सलाह व सहायता भी ली जा सकती है।

8. गाँव के विशिष्ट बालक- इन बालकों को भी विशेष शिक्षा की उतनी ही आवश्यकता है जितनी उन विशिष्ट बालकों को जो शहरों में रहते हैं, पर गाँवों में ये सेवाएँ पहुँचाना बड़ा कठिन है। इन महँगी सेवाओं को गाँवों में दो या तीन बालकों के लिए नियोजित करना कठिन हो जाता है। माता-पिता भी अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए दूर नहीं भेजते हैं। ऐसी दशाओं में-

(i) गाँव के बालकों के लिए शहरों में छात्रावास का प्रबंध करना चाहिए।

(ii) उन्हें स्कूल ले जाने के लिए बसों का प्रबंध होना चाहिए जो प्रतिदिन विद्यार्थियों को घर वापस छोड़कर भी आये। राज्य सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए।

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