श्रवण एवं वाचन कौशल के विकास के तरीके की विवेचना करें। (Discuss the methods of listening and speaking skills)
संवाद (Dialogue)
श्रवण एवं वाचन कौशल का विकास करने में संवादों की विशेष भूमिका है। संवादों का प्रयोग अभिनय तथा नाटकों का रूपांतरण करने में किया है जाता है। कथानक को संवाद के सहारे बढ़ाया जाता है। संवाद से तात्पर्य है-वार्तालाप का विस्तार करने का तरीका। संवादों को बोलते समय वाचन कौशल का विकास होता है। संवाद को वार्तालाप के रूप में बढ़ाया जाता है। संवाद वाक्यांश, एकांकी अथवा नाटक के रूप में भी हो सकते हैं। शिक्षक कक्षा में सुनाये गये वार्तालाप के आधार पर दो-तीन छात्रों को अलग-अलग पात्रों की भूमिकाएँ बाँट देते हैं और उन्हें अपने-अपने संवाद बोलकर कक्षा में प्रस्तुत करने को कहें । टेपरिकार्डर पर भी टेप वार्तालाप सुनाया जा सकता है। अतः सुनाने के पश्चात् दो-तीन छात्रों के मध्य संवाद कराए जायें। शिक्षक किसी विषय या प्रकरण को देकर उस पर वार्तालाप करने को कह सकते हैं। संवादों के माध्यम से प्रकरण की जानकारी होती है और कथा का सार भी स्पष्ट होता जाता है।
2. कहानी कथन (Story Telling)
वर्तमान काल में मनोविज्ञान की नवीन खोजों ने शिक्षा क्षेत्र में महान् परिवर्तन ला दिया है। अब शिक्षक नहीं विद्यार्थी शिक्षा का केन्द्र विन्दु है। श्रवण एवं वाचन कौशलों के लिए बालक को जो भी ज्ञान दिया जाए, वह सरल एवं स्वाभाविक ढंग से दिया जाए ताकि बालक उसे पाने के लिए लालायित हो उठे। अतः बालक की पाठ में रुचि बनाए रखने तथा उसके श्रवण एवं वाचन कौशल के विकास के लिए कहानी-कथन का प्रयोग किया जाता है। कहानी कथन द्वारा कौशलों का विकास आदि काल से किया जा रहा है। शिक्षक को कहानी कथन के समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कहानी कहानी कथन के उद्देश्यों को पूरा करने वाली हो। कहानी का मुख्य उद्देश्य छात्रों में श्रवण तथा वाचन की योग्यता का विकास करना होता है। बोलने की योग्यता का विकास करने के लिए छात्रों से कहानी कहलवानी चाहिए तथा श्रवण शक्ति का विकास करने के लिए छात्रों को कहानी शिक्षक द्वारा सुनानी चाहिए।
कहानी कथन के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हो सकते हैं-
(i) छात्रों की श्रवण शक्ति का विकास करना।
(ii) छात्रों की बोलने की शक्ति विकसित करना।
(iii) छात्रों को स्पष्ट तथा तर्कपूर्ण ढंग से विचार करना सिखाना।
(iv) छात्रों को अपनी कल्पना शक्ति के प्रयोग के अवसर प्रदान करना।
(v) उनकी भाषा-शैली का परिष्कार करना।
कहानी की उपयोगिता
कहानी की उपयोगिता निम्न वर्णित है-
(i) कहानी वह केन्द्र बिन्दु है जो निरक्षर बच्चों के भाव-प्रकाशन से लेकर गद्य-पद्य, इतिहास, भूगोल आदि विषयों तक को बड़े रोचक ढंग से हृदयंगम करा सकती है।
(ii) बच्चे अपने होश सँभालने के समय से ही अपने माता-पिता, भाई-बहन, आदि कुटुम्बियों से कहानी सुनने के अभ्यस्त और इच्छुक हो जाते हैं। इसलिए पाठ्य-विषय को रोचक बनाने के लिए इस साधन का उपयोग करना स्वाभाविक और मनोवैज्ञानिक हैं।
(iii) बच्चों को कहानी की पुस्तकें प्रिय लगती हैं और उन्हीं को पढ़ने में वे अधिक रुचि दिखाते हैं। अत: छोटी कक्षा में किसी विषय को कहानी के माध्यम से पढ़ाना उपयुक्त है।
(iv) मनुष्य की भाँति बोलते हुए पशु-पक्षियों की कहानियों से बच्चे बड़े प्रसन्न होते हैं, अस्तु उन्हें प्रकृति-निरीक्षण का अधिक अवसर दिया जाए। इस प्रकार कहानियों से वह पशु-पक्षियों के स्वभाव, कार्य और उनके उपयोग की जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार भूगोल और विज्ञान के शिक्षण में कहानी महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकती है।
(v) कहानियों द्वारा बच्चों की रुचि जाग्रत होती है, जिज्ञासा बढ़ती है और समझ विकसित होती है।
(vi) कहानियाँ बच्चों के मनोरंजन का मुख्य साधन होती हैं। कहानियों द्वारा आदर्शों की स्थापना की जा सकती है। उन्हीं के द्वारा शिक्षक अपने शैक्षिक उद्देश्यों की पूर्ति करता हुआ बच्चों का मन जीत सकता है और इस प्रकार अनुशासन की समस्या का हल हो सकता है।
(vii) कहानी एक सम्पूर्ण वर्णन है। जब वह दृष्टिपथ में पूरी तरह समा जाती है तो उसके अवयवों को अर्थात् वाक्यों को, पहचानने में सरलता हो सकती । इस प्रकार वाक्यों के बाद शब्द और फिर अक्षरों को पहचानने में देर नहीं लगेगी। इस विधि से स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ा जा सकता है।
कहानी का चयन
कहानी कहना एक कला है। शिक्षक को सतर्क रहकर कहानी को उपयोगी बनाने के लिए ऐसी कहानी का चयन करना चाहिए जो बच्चों की आयु, योग्यता, क्षमता, रुचि एवं ग्रहण-शक्ति के अनुसार हो। कहानी ऐसी हो, जो बालकों के वर्तमान जीवन से तथा उनके चारों ओर दिखाई पड़ने वाले वातावरण से सम्बद्ध हो जिसमें उनके निजी अनुभवों का पुट हो। मानव जीवन की गहन समस्याओं से उनका कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए, परंतु उनमें कार्य-व्यापार का होना अनिवार्य है। ऐसी न हो जिससे ‘भयानक, वीभत्स तथा रौद्र रस का संचार छात्रों के हृदय में हो जाए। बच्चों का हृदय बड़ा कोमल और भावुक होता है। अतः मृत्यु मारकाट, दुःख जैसे भावों से युक्त कहानियों के स्थान पर हास्य-विनोद, मनोरंजन, उत्साहवर्द्धन, भयरहित एवं शिक्षाप्रद कहानियों द्वारा ही उनका हित सम्भव है।
कहानी सुनाने वाले की विशेषताएँ-कहानी सुनाने वाले को स्वयं उस कहानी में रुचि लेनी चाहिए, तभी वह बालकों की श्रवण शक्ति का विकास कर सकता है। कहानी कथन इस प्रकार का होना चाहिए जिससे वह छात्रों के मर्म को स्पर्श कर सके, तभी वह उचित स्थायी संस्कार उनके हृदयों पर डाला जा सकता है।
कहानी सुनाते समय शिक्षक की दृष्टि के सामने दृश्यों का स्मृति-चित्र रहना चाहिए जिन्हें वह स्वाभाविक गति से सुना सके। उनकी गति न बहुत तीव्र हो, न बहुत मन्द। शिक्षक को एक कुशल अभिनेता होना चाहिए। स्वर, अंग-संचालन, भाव-भंगिमा आदि भावों के अनुसार स्वाभाविक गति से होनी चाहिए अन्यथा वह विदूषकत्व की श्रेणी को पहुँच जाएगा। कहानी सुनाते समय आलंकारिक भाषा का प्रयोग छात्रों की रुचि में बड़ा व्यवधान करता है। अतः कहानीकार की भाषा धारावाहिक, मुहावरेदार और बोधगम्य होनी चाहिए। साथ ही शिक्षक स्वयं विनोदप्रिय हों जिससे विनोदात्मक तथा व्यंग्यात्मक भाषा से कहानी में सरलता आ जाए, परंतु वह व्यंग्य किसी को दुःखी अथवा अपमानित करने वाला न हो।
कहानी कहने में शिक्षक को इतना आत्मविभोर भी नहीं हो जाना चाहिए कि छात्रों का ध्यान ही न रहे। अपितु कहानी से सम्बन्धित छोटे-छोटे प्रश्न भी पूछते रहना चाहिए। कहानी सुनने के बाद बालकों से निष्कर्ष निकलवाना श्रेयस्कर है। शिक्षक को कहानी की कथावस्तु का भी पूर्ण ज्ञान होना चाहिए तभी छात्रों के श्रवण एवं वाचन कौशलों का उचित प्रकार से विकास होना सम्भव है।
3. कविता पाठ (Poem Recitation)
श्रवण एवं वाचन कौशलों का विकास कविता के माध्यम से किया जा सकता है। साहित्य के आचार्यों ने रसात्मक वाक्य को ही कविता कहा है। कविता पढ़ाने का लक्ष्य भाषा सिखाना नहीं है, कविता के अध्ययन का लक्ष्य आनन्द की प्राप्ति है। कविता पाठ में शिक्षक और छात्र मिलकर इसी आनंद की खोज करते हैं और उसकी उपलब्धि ही पाठ का ध्येय होता है। कविता पाठ में अर्थ और व्याख्या आदि भाषा सम्बन्धी कार्य भी होता है। शिक्षक को चाहिए कि व्याख्या सम्बन्धी आवश्यक कार्य में यथोचित समय लगाकर रसानुभूति की ओर उन्मुख हो जाए।
कविता चयन
श्रवण एवं वाचन कौशल के विकास के लिए कविता का चुनाव करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-
(i) संकलित कविताओं के रस और सौन्दर्य का आस्वादन छात्र सहज रूप से कर सकें। इसमें शिक्षक की थोड़ी-सी सहायता की आवश्यकता हो।
(ii) हिन्दी के प्रमुख प्राचीन और नवीन कवियों और काव्य धाराओं का परिचय दे सकें।
(iii) संकलित कवियों की यथासम्भव प्रतिनिधि रचनाएँ हों।
(iv) खड़ी बोली के अतिरिक्त हिन्दी की अन्य साहित्यिक बोलियों का भी प्रतिनिधित्व करें।
(v) छात्रों के चरित्र को उदात्त बनाने वाली हो।
(vi) विभिन्न रसों, अलंकारों, छन्दों और काव्य शैलियों का परिचय दे सके।
(vii) छात्रों की जीवन दृष्टि को विशाल और उनकी अनुभूति और संवेदनशीलता को विस्तृत और गहरा बना सके।
(viii) उनमें सृजनशीलता का विकास करें।
(ix) कछ अपवादों को छोड़कर आकार में इस प्रकार की हों कि उन्हें एक या दो पीरियड में पढ़ाया जा सके।
कविता शिक्षण के उद्देश्य
कविता कल्पना और मनोवेगों द्वारा जीवन की व्याख्या करती है। उसकी वृत्ति रागात्मक होती है। वह मानव, प्रकृति या जड़ तीनों से भाव ग्रहण कर मार्मिक हृदयगामी रूप से सत्य और आनन्द की व्याख्या को प्रयत्न करती है। अत: कविता का लक्ष्य काल्पनिक और भाव जगत् में विचरण करने का साधन प्रस्तुत करता है। कविता के द्वारा वाचन की प्रवृत्ति का सरलता से विकास किया जा सकता है। कविता पढ़ा समय अत्यधिक व्याख्या, शब्दार्थ, व्याकरण आदि का स्पष्टीकरण करने की विशेष चिन्ता नहीं करनी चाहिए क्योंकि इससे रसानुभूति में व्याघात उपस्थित होता है, लेकिन कहीं-कहीं कविता के अर्थ को समझने एवं रसानुभूति के लिए अर्थ का बताना आवश्यक हो जाता है, परंतु केवल उन्हीं शब्दों का स्पष्टीकरण करना चाहिए, जिनके द्वारा रसानुभूति एवं आनन्दोपलब्धि में बाधा उपस्थित होती है । कविता शिक्षण के समय शिक्षक को ऐसा वातावरण उपस्थित करना चाहिए जिससे छात्रों के श्रवण तथा वाचन कौशल का उचित प्रकार से विकास हो सके।
कविता के द्वारा वाचन कौशल वृद्धि – कविता के माध्यम से वाचन कौशल बढ़ाने के लिए शिक्षक छात्रों से कविताएँ, शुद्ध उच्चारण, हाव-भाव और भावों के अनुसार सुन सकते हैं। कविताओं का सामूहिक रूप से सस्वर पाठ भी करा सकते हैं। शिक्षक पढ़ायी गयी कविता आदि पर छात्रों से प्रश्न पूछ सकते हैं। उत्तर देते समय छात्रों की उच्चारण सम्बन्धी त्रुटियों को नोट करें तथा बाद में उनका उच्चारण अभ्यास कराएँ । स्वयं शुद्ध उच्चारण करें और छात्रों से वैसा ही बोलने को कहें। ऐसो शब्दों के जोड़े बनाएँ, जिनकी ध्वनियों में बालक प्रायः त्रुटि करते हैं, जैसे-बन-वन, हंस-हँस, साखा शाखा, घोरा-घोड़ा, और-और एवं सड़क-सरक आदि। छात्रों से शिक्षक इस प्रकार के शब्दों को बोलने का अभ्यास करा सकते हैं।
4. लघु नाटिका (Short Play)
लघु नाटिका भी काव्य का एक अंग होती है। काव्य के दो भेद होते हैं-श्रव्य और दृश्य। श्रव्य काव्य केवल कर्ण सुखद होता है। दृश्य काव्य नाटक है, जो कानों तथा नेत्रों दोनों को सुख देता है। लघु नाटिका छोटे-छोटे नाटक होते हैं यह सटीक, स्पष्ट तथा सारगर्भित होते हैं। लघु नाटिका का उद्देश्य साधारण जनता के लिए तो मनोरंजन ही होता है परंतु इनका उद्देश्य केवल इतना ही नहीं होता है।
लघु नाटिका के उद्देश्य
(i) जीवन में मनुष्य के समक्ष जो-जो परिस्थितियाँ आती हैं, जिन-जिन दशाओं से होकर उसे गुजरना पड़ता है अथवा जो-जो मानसिक अवस्थाएँ होती हैं, उन सभी का ज्ञान छात्रों को कराना।
(ii) मानव स्वभाव के अध्ययन द्वारा मानव चरित्र को समझना।
(iii) लघु नाटकों से हमें यह ज्ञात हो जाता है कि किन अवसरों पर कैसा आचरण और उनकी बातचीत का ढंग क्या था?
(iv) बोलने एवं सुनने के कौशल विकास में भाव अभिव्यक्ति का विशेष महत्त्व है । इसका तात्पर्य है कि बालक का उच्चारण तथा बोलने का ढंग ठीक-ठीक हो। यह सब कुछ लघु नाटक के द्वारा ही सम्भव है।
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