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मीरा की काव्य-भाषा की सोदाहरण सम्यक् आलोचना कीजिए ।

मीरा की काव्य-भाषा
मीरा की काव्य-भाषा

मीरा की काव्य-भाषा | मीराबाई की काव्यगत विशेषताएँ

मिश्रित भाषा – मीरा के पदों का प्रचलन प्रायः समस्त उत्तरी भारत से है। अतः उनमें विभिन्न भाषाओं शब्द मिल गये हैं। जिस प्रकार मीरा के पदों के पाठ और प्रामाणिकता में एकरूपता नहीं है, उसी प्रकार भाषा में भी मीरा के पदों में राजस्थानी, ब्रज, गुजराती और कुछ पंजाबी के पद मिलते हैं।

ब्रज भाषा का प्रयोग

यहि विधि भक्ति कैसे होय ।

मन की मैल हिय ते न छूटी, दियो तिलक सिर धोय ।।

काम कूकर लोभ डोरी बाँधि मोह चण्डाल ।

क्रोध कसाई रहत घट में कैसे मिलें गोपाल ।।

मीरा ने वृन्दावन में पाँच-छः वर्ष व्यतीत किये। इसलिए ब्रजभाषा से उनका व्यापक परिचय होना स्वाभाविक ही था। राजस्थान में तो मीरा का जन्म ही हुआ था। इसलिए राजस्थानी भाषा की शब्दावली उनके पदों में व्यापक रूप से मिलती है।

मुझ अबला ने मोती नीराँत थई रे ।

छामलो घरेणु मारे पाँच रे।

झाँझारिया जग जीवन केरा कृष्णा जी कड़वा ने काँबीरे।

बीधियाँ घूँघरा राम नारायण ने अणवट अन्तरजामी रे ।

जनश्रुति के अनुसार मीरा का अन्तिम जीवन द्वारका (गुजरात) में ही व्यतीत हुआ। अतः उनके पदों में गुजराती प्रयोग भी मिलता है।

प्रेमनी प्रेमनी प्रेमनी रे, मन लागी कटारी प्रेमनी रे।

जल जमुनामाँ भरवाँ गायाँ वाँ हठो नागर माथे हेमनी रे।

नाचे वे वावणो हरजीत बाँकी, एक खेंचे तेम तेमनी रे।

मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, शामली सुरत शुभ एमनी रे।

मीरा की काव्य-भाषा की विशेषताओं का उद्घाटन निम्न शीर्षकों में किया जा सकता है

संगीतात्मकता- मीरा के काव्य की भाषा की सबसे बड़ी विशेषता संगीतात्मकता है। संगीतात्मकता के लिए मीरा कहीं तो शब्दों के संयुक्त रूप को भंग कर देती है ओर कहीं उनको लोचयुक्त बना देती है। वे कहीं पर यदि शब्दों के रूप को विकृत कर देती हैं, तो कहीं पर एक शब्द के स्थान पर दूसरे शब्द का प्रयोग करती हैं।

लोच-युक्त प्रयोग

मुरली का मुरलिया / पपीहा का पपैया / गोविन्द से गोविन्दाँ संयुक्त शब्दों का मंत्रीकरण –

अमृत से इमरत / प्रभात से परभात / नृत्य से निरत / श्री से सिरी / हृदय से हिरदा

विकृत प्रयोग

स्नेह से नेहड़ा / जीव से जीवड़ा / निद्रा से नीदड़ी / कृष्ण से काण्हड़ो

एक शब्द के स्थान पर दूसरा शब्द

‘स’ के स्थान पर ‘श’ जैसे तरसावो’ से ‘तरशावाँ’ ‘र’ और ‘ल’ के स्थान पर ‘ड’ जैसे ‘नेहर’ और ‘बादल’ से बादड़ रे, री, हेरी आदि शब्दों का प्रयोग भी मीरा के पदों को संगीतात्मकता देने में बहुत सहायक हुआ है, जैसे

हेरी म्हाँ दरदे दिवाणी म्हाँरा दरद न जान्याँ कोय ।

अनुस्वार युक्त दीर्घ स्वरों का प्रयोग-

‘गिनते-गिनते’ से गणतों- गणता

रेखा से रेखा आँगुरी से आँगुरियाँ

अलंकार का प्रयोग- मीरा के काव्य में अलंकारों का भी अधिक प्रयोग नहीं हुआ है, क्योंकि मीरा का काव्य भावों का उमड़ता हुआ सागर है। अलंकार-योजना भावों को उत्कर्ष करने में सहायक है।

छन्द – योजना – मीरा-काव्य गेय काव्य है। संगीत की कसौटी और भाव-स्तर पर खरे उतरने वाले विभिन्न छन्दों का प्रयोग मीरा ने किया है, किन्तु मात्रिक छन्दों का प्रयोग बहुत हुआ है।

मुहावरों का प्रयोग- मीरा के काव्य में मुहावरों का प्रयोग प्रायः कम ही हुआ है, लेकिन जितना भी है वह सफल है। निम्न उदाहरण में देखिए-

भाई री म्हां लिया गोविन्द मोल ।

ये कहाँ छांणो म्हाँ कहाँ चौड़ये लिया बजन्ता ढोल ।

ये कहाँ मुहँगो, म्हाँ कहाँ सस्ते लियाँ री तरीजाँ तोल ।

यहाँ ‘मोल लेना’, ‘ढोल बजाकर मोल लेना’, ‘तराजू में तोलना’ आदि मुहावरों का सफल प्रयोग है।

प्रवाहात्मकता- मीरा का काव्य गेय है। उन्होंने अपने गेय पदों के संगीत को स्वर-लहरी के उतार-चढ़ाव के अनुकूल ही शब्दावली का प्रयोग किया है। यही कारण है कि उनकी भाषा में प्रवाह को तीव्रतर कर देता है।

साँवलिया म्हारो छाय रह्या परदेश |

म्हाँरा बिछड्या फेर न मिलया भेज्या था एक सन्देस ।

रहण आभरण भूषण छाड्या खोर कियाँ सर केस ।

भगवाँ भेस धर्मों थे कारण ढूंढ्या चार्या देस ।

मीराँ के प्रभु स्याम मिल विण जीवनि जनम अनेस ।।

भाव – प्रवणता – मीरा के काव्य में भावुकता और मार्मिकता की अनुभूति का विस्तृत समावेश है। मीराँ के पदों में प्रेम पीर की मार्मिक कसक समाई हुई है। उनका प्रत्येक शब्द सरल, मधुर और अनुभूति से भरा हुआ है। एक उदाहरण लीजिए-

हेरी म्हाँ दरदे दिवाणी म्हाँरा दरद न जाण्या कोय।

घायल की गत घायल जाण्याँ, हिवड़ों अगण संजोय ।

जौहर की गति जौहरी जाणें क्या जाण्याँ जिण खोय ।

दरद की मारयाँ दर-दर डोलयाँ वैद मिलिया नहिं कोय ।

मीरा के प्रभु पीर मिटैगी, जब बैद साँवरो होय ।।

निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भाषा की मधुरता और भाव उष्णता के कारण मीरा का काव्य जन-जन का कंठहार है। उनके पदों में भाषा का आडम्बर तनिक भी नहीं है। मीरा के कुछ पदों में परिष्कृत तथा शुद्ध साहित्यिक  ब्रज-भाषा का प्रयोग भी मिलता है। मीरा की भाषा में भावों को व्यक्त करने की क्षमता है। वह भावातिरेक में स्वप्न ही भावमयी हो गई हैं।

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