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तुलसीदास के काव्य की काव्यगत विशेषताएँ | TULSI KI KAVYAGAT VISHESHTA

तुलसीदास के काव्य की काव्यगत विशेषताएँ
तुलसीदास के काव्य की काव्यगत विशेषताएँ

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तुलसीदास के काव्य की काव्यगत विशेषताएँ

गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी काव्याकाश के सर्वाधिक दैदीप्यमान नक्षत्र हैं। वे देशकाल की सीमा का अतिक्रमण का आज सर्वदेशिक कवि हैं। वे राम भक्त कवि है। उनकी कविता का लक्ष्य राम का गुणगान है। रामभक्ति साध्य है, कविता साधन मात्र । गोस्वामी जी का ‘रामचरितमानस’ उनकी कीर्ति का अक्षय स्रोत है। काव्य के दो पक्ष हैं अंतरंग तथा बहिरंग। अंतरंग पक्ष के अन्तर्ग भाव या अनुभूति पक्ष आम है और बहिरंग के अंतर्गत शिल्प के उपकरण-भाषा, छंद, शैली, अलंकार, गुण, वृत्ति आदि आते हैं। गोस्वामी तुलसीदास के काव्य में दोनों ही पक्षों का अपूर्व समन्वय है जिनसे उनका काव्य अद्वितीय है।

गोस्वामी तुलसीदास प्रबंधकार हैं। प्रबंधकार की कसौटी कथा विन्यास, चरित्रांकन, रस निरूपण, वर्णनात्मकता, उदात्त उद्देश्य आदि में निहित है। गोस्वामी जी के ‘रामचरितमानस’ में उक्त सभी तत्त्वों का समुचित विन्यास है। रामचरितमानस’ की कथावस्तु सुविन्यस्त है। उसके भावपूर्ण स्थलों पर कवि की विशेष दृष्टि है। पुष्पवाटिका प्रसंग से लेकर सीता की अग्नि परीक्षा और अयोध्या प्रत्यावर्तन तक की एक-एक घटना का तुसल ने स्वाभाविक चित्रांकन किया है। उन्होंने मानव जीवन की समस्त स्थितियों को अपनी काव्य-प्रतिभा से सजीव बना दिया है। डॉ. श्याम सुन्दर दास के अनुसार मानव प्रकृति के जितने अधिक रूपों के साथ गोस्वामी जी के हृदय का रागात्मक सामजस्य हम देखते हैं उतना अधिक हिन्दी भाषा के किसी कवि में नहीं।” गोस्वामी तुलसीदास भावुक कवि हैं। वे जिस प्रसंग का वर्णन करते हैं उसके साथ पूर्ण तादात्म्य स्थापित करते हैं। अंतःवृत्तियों के सूक्षमातिसूक्ष्म रूपों के उद्घाटन के साथ ही श्रृंगार का जैसा मनोरम रूप गोस्वामी तुलसीदास ने प्रस्तुत: किया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। वन-पथ पर सीता से ग्राम वधुयें प्रश्न करती हैं-

कोटि मनोज लजावनि हारे।

सुमुखि कहहु को अहहिं तुम्हारे ।

सीता विभिन्न भावनों के द्वारा उन्हें समझाने की चेष्टा करती हैं और अंततः कटाक्ष द्वारा उनका मन मोह लेती हैं-

बहुरि बदन विधु अंचल ढाकी । पिय तन चितइ भौंइ करि बांकी ।

खंजन मंजु पिरीक्षे नयननि । निज पति कहेउ तिनहिं सिय सयननि ।।

इसी प्रकार लक्ष्मण-शक्ति के प्रसंग में राम की व्याकुलता का जैसा अंकन तुलसीदास ने किया है वह उत्कृष्ट है। राम लक्ष्मण के लिए सारी मर्यादायें तोड़ने को प्रस्तुत होते से जान पड़ते हैं।

वे प्रलाप-दशा में कहते हैं-

जो जनतेउं बन बंधु बिछोहू ।

पिता बचन मनतेउं नहिं ओहू ।।

तुलसी- काव्य में विभिन्न रसों का स्त्रोत प्रवाहमान | बालकांड के पुष्पवाटिका-प्रसंग में श्रृंगार रस उमड़ पड़ा है तो लंकाकांड के युद्ध वर्णन में वीररस की छटा है। लंका दहन में भयानक रस है तो दशरथ मरण में करुण रस परशुराम में रौद्र रस की व्यंजना है तो उत्तरकांड में शांत रस। वियोग श्रृंगार का एक उदाहरण दृष्टव्य है-

बिरह अगिनि तनु तूल समीरा । स्वास जरइ छन मांहि सरीरा ।।

नयन स्त्रवहिं जलु निज लागी । जरै न पाव देह बिरहागी।।

लंका कांड में युद्ध वर्णन के प्रसंग में वीभत्स रस की एक झलक अवलोकनीय है-

कादर भयंकर रूधिर सरिता चली परम अपावनी।

दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अवर्त बहुत भयावनी ।

जलजंतु गज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गले।

सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरंग चर्म कमठ घने ।।

भाषा की दृष्टि से तुलसी अप्रतिम कवि हैं। मध्यकाल में प्रचलित दोनों काव्यभाषाओं पर उनका समान अधिकार है। रामचरितमानस, बरवै रामायण, रामलला नेहछू जानकी मंगल, पार्वती मंगल आदि की रचना अवधी में की गई है तो कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका, कृष्ण गीतावली में ब्रजभाषा की छटा है। ‘रामचरितमानस’ के प्रत्येक कांड के आरंभ के संस्कृत छंदों के द्वारा उन्होंने अपने संस्कृत ज्ञान को भी अभिव्यक्त किया है जो उस काल में पंडित और कुलीन वर्ग की भाषा थी। डॉ. देवकी नन्दन श्रीवास्तव के शब्दों में-“जनभाषा के प्रति अपनी आत्मीयता और संस्कृत भाषा के प्रति श्रद्धा-भाव का साथ-साथ पूर्ण निर्वाह करना तुलसी जैसे लोकनायक का ही काम है।” तुलसी ने अवधी को प्रांजल, परिमार्जित एवं प्रवाहपूर्ण बनाया है। जायसी की अवधी में ग्राम्य-रूप अधिक लक्षित होता है। किन्तु तुलसी का अवधी में अभिजात्य रूप झलकता है। उसमें जायसी की अपेक्षा तत्समता है। ब्रजभाषा पर भी उनका विशेष अधिकार था। ब्रजभाषा का एक उदाहरण दर्शनीय है-

तू दयालु दीन हौं, तू दानि हौं भिखारी ।

हौं प्रसिद्ध पाठकी तू पापपुंज हारी।।

तुलसी की भाषा में शब्दशक्तियाँ अभिधा, लक्षणा और व्यंजना का प्रयोग हुआ है। व्यंजना का एक उदाहरण दृष्टव्य है-

बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू ।

भूप किशोर देखि किन लेहू ।।

तुलसी के काव्य में अलंकारों का प्रयोग हुआ है। उनके काव्य में शब्दालंकार की तुलना में अर्थालंकार अधिक है। उनके काव्य में श्लेष, यमक, उपमा, रूपक, अतिश्योक्ति, भ्रांतिमान, दृष्टान्त, उत्प्रेक्षा आदि विशेष प्रयुक्त अलंकारों उल्लेखनीय हैं। उपमा-विधान की दृष्टि से तुलसी हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। एक उदाहरण देखिए-

भूमि परत भा डाबर पानी । जिमि जीवहिं माया लपटानी ।।

रूपक का एक उदाहरण-

नारि कुमुदिनि अवध सर, रघुपति बिरह दिनेस ।

अस्त भए प्रगटित भई निरखि राम राकेस ।।

छंद विधान की दृष्टि से भी तुलसी का काव्य श्रेष्ठ है। उनके काव्य में संस्कृत के वर्णवृत्त तथा हिन्दी के मासिक छंद प्रयुक्त हैं। संस्कृत छंदों में वंशस्थ, मंदाक्रान्ता, मालिनी, शिखारिणी, स्त्रग्धरा आदि का प्रयोग है। हिन्दी छंदों में चौपाई, अरिल्ल, दोहा, सोरठा, छप्पय, पद्धरि, नाराच, गीतिका आदि प्रयुक्त हैं।

तुलसीदास ने प्रमुख शैलियों का प्रयोग किया है। उन्होंने प्रबंध और मुक्तक दोनों शैलियों को अपनाया है। रामचरितमानस उनका प्रबंध काव्य है। के अंतर्गत उन्होंने चारणों की कवित्त सवैया शैली में ‘कवितावली’ की रचना की है। मुक्तक शैली रहीम की बरवै शैली में ‘बरवै रामायण’ तथा सूफियों की दोहा-चौपाई शैली में ‘रामचरितमानस’ लिखा है। लोक जीवन में प्रचलित सोहर छंद में रामलला नहछू’ की रचना की है।

निष्कर्षतः गोस्वामी तुलसीदास काव्य भाव पक्ष एवं कला पक्ष की दृष्टि से उदात्त है। उनके काव्य में दोनों का अपूर्व समन्वय है। रस योजना, भाषा, शब्द-शक्ति, अलंकार, छंद आदि की दृष्टि से उनका काव्य अप्रतिम है। तत्कालीन सभी काव्य-भाषाओं तथा शैलियों पर उनका समान अधिकार है। महाकवि हरिऔध के शब्दों में-

कविता करके तुलसी न लसे । कविता लसी पा तुलसी की कला।।

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