तुलसीदास की भक्ति-भावना (Tulsidas Ki Bhakti Bhavna)
गोस्वामी तुलसीदास ने लोककल्याण के लिए भक्ति मंदाकिनी प्रवाहित की है। गोस्वामी जी की भक्ति पूर्ववर्ती आचार्यों की परम्परा से पृथक् है। शांडिल्य के अनुसार “परानुसक्तिरीश्वरे भक्तिः ।” भक्ति ईश्वर में परम अनुरक्ति है। नारद के अनुसार “सात्वस्मिन् प्रेम रूपा।” अर्थात् वह भक्ति प्रेमरूपा है। गोस्वामी तुलसीदास ने भक्ति पथ के संबंध में लिखा है
श्रुति सम्मत हरि भक्ति पथ संयुत विरति विवेक।
अर्थात् विरति और विवेक से परिष्कृत पथ ही तुलसी का भक्तिपथ है। उसमें कर्म, ज्ञान और उपासना तीनों का योग है। जो भक्त होगा उसके हृदय में ज्ञान की ज्योति अवश्य प्रज्ज्वलित होगी और वही निष्काम कर्मयोगी होगा। तुलसी का अंधभक्ति में विश्वास नहीं है।
तुलसी काव्य में दास्य भक्ति की प्रधानता है और उसका उत्कृष्ट रूप विनय पत्रिका में मिलता है। इसके अतिरिक्त उन्होंने श्रीमद्भागवत की नवधा भक्ति को भी स्थान दिया है। तुलसी की भक्ति की सामान्यतः तीन वर्गों में रख सकते हैं-
1. आराध्य का स्वरूप, 2. भक्त का स्वरूप, 3. भक्ति का स्वरूप ।
आराध्य का स्वरूप- राम का स्वरूप ही तुलसी का आराध्य, साध्य और सर्वस्व है। समस्त ‘रामचरितमानस उन्हीं की यशोगाथा है-
एहि महँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना।।।
तुलसी के राम निर्गुण- सगुण दोनों हैं। वे सच्चिदानंद, भक्तमनरंजक एवं शरणागत वत्सल हैं। वे शक्ति, शील और सौन्दर्य समन्वित, मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। राम सब प्रकार से उत्तम हैं। वे एक आदर्श पुत्र आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श मित्र एवं आदर्श राजा हैं। आराध्य की महानता का जो चित्रण गोस्वामी जी ने किया है वह अत्यन्त विशद् एवं अनुकरणीय है। वे ‘कोटि मनोज लजावन हारे और अनंत शक्ति संपन्न हैं। उनका शील भी अनुकरणीय है। क्रोधी परशुराम के समक्ष वे नम्रता से कहते हैं-
नाथ संभु धनु मंजनिहारा। होइहै कोउ एक दास तुम्हारा ।।
वे करुणा के सागर हैं, दीनबन्धु हैं, दयासागर कृपासिंधु हैं, वे यही संकल्प करते हैं-
कोटि विप्र बध लागहिं जाहू आए सरन तजहु नहिं ताहू ।।
भक्त का स्वरूप- तुलसी के आराध्य राम में जितनी महानता है, विशालता है, विराट स्वरूप है, उतनी ही भक्त में दीनता और लघुता का चित्रण हुआ हैं। वे भक्ति प्रधान ग्रंथ विनय पत्रिका में कहते हैं-
“तू दयाल दीन हौं, तू दानि हौं, भिखारी ।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप पुंज हारी।
नाथ तू अनाथ को, अनाथ कौन मोसों ।
मो समान आरत नहिं आरति हर तोसों ।”
तथा
तुम सम दीन बंधु न दीन कोउ मो सम सुनहू नृपति रघुराई।
मो सम कुटिल मौलिमनि नहिं जग तुम सम हरि न हरन कुटिलाई ।।
तुलसी के अनुसार भक्त में प्रमुख रूप से निम्नांकित लक्षण होने चाहिये। इस पद में उन लक्षणों का उल्लेख है-
कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो।
श्री रघुनाथ कृपालु कृपा तें संत सुभाव गहौं गो ।
जथा लाभ संतोष सदा काहूँ सौं कछु न चहौंगो ।
परहित निरत निरन्तर मन क्रम वचन नेम निबहौंगो ।।
विगत मन सम शीतल मन पर गुन नहिं दोष कहौंगो ।
परिहरि देह जनित चिन्ता दुःख सम बुद्धि सहौंगो ।
तुलसीदास प्रभु यहि पथ रहि अविचल हरिभक्त लहौंगो ।।
गोस्वामी जी ने भक्तों के चार प्रकार बताये हैं-आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी, ज्ञानी। इन चारों को ही नाम का आधार बताया है-
चहुँ चतुर न कहै नाम अधारा । ज्ञानी प्रभुहिं विशेष पियारा ।।
जो भक्त प्रभु के प्रति अनन्य शरणागत भाव से अपने को समर्पित करते हैं उनका स्वरूप बालक की भाँति होता है। ऐसे भक्त की रक्षा भगवान इस प्रकार करते हैं-
जिमि बालक राखै महतारी ।
तुलसी की अपनी भक्ति भावना प्रपन्ना भक्त की है।
“तु मेरो यह बिनु कह उठिहौं न जनम भरि” का संकल्प गोस्वामी जी का है। वे हमेशा यही चाहते हैं कि भगवान उनके ऊपर वरद कर कमल की छाया करें।
कबहुँ सो कर सरोज रघुनायक नाथ सीस मेरे ।
जेहि कर अभय किये जन आरत, बारक दिवस नाम टेरे।।
भक्ति का स्वरूप- तुलसी ने नवधा भक्ति का भी उल्लेख किया है। जैसे- श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सांख्य एवं आत्म निवेदन ।
तुलसी सभी प्रकार के भक्ति के प्रकारों में निष्ठा रखते हैं। परन्तु सेवक सेव्य भाव या दास्य भाव को प्रमुखता देते हैं। इसके अतिरिक्त ये राम शबरी प्रसंग में राम शबरी से भक्ति के प्रकार बतलाते हुए कहते हैं-
प्रथम भक्ति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।।
गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ।
चौथि भगति मम गुन गुन करइ कपट तजि गान ।
मंत्र जप मम दृढ़ विश्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा ।।
छठ दम सील विरति बहु करमा । निरत निरन्तर सज्जन घरमा ।।
सातंय सम मोहिमय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा ।।
आठवाँ जथा लाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ हर दोषा ।।
नवम सरल सब सन छलहीना । मम भरोस हियँ हरष न दीना ।।
इस प्रसंग में वे सत्संग, कथ में रुचि एवं प्रेम, गुरु पद पंकज सेवा, निष्कपट गुणगान, विश्वास सहित मंत्र जप, इन्द्रिय-दमन, संसार में मरो रूप देखना, यथा लाभ संतोष, परदोष दर्शन न करना, सबसे छल रहित व्यवहार करना, मेरे ऊपर भरोसा करके न अत्यधिक प्रसन्न रहना और न बहुत दुःखी होना।
इन नौ प्रकार की भक्ति में से यदि एक भी किसी के पास है तो राम कहते हैं-
सो अतिसय प्रिय भामिनि मोरे ।
गोस्वामी जी की राम भक्ति वह पदार्थ है जिससे जीवन में शक्ति, सरसता, प्रफुल्लता, पवित्रता सब कुछ प्राप्त हो सकती हैं, क्योंकि उनके आराध्य में सौन्दर्य, शक्ति, शील तीनों की चरम अभिव्यक्ति है। भक्ति का मूल तत्त्व है उस महत्त्व की अनुभूति और अपनी लघुता की अनुभूति ।
राम सो बड़ो है कौन, मो सो कौन छोटो ।
राम सो खरो है कौन, मो सो कौन खोटो ।।
भक्त के लिए भक्ति का आनंद ही उकसा फल है।
इहै परम फल परम बड़ाई ।
नख सिख रुचिर बिन्दु माधव छवि, निरखहिं नयन अथाई ।
अतः गोस्वामी जी की भक्ति कर्म, ज्ञान, उपासना से समन्वित वह आदर्श राजमार्ग है, जिस पर चल कर समस्त जीवों का कल्याण निश्चित है।
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