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कक्षा-कक्ष में शिक्षक की भूमिका | Role of Teacher in Class-room in Hindi

कक्षा-कक्ष में शिक्षक की भूमिका
कक्षा-कक्ष में शिक्षक की भूमिका

कक्षा-कक्ष में शिक्षक की भूमिका (Role of Teacher in Class-room)

कक्षा में शिक्षक की भूमिका अधोलिखित प्रकार समझी जा सकती है-

1. पाठ्य विषय की पूर्ण तैयारी करना- शिक्षक की महत्त्वपूर्ण भूमिका उसके शिक्षण होती है। जिस भी पाठ्य सामग्री को वह पढ़ाने जा रहा है उस पाठ्य विषय का उसे भली प्रकार ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए। पाठ्य विषय को पढ़कर उसके छोटे-छोटे नोट्स के रूप में पोइण्ट तैयार करके ही कक्षा-कक्ष में प्रवेश करना चाहिए। पाठ्य-विषय को भली प्रकार तैयारी के अभाव में वह कक्षा-कक्ष में प्रभावी शिक्षण प्रदान करने में असफल रहेगा।

2. पाठ को सुचारु रूप से पढ़ाना- शिक्षक को कक्षा-कक्ष में पढ़ाये जाने वाले पाठ को भली प्रकार समझकर उसे सुचारु रूप से पढ़ाना चाहिए । शिक्षक का महत्त्वपूर्ण कर्तव्य छात्रों को ज्ञान प्रदान करना है। अतः ज्ञान प्रदान करने के लिए यह आवश्यक है कि उसे सम्पूर्ण पाठ्य-सामग्री सार रूप में आत्मसात् हो तभी वह उसका स्थानान्तरण अपने छात्रों को कर पाएगा। अतः शिक्षक का यह दायित्व है कि वह पाठ को सुचारु रूप से पढ़ा सके। इस प्रकार की क्षमता उनमें होनी चाहिए और कक्षा-कक्ष में यही उसकी भूमिका है जिसे उसे निर्वाह करना चाहिए।

3. छात्रों में शिक्षा के प्रति लालसा उत्पन्न करना- शिक्षक की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका छात्रों में शिक्षा के प्रति लालसा उत्पन्न करना, उनका उत्साह बढ़ाना तथा उन्हें प्रेरित करना भी है। छात्र तभी शिक्षा ग्रहण करने के लिए अभिप्रेरित होते हैं, जब उनके मन में शिक्षा के प्रति रुझान तथा लालसा होती है। ज्ञान के प्रति प्रेम उत्पन्न करके ही शिक्षक छात्रों को ज्ञानार्जन के लिए अभिप्रेरित कर सकता है। शिक्षा के प्रति रुझान उत्पन्न करने के लिए शिक्षा की उपयोगिता छात्रों को बताना आवश्यक है । इसके लिए शिक्षक को छात्रों की समस्याओं से भी अवगत होना चाहिए तथा किस शिक्षा से उन्हें क्या फायदा हो सकता है, इसके बारे में भी बताना चाहिए। छात्रों को उत्साह बढ़ाने के लिए किस प्रकार की शिक्षा उन्हें कैरियर में कितना लाभ पहुँचा सकती है, इस बात से भी अवगत कराना चाहिए। व्यावसायिक शिक्षा के विषय में भी वार्ता की जा सकती है और इस प्रकार उत्साह बढ़ाकर उन्हें अभिप्रेरित किया जा सकता है।

4. दृश्य-श्रव्य साधनों का सदुपयोग करना- शिक्षक को दृश्य-श्रव्य साधनों का सदुपयोग करना भी आना चाहिए। शिक्षण को अधिक प्रभावी बनाने में श्रव्य दृश्य साधनों के प्रयोग पर शिक्षक को बल देना चाहिए। सहायक सामग्री के प्रयोग प्रभावशाली तथा रोचक बनाया जा सकता है। दृश्य-श्रव्य साधनों के प्रयोग से बालकों की पाठक को ज्ञानेन्द्रियाँ बहुत जागरूक होती हैं। दृश्य अर्थात् देखने से सम्बन्धित और श्रव्य अर्थात् सुनने से सम्बन्धित कार्य बालक प्रारम्भ से ही करता है। चलचित्र, संग्रहालय, अजायबघर आदि इसी शिक्षा व्यवस्था में आते हैं। यहाँ बालक देख-सुनकर उस वस्तु या जीव के बारे में जानते हैं। शिक्षक कठिन शब्दों या स्थलों का स्पष्टीकरण करने के लिए मौखिक उदाहरणों की सहायता ले सकते हैं। मौखिक रूप से शब्द-चित्र प्रस्तुत करने वाले साधनों को मौखिक उदाहरण कहा जाता है। जिन सामग्रियों के प्रयोग से छात्र सुनकर मन में शब्द-चित्र का निर्माण करता है और दुरूह स्थल को समझता है, उन उपकरणों को श्रव्य उपकरण का जाता है कुछ साधन दृश्य होते हैं। इन साधनों को देखकर शब्द, अर्थ या भाव को समझा जाता है। श्रव्य उपकरणों में श्रवणेन्द्रिय का प्रयोग है तो दृश्य उपकरणों को साक्षात् नेत्रों से देखा जाता है। कुछ उपकरण ऐसे होते हैं, जो दृश्य-श्रव्य दोनों होते हैं। ऐसे उपकरण बहुत कम हैं, श्यामपट्ट चार्ट, पोस्टर आदि दृश्य उपकरण हैं। रेडियो, ग्रामोफोन आदि श्रव्य उपकरण हैं। टेलीविजन, अभिनय आदि कुछ श्रव्य दृश्य दोनों हैं। शिक्षक को इन सभी उपकरणों को चलाने का कौशल आना चाहिए। अध्यापक का दायित्व है वह श्यामपट्ट का प्रयोग करे तथा पाठ को रोचक बनाने के लिए चित्रों का प्रयोग करना भी शिक्षक को चाहिए। शिक्षण को प्रभावी बनाने के लिए शिक्षक को चार्ट तथा पोस्टरों के माध्यम से भी शिक्षण की प्रक्रिया आगे बढ़ानी चाहिए। शिक्षण को प्रभावी बनाने के लिए शिक्षक को रेखाचित्र, मानचित्र, लिंग्वाफोन तथा ग्रामोफोन, रेडियो, टेपरिकार्डर आदि सहायक सामग्रियों का प्रयोग करना भी आना चाहिए।

5. अपने विषय का पूर्ण ज्ञान अर्जित करना- शिक्षक को अपने विषय के समस्त क्षेत्रों तथा उससे सम्बन्धित अन्य क्षेत्रों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। प्रत्येक विषय के विभिन्न क्षेत्र एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं। यदि शिक्षक किसी विषय के एक क्षेत्र को पढ़ाता है तो वह अपना कार्य तब तक दक्षता के साथ नहीं कर सकता, जब तक कि उसे उस विशेष के विभिन्न क्षेत्रों का ज्ञान न हो। उदाहरण के लिए गणित विषय को ले लीजिए। यदि शिक्षक को अंकगणित का सही ज्ञान नहीं है तो वह रेखागणित को कदापि उचित रूप से नहीं पढ़ा सकता है शिक्षक को अपने विषय के विभिन्न क्षेत्रों का ही ज्ञान नहीं होना चाहिए, बल्कि उसके लिए उससे सम्बन्धित अन्य विषयों का ज्ञान भी अनिवार्य है। उदाहरण के लिए, एक विज्ञान के अध्यापक को ले लीजिए। विज्ञान विषय से अनेक विषय, जैसे – इतिहास, गणित, भूगोल, संगीत, भाषा आदि सम्बन्धित हैं। यदि विज्ञान के शिक्षक को इन सम्बन्धित विषयों का उचित ज्ञान नहीं है तो वह कदापि एक अच्छा शिक्षक नहीं बन सकता है।

वास्तव में देखा जाए तो अनेक शिक्षकों को स्वयं विषय सम्बन्धी प्रत्ययों का सही ज्ञान नहीं होता और इसके फलस्वरूप छात्रों में भी ज्ञान का अभाव रहता है। अध्यापक सैद्धान्तिक रूप से बातों को जानते हैं परंतु व्यावहारिक रूप में उनका प्रयोग नहीं कर पाते हैं। यदि शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को व्यावहारिक जीवन की समस्याओं का हल करवाना है तो शिक्षकों को चाहिए कि पहले स्वयं विषय ज्ञान को व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करना सीखें। अतः शिक्षक को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान अर्जित करना चाहिए।

6. व्यवसाय में दक्षता अर्जित करना- एक अच्छे शिक्षक को अपने व्यवहार में दक्षता अर्जित करनी चाहिए। शिक्षक को शिक्षण विधि में, पाठ सूत्र निर्माण में तथा प्रश्न पूछने में उसे निपुण होना चाहिए। विषय ज्ञान का होना एक बात है तथा उस ज्ञान को सही रूप में छात्रों तक पहुँचाना दूसरी बात है। यदि एक शिक्षक अपने विषय में दक्षता अर्जित कर लेता है, तो इसका यह अर्थ है कि वह अपने व्यवसाय में भी दक्ष है। हाँ अपने व्यवसाय दक्ष होने के कारण उसे अपने विषय का विद्वान् भी होना चाहिए। पढ़ाना एक कला और इस कला में दक्ष होने के लिए एक अच्छे प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। शिक्षक को अपने व्यवसाय में दक्ष होने के लिए कक्षा में पढ़ाने से पूर्व पाठ-वस्तु का एक पाठ-सूत्र बना लेना चाहिए ताकि वह उसे संगठित रूप से पढ़ा सके। उसे कुछ-कुछ ऐसे प्रश्नों को पहले से सोच लेना चाहिए जिन्हें पाठ के सम्बन्ध में कक्षा में पूछा जा सकता है तभी वह सफलता के साथ कक्षा में पढ़ा सकता है। कक्षा में शिक्षक को सक्रिय होना चाहिए। उसे श्यामपट्ट पर चित्र खींचने अथवा लिखने का सही अभ्यास होना चाहिए शिक्षक को चाहिए कि वह आवश्यकतानुसार अपनी शिक्षण विधि में परिवर्तन करे अन्यथा पाठ नीरस हो जाएगा। शिक्षक को कक्षा में आत्मविश्वास के साथ पढ़ाना चाहिए। उसे बालकों के प्रश्नों का सहानुभूति के साथ उत्तर देना चाहिए। शिक्षक में समस्याओं का हल करने की क्षमता होनी चाहिए।

7. व्यक्तिगत विभिन्नताओं का ज्ञान अर्जित करना- इस मनोवैज्ञानिक युग में बालक को केन्द्र मानकर शिक्षा देना हमारा दायित्व माना जाता है। चूँकि बालकों में व्यक्तिगत विभिन्नता होती है इसलिए शिक्षक का यह दायित्व है कि वह बालकों के शारीरिक, मानसिक स्तर को देखकर उनको शिक्षा दे। शिक्षक को चाहिए कि वह विभिन्न बालकों के स्वभाव, आवश्यकता, बुद्धि स्तर, रुचि तथा अभिरुचि को भली-भाँति समझे और उनको उनके उपयुक्त विषय का ज्ञान दे। इसके लिए उसे मनोविज्ञान का ज्ञान होना आवश्यक है। यदि छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नता पर ध्यान न दिया जाए तो हमारे शिक्षण कार्य का महत्त्व समाप्त हो जाएगा। अध्यापक को पिछड़े हुए बालकों की परिसीमाओं को समझना और उनसे सहानुभूतियों व्यवहार करना आवश्यक है, अन्यथा वे कभी भी प्रगति नहीं कर सकते हैं। छात्रों की रुचि तथा अभिरुचि के आधार पर शिक्षक को उन्हें मार्ग-प्रदर्शन कराना चाहिए।

शिक्षक को नवीन प्रकार की मूल्यांकन प्रविधियों की जानकारी भी अर्जित करनी चाहिए। इन्हीं प्रविधियों के सहायता से वह छात्रों को वास्तविक प्रगति के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त कर सकता है। उसे नवीन प्रकार की साफल्य परीक्षाओं, बुद्धि परीक्षाओं, अभिरुचि परीक्षाओं, व्यक्तिगत परीक्षाओं की भी जानकारी होनी चाहिए। इन्हीं परीक्षाओं के परिणामों के आधार पर वह सामूहिक आलेख-पत्रों को सही तरीके से भर सकता है जिससे छात्रों के मूल्यांकन में सहायता मिलती है।

8. बालकों के साथ सहानुभूति एवं धैर्य से पेश करना – शिक्षक की कक्षा-कक्ष में भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण होती है। उसे अपने छात्रों से प्रेम करना चाहिए तथा उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करनी चाहिए। उसे सभी छात्रों के साथ प्रेम एवं सहानुभूति के साथ व्यवहार करना चाहिए। उसे निष्पक्ष भाव से सभी छात्रों से व्यवहार करना चाहिए तभी छात्र शिक्षक का सम्मान करेंगे।

एक अच्छे शिक्षक को सहानुभूति के साथ-साथ धैर्य एवं सहनशीलता भी व्यक्त करनी चाहिए। उसे शीघ्र बात-बात पर क्रोध प्रकट नहीं करना चाहिए। जो शिक्षक शीघ्रता से धैर्यहीन होकर बात-बात पर क्रोधित होकर छात्रों को दण्ड देते हैं, वे कभी भी बालकों को उचित शिक्षा प्रदान नहीं कर सकते हैं। कभी-कभी किसी विषय में छात्रों का ज्ञान कम होता है, वे बच्चे जब सही उत्तर नहीं दे पाते हैं और शिक्षक बार-बार उन पर क्रोधित होता है, तो उन बच्चों की उस विषय से ही अरुचि उत्पन्न हो जाती है तथा शिक्षक व संस्था के प्रति भी बच्चों की श्रद्धा कम हो जाती हैं। कुछ शिक्षक अपने स्वास्थ्य की निर्बलता के कारण भी सदैव क्रोधित हो जाते हैं। छोटी-छोटी बातों पर वे चिढ़ जाते हैं। ऐसे शिक्षक अपने व्यवसाय में सफल नहीं हो पाते हैं। शिक्षक को सदैव छात्रों को अपने भाव प्रकट करने का अवसर प्रदान करना चाहिए। शिक्षक को छात्रों की त्रुटियों पर क्रोधित न होकर उनकी त्रुटियों के कारण का निदान कर उसका उपचार करना चाहिए।

9. सह-पाठ्यक्रमीय क्रियाकलापों में रुचि लेना- वर्तमान काल में हमारे देश के विद्यालयों में कक्षा अध्ययन के साथ-साथ कुछ अन्य कार्यक्रम भी आयोजित होते रहते हैं, जैसे-वाद-विवाद, संवाद, कविता पाठ, संगीत, नृत्य, अभिनय, झाँकियाँ, कौतूहल, कौतुक क्रीड़ाएँ आदि और समय-समय पर इनकी प्रतियोगिताएँ भी। इन्हें साहित्यिक, सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ कहा जाता है। ये कार्यक्रम कुछ विद्यालयों में तो पाठ्यक्रम के ही अंगभूत हैं। इससे वे वहाँ पर्यापत प्रभावोत्पादक एवं उपयोगी होते हैं। कुछ ऐसे विद्यालय भी हैं जहाँ ये यथासम्भव सम्यक् होते हैं, वहाँ उन्हें शास्त्रीय स्थान प्राप्त नहीं होता है, केवल कुछ प्रवृत्तियों के कार्यक्रमों को ही मान्यता है, तो कुछ ऐसे विद्यालय भी हैं जहाँ प्रवृत्तियों में कोई विश्वास ही नहीं, केवल जनता तथा शिक्षा विभाग की दृष्टि से अपने को नितांत रूढ़िवादी अप्रगतिशील कहे जाने से बचने को तथा छात्रों की माँग को आंशिक संतोष देने मात्र के लिए कुछ कर लिया जाता है आज के प्रत्येक गतिशील शिक्षा प्रेमी को किसी विद्यालय में इन प्रवृत्तियों का न होना बहुत अखरेगा। उनका इनमें विश्वास न होना तो उसे और भी खटकेगा। यह बात आश्चर्यजनक तथा उस विद्यालय के अप्रगतिशील, प्रतिगामी, कुण्ठित मस्तिष्क ही का प्रतीक होगी। यह कामना करेगा कि प्रत्येक विद्यालय इन प्रवृत्तियों को परम निष्ठापूर्वक अपनाए, उनका उन्नयन करे।

यह तभी सम्भव है जब शिक्षक इसमें रुचि लें। कुछ अध्यापक सह-पाठ्यक्रमीय क्रियाकलापों में बिल्कुल भी रुचि नहीं रखते हैं और कुछ बहुत अधिक रखते हैं। आखिर क्यों, शिक्षकों का एक वर्ग विश्वासी है और दूसरा सर्वथा अग्राही है। इसका उत्तर भी स्पष्ट है। आज की शिक्षाशास्त्रीय प्रगति, शिक्षा का सर्वथा युग पाठ्यक्रम के पाठ्येतर प्रवृत्तियों से सर्वथा अविच्छेद्य अन्योन्याश्रित सम्बन्ध के विचार को हार्दिक मान्यता, इन्हें तथा पाठ्यक्रम को परस्पर पूरक और इनके विभाजन एवं प्रवृत्तियों की उपेक्षा को नितांत जिसमें अवांछनीय प्रतिगामी कार्य मानना । इसीलिए इस सिद्धांत को स्वीकार करने वाले परम निष्ठापूर्वक दृढ़ विश्वास के साथ इनका सुआयोजन करते हैं, जबकि अविश्वास के कारण अमान्य करने वाले इनकी सर्वथा उपेक्षा।

सफल शिक्षक वही माना जाता है जो इन क्रियाओं में विशेषकर क्रिया-कलापों में रुचि है। ऐसा शिक्षक अवसर आने पर साहित्यक पाठ्यक्रमेत्तर कार्यों का भी भली प्रकार आयोजन कर सकता है और छात्रों तथा विद्यालय की दृष्टि से एक सफल शिक्षक कहलाने का अधिकारी बन सकता है। इस प्रकार देखा जाए तो शिक्षक की भूमिका कोई सरल कार्य नहीं है। इसमें शिक्षकों को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता होती है तथा कुछ गुण उनमें जन्मजात भी होते हैं और कछ गुणों का उन्हें प्रशिक्षण लेने की आवश्यकता होती है प्रशिक्षण महाविद्यालयों में छात्रों को प्रशिक्षण देने से पूर्व यह देखना चाहिए कि उनमें शिक्षण कार्य करने की क्षमता है या नहीं और वह शिक्षण सम्बन्धी अपनी भूमिका का निर्वाह किस प्रकार करते हैं।

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