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तुलसीदास जी के काव्य में लोकमंगल की भावना

तुलसीदास जी के काव्य में लोकमंगल की भावना
तुलसीदास जी के काव्य में लोकमंगल की भावना

तुलसीदास जी के काव्य में लोकमंगल की भावना

भूमिका– गोस्वामी जी को लेक का विराट अनुभव था। वे अनुभव सुखद भी थे और दुखद भी, सामान्य भी थे, असाधारण भी, क्षणिक भी थे और शाश्वत् भी। उन्होंने लौकिक परिस्थितियों को भोगा भी और चित्रित भी किया। यद्यपि वे भक्ति-काल के कवि थे और उस युग में, काव्य अलौकिकता प्रधान था, तथापि उन्होंने अलौकिक ब्रह्म को अपने काव्य के माध्यम से लोक की धरती पर उतार लिया था । इतना ही नहीं उस ब्रह्म को तुलसी ने लोक की विविध परिस्थितियों में डालकर दिखाया भी । तुलसी *का लोकनायकत्व, तुलसी का समन्वयवाद, तुलसी के नीति-कथन और यहाँ तक की तुलसी का धर्म-दर्शन भी उनके लोकानुभव से पुष्ट है ।

लोकानुभव की अभिव्यक्ति के प्रकार- तुलसी ने अपने काव्य में लोकानुभव की अभिव्यक्ति मुख्यतः तीन प्रकार से की है

(क) आत्म परिचयात्मक कथन – विनय-पत्रिका एवं कवितावली की मात्र कुछ पंक्तियों में ही तुलसी ने अपने विषय में कुछ सूचनाएं दी हैं । इन कथनों में प्रत्यक्ष लोकानुभूति ध्वनित होती है। माता-पिता द्वारा परित्यक्त अनाथ बालक के बाल्यावस्था के कष्टों का प्रत्यक्ष अनुभव इस प्रकार के लोकानुभव का अंग रहा है यथा-

जननी-जनक जनमि तज्यौ, करम बिनु विधिहु सृज्यौ अवडेरे।

(ख) नीति कथन- लोकानुभव का दूसरा प्रकार तुलसी के नीति कथनों में प्राप्त होता है। तुलसी-साहित्य में नीति-कथन भरे पड़े हैं। इस दृष्टि से रामचरितमानस और दोहावली उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। कवितावली विनय-पत्रिका, वैराग्य-संदीपनी तथा बरवै रामायण में कहीं-कहीं उपदेशात्मक नीति-कथन मिलते हैं। तुलसी के ये नीति-कथन लोकानुभव द्वारा निर्धारित और कथित जान पड़ते हैं।

कूप खनत मन्दिर जरत, आए धारि बवूर ।

बवहिं, नवहिं निज काज सिर, कुमति- सिरोमनि कूर।।- दोहावली

(ग) घटना-प्रसंग और पात्रों का कार्य-व्यापार- लोकानुभव का तीसरा प्रकार घटना प्रसंगों के वर्णन, पात्रों के कार्य-व्यापार चित्रण और कभी-कभी तटस्थ वर्णनों में प्राप्त होता है। परिवेश की दृष्टि से यह प्रकार सबसे व्यापक है। गोस्वामी जी ने इस प्रकार लोकानुभूतियों का रचनात्मक उपयोग अपने पात्रों को जीवन के विविध कार्य-कलापों में संलग्न दिखाते हुए किया है। उक्त सभी प्रकारों में लोकानुभव की लगभग सभी स्थितियाँ समाविष्ट हो जाती हैं। इन सबको सम्मिलित रूप से ग्रहण करते हुए तुलसी में लोकानुभव का परिचय प्रस्तुत है।

सामाजिक क्षेत्र में लोकानुभव (सामाजिक आदर्श)- लोक और सामाजिक भाग समानार्थी हैं। अतएव तुलसी के समस्त अनुभवों को हम लोकानुभव की सीमा में समेट सकते हैं। डॉ. राजपति दीक्षित ने लिखा है “तुलसी के सामाजिक लोकानुभव को हम निम्नलिखित शीर्षकों में विवेचित कर सकते हैं।

(क) संस्कारों और तत्सम्बन्धी रीति-रिवाजों से परिचय – हिन्दू जीवन में संस्कारों के अन्तर्गत जीवन के अनेक परम्पराश्रित कार्य-कलाप आ जाते हैं। मनुष्य के सोलह संस्कार शास्त्रसम्मत होते हुए भी लोक-जीवन में ग्राह्य हैं । तुलसी ने इन संस्कारों को देखा और सुना था, जिसका उपयोग उन्होंने अपने कुछ पात्रों के सम्बन्ध में किया है। राम तथा उनके भाइयों के कई संस्कारों- जैसे जातकर्म, नामकरण, चूड़ाकरण, यज्ञोपवीत, विद्यारम्भ आदि के बारे में उन्होंने यथा प्रसंग अंगुलि-निर्देश किया है; यथा-

(1) नन्दी मुख सराध करि जात करम सब कीन्ह ।

हाटक धेनु बसन मनि, नृप विप्रन्ह कहँ दीन्ह ।।

(2) नाम करन कर अवसर जानी। भूप बोलि पठए मुनि ज्ञानी ।

घरे नाम गुरु हृदय विचारी । वेद तत्त्व नृप तब सुतचारी ।

शिव-पार्वती तथा राम-सीता के विवाह-प्रसंग में पाणिग्रहण का विस्तृत उल्लेख लौकिक रीति-रिवाजों के साथ किया गया है। मानस में ये दोनों विवाह सविस्तार वर्णित हैं। इसके अतिरिक्त पार्वती-मंगल में शिव-पार्वती का तथा जानकी-मंगल में राम-सीता का विवाह वर्णन और भी विस्तार से हुआ है। तीनों रचनाओं में विवाह-प्रसंगों के वर्णन में तुलसी ने अपने लोकानुभव का भरपूर सहारा लिया है; यथा-

(1) बारात प्रस्थान- यहि विधि कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना।

(2) आगवानी- नियरानि नगर बरात हरषी लेन अगवानी गए।

(3) जनवासा – अति आतुर दीन्हें जनवासा। जहँ सब कहँ सब भाँति सुपासा।

(4) परिछन- मंगल आरति साजि बरहिं परिछन चली।

(5) जेवनर और मंगल गारी-

भाँति अनेक भई जेवनारा सूप शास्त्र जसु कछु व्यवहारा।।

नारि वृन्द सुर जेवत जानी। लगी देन गारी मृदु बानी ।।

(ख) लोक-प्रकृति का ज्ञान- गोस्वामी जी को लोक-प्रकृति का गम्भीर ज्ञान था। नारी के उत्कृष्ट और निकृष्ट दोनों रूपों के बारे में तुलसी का अपना अनुभव था। उत्कृष्ट नारी कन्या के रूप में शील-संकोचमयी होती है। हृदय से किसी को वरण करके भी वह मर्यादा की सीमा तोड़ नहीं सकती। इस रूप का प्रतिनिधित्व करती है। वधू के रूप में उत्कृष्ट नारी पति-परायणा होती है। चित्रकूट में जनक के आने पर सीता माता-पिता से मिलने जाती हैं, किन्तु जैसे-जैसे रात्रि होती जाती है, उनका संकोच बढ़ता जाता है कि यहाँ रात्रि-निवास उचित नहीं है।

कहत न सीय सकुचि मन माहीं । इहाँ बसब रजनी भल नाहीं ।।

तुलसी ने नारी की दुर्बलताओं की ओर भी संकेत किया है। अधिकार-लोभ के कारण तथा व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कैकेई ने लोकहित को क्षति पहुँचाई है। मंथरा तो त्रिया चरित्र में दक्ष है। वह कैकेई की बात का उत्तर नहीं देती, उसाँसे लेती है और त्रिया-चरित्र करती हुई आँसू गिराती है-

उतरु देइ न लेइ उसासू । नारि चरित करि ढारइ आँसू ।।

(ग) लोक दशा का वर्णन- अपने युग की गिरती हुई दशा का चित्रण तुलसी ने अपने ग्रंथों में किया है। कलियुग-वर्णन में तुलसी ने चिन्तनीय लोकदशा का स्पष्ट चित्र खींचा है।

कलि मल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सट् ग्रन्थ |

दभिन्ह निज मति कल्प करि प्रगट किए बहु पंथ ।।

कवितावली के उत्तरकाण्ड में तुलसी ने इसी प्रकार युग के अधःपतन, अकाल और दुखावस्था का उल्लेख किया है।

किसबी किसान कुल बनिक भिखारी भाट,

चाकर चपअ नट चोर चार चेर की।

ऊँचे नीचे करम धरम अधरम करि,

पेट ही को पचत बेंचत बेटा बेट की।।

(घ) लोक-शिष्टाचार एवं लोकादर्श तथा उत्तमोत्तम लोक की कल्पना- तुलसी के अनुभव जगत में जहाँ एक ओर लोक का यथार्थ और दुर्बल पक्ष है, वहीं दूसरी ओर आदर्श और उदात्त पक्ष भी हैं। अपने इस अनुभव को उन्होंने सत्पात्रों के चरित्र पर घटित किया है। विश्वामित्र दशरथ के यहाँ पहुँचते हैं तो दशरथ समाज के साथ उनकी आगवानी करते हैं, उन्हें दण्डवत् करते हैं, आसन प्रदान करते हैं तथा चरण प्रक्षालन और पूजन कर अपने को धन्य मानते हैं। चारों पुत्रों को मुनि के चरणों में नमन करवाते हैं।

मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै विप्र समाजा ।।

करि दण्डवत मुनिहि सनमानी । निज आसन बैठारेहि आनी ।।

चरन पखारि कीन्ह अति पूजा । मों सम धन्य आज नहिं दूजा ।।

मुनि चरननि मेले सुतचारी । राम देखि मुनि बिरति बिसारी ।।

जनक की सभा में परशुराम के आने पर सभी राजागण अपना परिचय देते हैं-

पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा ।।

मानस के उत्तरकाण्ड में ‘राम राज्य प्रसंग दिखाई पड़ते हैं ।

दैहिक दैविक भौतिक तापा । राम काज नहिं काहुहिं व्यापा ।।

सब नर करहिं परसपर प्रीती । चलहिं स्वधर्म निरत स्त्रुति नीती ।।

अल्प मृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुन्दर सब बिरुज सरीरा ।।

नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना । नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना ।।

तुलसी का विश्वास है कि यदि लोक शिष्टाचारों का निर्वाह करते हुए धर्म एवं कर्त्तव्य – भावना से समन्वित लोकादर्शों पर चला जाय तो रामराज्य जैसे उत्तमोत्तम लोक की कल्पना पुनः धरती पर साकार हो सकती है।

(ङ) लोक-नीति निर्धारण- तुलसी ने लोक- नीति के निर्धारण से सम्बन्धित अनेक छंदों की रचना की है। ये कथन नीति वाक्यों के रूप में हैं और विविध सामाजिक विषयों से सम्बद्ध हैं, यथा

भक्ति एवं धर्म के क्षेत्र में लोकानुभव- तुलसी ने समस्त मानवता के उद्धार के लिए जिस विशाल पथ को प्रशस्त किया वह ‘स्त्रुति सम्मत हरि भक्ति पथ’ है। तुलसी साहित्य में यह हरि-भक्ति राम-भक्ति के रूप में प्रतिष्ठित है। उन्होंने राम-भक्ति को लोकोद्धार का सर्वोत्तम उपाय बताया है। राम-भक्ति की महिमा का अनुभव करते हुए उन्होंने अनेक सूत्रात्मक कथनों के माध्यम से उसे व्यक्त किया है। जिससे उस ओर लोक मानस की प्रवृत्ति बढ़े। ऐसे कुछ कथन निम्नांकित हैं-

बुध विश्राम सकल जन रंजनि । राम कथा कलि कलुष विभंजनि ।।

साहित्य के क्षेत्र में लोकानुभव- वैसे तो लोकानुभव का सीधा सम्बन्ध सामाजिक अनुभूति से ही है, किन्तु साहित्य और लोक का पारस्परिक सम्बन्ध साहित्य में भी लोकानुभव के प्रश्न को महत्त्वपूर्ण बना देता है।

तुलसी ने इस बात का अनुभव किया कि साहित्य का उद्देश्य लोकमंगल विधान ही होना चाहिए-

कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कहँ हित होई ।।

तुलसी ने लोकभाषा में साहित्य-सृजन को उपयोगी माना। तुलसी का दृढ़ विश्वास है कि लोकभाषा में काव्य-रचना करने से राम-कथा की ग्राह्यता तो बढ़ेगी ही गुणवत्ता भी कम न होगी-

स्याम सुरक्षि पय विसद अति गुनद करिहं सब पान ।

गिरा ग्राम्य सियरामजस गावहिं सुनहिं सुजान।।

निष्कर्ष -तुलसी ने सैद्धान्तिक रूप में व्यक्ति, समाज, परिवार और राजनीति में जिन आदर्शों की ओर संकेत किया, उनके व्यावहारिक रूप को प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने व्यक्तिगत स्वार्थों का परित्याग करके समष्टिगत उन्नति का मार्ग दिखाया। उनकी जन-कल्याण की इसी भावना ने उन्हें सत् के समर्थन और असत् के निराकरण की ओर प्रेरित किया। यही कारण है कि उनका काव्य शिवं एवं सुन्दरम् दोनों ही कसौटियों पर खरा उतरता है।

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