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पाठ्य पुस्तक के प्रकार एवं गुण | Type and Qualities of Text Books in Hindi

पाठ्य पुस्तक के प्रकार एवं गुण
पाठ्य पुस्तक के प्रकार एवं गुण

पाठ्य पुस्तक के प्रकार एवं गुण (Type and Qualities of Text Books)

मोटे रूप में पाठ्य पुस्तकें दो प्रकार की होती हैं- (क) विस्तृत अध्ययन के लिए तथा (ब) सहायक पुस्तकों के लिए।

(क) विस्तृत अध्ययन के लिए जो पुस्तकें होती हैं, वहाँ हमारा प्रयोजन होता है कि बालकों का शब्द-भण्डार तथा सक्ति-भण्डार बढ़े। दूसरे शब्दों में, हम ऐसा कह सकते हैं कि जिन शब्दों, सूक्तियों तथा लोकोक्तियों का समावेश पाठ्य-पुस्तक में हुआ है, बालक उनका ठीक-ठीक प्रयोग कर सकें।

(ब) सहायक पुस्तक को हम द्रुत वाचन की पुस्तकें भी कह सकते हैं। यहाँ हमारा प्रयोज्य शब्दार्थ समझाना अथवा व्याख्या करना नहीं, अपित तीव्र गति से वाचन का अभ्यास कराना है विद्यार्थी जल्दी-से-जल्दी पुस्तक पढ़कर भावार्थ समझ लें, यही इस प्रकार की पुस्तकों का उद्देश्य है कहीं-कहीं आवश्यकता पड़ने पर विद्यार्थी अध्यापक की सहायता ले सकता है अथवा शब्दकोश देख सकता है ।

पाठ्य-पुस्तक के अपेक्षित गुण (Expected Qualities of Text Books)

गुणों की दृष्टि से पाठ्य-पुस्तक पर दो दृष्टियों से विचार किया जा सकता है- (i) पाठ्य-पुस्तक के बाह्यय गुण। (ii) पाठ्य पुस्तक के आन्तरिक गुण ।

पाठ्य-पुस्तक के बाह्य गुण 

बाह्य गुणों के आधार पर बालक पाठ्य पुस्तक की ओर आकर्षित होता है, यथा-

1. पुस्तक का नाम – पाठ्य पुस्तक का नाम इतना आकर्षक हो कि बालक उसको पढ़ने के लिए प्रेरित हो आजकल पाठ्य-पुस्तकों के नाम होते हैं- हिन्दी गद्यावली (भाग-1, भाग-2 इत्यादि) बालक इसका अभिप्राय नहीं समझते। ऐसी स्थिति में वे परीक्षा की दृष्टि से ही पुस्तक पढ़ते हैं परिणामस्वरूप वे पुस्तक से अपेक्षित आनन्द की अनुभूति नहीं करते।

2.उपयोगी चित्र – पाठ्य-पुस्तक में चित्रों तथा रेखाचित्रों की संख्या पर्याप्त होनी चाहिए। इससे पाठ का समझना सहज हो जाएगा और बालक पाठ में अधिक रुचि लेंगे। बड़ी कक्षाओं की अपेक्षा छोटी कक्षा की पाठ्य पुस्तक में चित्रों की संख्या अधिक होनी चाहिए।

3. मुद्रण- पाठ्य-पुस्तक के मुद्रण में विशेष ध्यान रखना चाहिए। अक्षरों का आकार सुस्पष्ट और बड़ा होना चाहिए। छोटे बालकों के लिए काली या गहरी नीली स्याही अधिक उपयुक्त रहेगी। इससे नेत्रों पर दूषित प्रभाव नहीं पड़ेगा।

4. आवरण- पाठ्य पुस्तकों का आवरण सुन्दर होना चाहिए। छोटी कक्षाओं के बालक रंग-बिरंगा आवरण पसन्द करते हैं और बड़ी कक्षाओं के विद्यार्थी सादा तथा कलात्मक आवरण।

5. कागज- पाठ्य पुस्तक का कागज न बहुत पतला हो और न ऐसा हो जिसकी चमक आँखों पर पड़े। मुद्रित सुन्दर तथा सुडौल होने चाहिए।

6. जिल्द और मूल्य- पुस्तक की जिल्द मजबूत होनी चाहिए तथा मूल्य भी उचित हो जिसे मध्यम वर्ग खरीद सके।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि अन्य गुणों के समान पाठ्य पुस्तक की रूप सज्जा ऐसी होनी चाहिए कि बालक उसे अपने पास रखने में गौरव का अनुभव करें।

पाठ्य-पुस्तक के आन्तरिक गुण

(क) बालक की दृष्टि से- पाठ्य-पुस्तक में ये आन्तरिक गुण होने चाहिए-

1. उपयुक्तता- बालकों के विकास की जो भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ हैं, पाठ्य-पुस्तक उसके अनुरूप ही हो। प्रारम्भिक कक्षाओं में बालकों को अद्भुत कथाएँ; जैसे-अप्सराओं की कहानियाँ, माध्यमिक अवस्था में जीवनियाँ और जानवरों की कहानियाँ अच्छी लगती हैं। अतः पाठ्य-पुस्तकों में भी इन्हीं विषयों का समावेश होना चाहिए।

2. क्रम का होना – पाठ्य-पुस्तकों का पाठ्य विषय किसी क्रम के अनुसार होना चाहिए, जैसे-बालकों की क्रमशः बढ़ती हुई आयु के अनुसार क्रम भाषा-शैली तथा शब्दों के चयन के सम्बन्ध में भी क्रम होना चाहिए। पाठ्य-पुस्तकों की भाषा न तो अत्यन्त सरल होनी चाहिए, न अत्यन्त कठिन। वह धीरे-धीरे ‘सरलता से जटिलता’ की ओर बढ़नी चाहिए।

3. अभ्यास- जिन शब्दों को बालक पहले पढ़ चुके हैं। उनका व्यवहार आगे के पाठों में किया जाए, ताकि बालक उनसे अभ्यस्त हो जाएँ और वे इन शब्दों का प्रयोग ठीक-ठीक ढंग से कर सकें।

4. सार्थकता – पाठ्य-पुस्तकों में ऐसे वाक्य न हों, जो अलग से दिखें और जिनका आपस में कोई सम्बन्ध न हो। पाठ्य विषय में एकता होनी चाहिए और उनका विभाजन भिन्न-भिन्न अनुच्छेदों में हो। एक अनुच्छेद दूसरे अनुच्छेद से, एक वाक्य दूसरे वाक्य हो। ऐसा होने ही पाठ्य पुस्तक में सार्थकता सम्बन्धी गुण आएगा।

5. रोचकता – पाठ्य विषय ऐसा हो, जिसमें विद्यार्थी रुचि रखें। गद्य के पाठों में छोटी से और सरल कहानियाँ तथा सरल वर्णनात्मक लेख हों।

6. विषय-विविधता – पाठ्य-पुस्तकों के विषयों में विविधता होना आवश्यक है। उनमें भिन्न-भिन्न विषयों पर लेख होने चाहिए; जैसे-कहानी, नाटक, वार्तालाप, यात्रा, जीवन- इतिहास, आविष्कार इत्यादि।

7. परिमाण में कविताओं का होना- पाठ्य-पुस्तकों में यथेष्ट परिमाप में कविताएँ भी होनी चाहिए। प्रारम्भिक अवस्था में बातचीत तथा साधरण तुकबन्दी की कविताएँ रखी जाएँ। बाद में धीरे-धीरे वर्णनात्मक तथा रचनात्मक कविताओं को भी स्थान दिया जा सकता है।

8. भिन्न-भिन्न प्रदेशों से सम्बन्धित होना- जो कहानियाँ, लेख, कविताएँ इत्यादि हों उनका सम्बन्ध किसी एक प्रदेश तक ही सीमित न हो, अपितु उनमें भिन्न-भिन्न प्रदेशों तथा विदेशों के जीवन की झलक भी हो, जिससे कुछ समय के पश्चात् विद्यार्थी राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण को समझ सकें।

9. साहित्य की सभी धाराओं का समावेश पाठ्य-पुस्तकों के अन्दर साहित्य की 1 सभी धाराओं का ; जैसे-कविता, कहानी, नाटक, जीवनी, वार्तालाप, पत्र, वर्णनात्मक लेख, निबन्ध इत्यादि के दर्शन होने चाहिए, जिससे विद्यार्थी भी उनसे परिचित हो सकें।

10. मौलिकता की रक्षा- प्रायः पाठ्य-पुस्तकों के सम्पादक, किसी लेखक की रचना को या तो संक्षिप्त कर देते हैं अथवा उस रचना का वर्णन अपने शब्दों में कर देते हैं। इससे रचना की सारी मौलिकता नष्ट हो जाती है और विद्यार्थियों को लेखक की मूल रचना परिचय नहीं मिल पाता। अतएव अन्य प्रान्तीय भाषाओं की रचना को छोड़कर शेष सभी रचनाएँ मूल रूप में दी जाएँ तो अधिक अच्छा रहेगा। जहाँ पर रचनाएँ बहुत लम्बी हों वहाँ उनका कुछ अंश दिया जा सकता है।

11. रचनाओं का आकार- इस बात का ध्यान रखा जाये कि पाठ्य-पुस्तकों में जो भी रचनाएँ हों, वह इतनी बड़ी हों जो 35 अथवा 40 मिनट की अवधि में पूरी हो सकें।

(ख) पाठ्य-वस्तु की दृष्टि से पाठ्य-पुस्तक में ये विशेषताएँ होनी चाहिए-

(i) विषय-वस्तु का प्रस्तुतीकरण ज्ञात से अज्ञात की ओर तथा स्थूल से सूक्ष्म की ओर होना चाहिए। बालक को जो नवीन ज्ञान प्रदान करना हो, उसका सम्बन्ध उसके पूर्व-ज्ञान से स्थापित किया जाए। उदाहरणस्वरूप छात्रों को ‘वीर शिवाजी’ की कहानी पढ़ाना है। इसका सम्बन्ध ‘राणा प्रताप’ तथा ‘वीर दुर्गादास’ की कथाओं से किया जाए, जिनका ज्ञान वे पूर्व कक्षाओं में कर चुके हैं।

(ii) पाठ्य-पुस्तक में ऐसे पाट रखे जाएँ, जिनका सम्बन्ध अन्य विषयों से हो। छात्रों की भूगोल की पुस्तक में हिमालय का वर्णन है हिन्दी की पाठ्य पुस्तक में यह कविता पढ़ाई जा सकती है-

“खड़ा हिमालय बता रहा है

डरो न आँधी पानी से।”

छात्रों की सामाजिक ज्ञान की पुस्तक मैं रामायण की कथा दी गई है। उनकी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक में राम के जीवन का एक प्रसंग रखा जा सकता है।

(iii) पाठ्य-पुस्तक के पाठ उपदेशात्मक न हों। बालकों को कहानियाँ अच्छी लगती हैं, अतएव उन्हें जो कुछ कहना है, कहानी के माध्यम से कहा जा सकता है। ‘अहिंसा’ का भाव समझाने के लिए अंगुलीमाल की कथा रखी जा सकती है। ‘साहस’ को स्पष्ट करने के लिए ‘तेजसिंह’ का हिमालय पर चढ़ने पर पाठ रखा जा सकता है। ‘सत्य’ का पाठ युधिष्ठर की कथा से बोधगम्य हो सकता है।

(iv) पाठ्य पुस्तक की विषय-वस्तु छात्रों में जिज्ञासा जाग्रत करे। भगत सिंह के पाठ, उन्हें अन्य क्रान्तिकारियों की जीवनियाँ पढ़ने के लिए प्रेरित करेंगे।

(v) पाठ्य-पुस्तक में पाठ ऐसे हों, जो बालक की अनुभव-परिधि में हों। बालकों ने घर में भाप से ढक्कन को हिलते हुए देखा है, अतः भाप का पाठ रखा जा सकता है।

(ग) भाषा की दृष्टि से- पाठ्य पुस्तक में ये गुण होने चाहिए- (i) छोटे बालकों की पुस्तकों में सरल हिन्दी का प्रयोग किया जाए। (ii) बड़ी कक्षा की पाठ्य पुस्तकों में सन्धि युक्त तथा समासयुक्त पाठ तथा लम्बे वाक्य रखे जा सकते हैं। (iii) छोटी कक्षाओं की पाठ्य-पुस्तकों में तद्भव शब्दों का प्रयोग किया जाए, माध्यमिक कक्षाओं की पुस्तकों में अर्द्ध तत्सम् शब्द रखे जाएँ और उच्च माध्यमिक कक्षाओं की पुस्तकों में ‘तत्सम्’ शब्द रखे जा सकते हैं।

सहायक पुस्तकों के आवश्यक गुण (Important Qualities of Helping Books)

1. भाषा तथा शब्दावली – इन पुस्तकों की भाषा पाठ्य पुस्तकों से सरल होनी चाहिए तथा इनमें उन शब्दों का प्रयोग होना चहिए, जिन्हें छात्र पाठ्य-पुस्तकों में पढ़ चुके हैं। इससे उनका अभ्यास पक्का हो जाएगा।

2. विषय- पाठ ऐसे हों, जिनमें बालक रुचि लें तथा वे एक ही विषय से सम्बन्धित हों तो अधिक अच्छा रहेगा।

3. आवृत्यात्मक प्रश्न- पाठ के अन्त में ऐसे प्रश्न हों, जिनका सम्बन्ध पाठ्य विषय के सार से हो।

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