तुलसी भारतीय संस्कृति के उन्नायक कवि हैं। | भारतीय संस्कृति के कवि थे तुलसीदास
भूमिका- गोस्वमी तुलसीदास भारतीय संस्कृति की एवं सभ्यता के अनन्योपासक थे। अपनी संस्कृति की हीनावस्था को देखकर वे चिन्ताकुल रहते थे। वे भारतीय संस्कृति से पुष्ट समाज के निर्माण में सदैव तत्पर रहे। हासोन्मुख वर्णाश्रम धर्म की पुनः स्थापना ही उनका श्रेय था। क्योंकि उनका विश्वास था कि इस व्यवस्था में शोषण, अपहरण, बलात्कार, संघर्ष, अन्याय, अत्याचार आदि का अभाव है। सभी वर्ण अपनी मर्यादा में रहते हुए विश्वात्मा तक पहुँचने का प्रयास करते हैं। वर्ण व्यवस्था का आधार आश्रम व्यवस्था है। तुलसी के समय में यह भी दुर्गुणों का शिकार हो चुका था। यह स्थिति गोस्वामी जी के लिए विशेष चिन्तनीय थी। इसीलिए मानस में उन्होंने वशिष्ठ जी के द्वारा इसका उल्लेख भी किया है।
वर्णाश्रम का हास – तुलसी के समय में आश्रम धर्म समाप्त-प्राय हो गया था-
‘वरन धरम नहिं आश्रम चारी’
सामाजिक जीवन दुर्दशा – ग्रस्त हो चुका था । विप्र निरच्छर लोलुप कामी हो गये थे। शूद्र जप, तप, व्रत करने लगे थे। स्त्रियों में सौभागिनी विभूषन होना तथा ‘विधवन के सिंगार नवीना होने लगे थे। तात्पर्य यह कि सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी थी। तुलसी ने भारतीय संस्कृति के अनुरूप कौटुम्बिक जीवन, पारिवारिक समृद्धि, शिष्टाचार, नारी- सम्मान आदि की भावना का विस्तार किया। उन्होंने रामराज्य वर्णन में वर्णाश्रम धर्म का प्रतिपादन तथा उससे प्राप्त सुख-सुविधाओं का वर्णन किया है।
भारतीय संस्कृति का अनुसरण – गोस्वामी जी ने भारतीय संस्कृति के अनुसरण पर विशेष जोर दिया है। क्योंकि संस्कृति के अनुसरण से कर्त्तव्य की भावना प्रबल रहती है, जिससे प्रेम, सेवा, परमार्थ तथा लोकमंगल की कामना से मनुष्य आगे बढ़ता रहता है और अन्ततोगत्वा जगत् के कल्याण का कारण बना है। उस अवस्था में वह भय ताप से मुक्त हो जाता है-
दैहिक दैविक भौतिक तापा । राम राज नाहिं काहुहिं व्यापा ।।
बहुधा यह देखा गया है कि बड़ों के आचरण का अनुकरण छोटे कहते हैं। राजा के शील-गुण-सम्पन्न होने पर प्रजा भी शीलवान और गुणी होती है। राम शील के निधान हैं, गुणी हैं, शक्ति-सम्पन्न हैं और हैं रूपवान । इसलिए प्रजा भी – सब गुनन्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतज्ञ नहिं कपट सयानी ।।
यही नहीं प्रकृति भी नियमबद्ध है-
सागर निज मरजादा रहहीं। डारहिं रतन तटन्हि पर लहहीं ॥
प्राचीन आदर्शों के अनुरूप नारी चित्रण- वर्णाश्रम धर्म में नारी की महत्ता निर्विवाद है। तुलसी ने भारतीय संस्कृति के अनुरूप ही नारियों का चित्रण किया है। नारियाँ पूज्य, पवित्र और प्राचीन आदर्शों के अनुरूप है। उनमें भारतीय गरिमा निहित है। यथा-पति अनुकूल सदा रह सीता। सोभा खानि सुसील विनीता।। तुल्सी ने कौशल्या, सुमित्रा, मन्दोदरी, शबरी आदि सभी का चित्रण प्राचीन आदर्शों के अनुरूप ही किया है।
वर्ण व्यवस्था- व्यक्ति का विकसित रूप परिवार और परिवार का विकसित रूप समाज है। परिवार में छोटे-बड़े का भेद स्वतः हो जाता है। इसी प्रकार समाज में भी आचार्य, शिष्य, राजा प्रजा, स्वामी सेवक, सेनापति- सिपाही आदि होते हैं। यह एक पूर्ण सामाजिक भारतीय वर्ण-व्यवस्था है। गोस्वामी जी वर्ण-व्यवस्था को जन्मना स्वीकार करते हैं। किन्तु आगे चलकर उन्होंने जन्मना और कर्मणा का सुन्दर समन्वय कर दिया है।
त्यागमूलक वर्ण-व्यवस्था – गोस्वामी जी द्वारा मान्य वर्ण अवस्था त्यागमूलक है। इसमें मर्यादा पालन का विशेष महत्त्व है। ब्राह्मण पर श्रद्धा रखना, उनके प्रति भक्ति भाव और आदर भाव रखना लोक मर्यादा है। तुलसी कहते हैं-
पूजिय विप्र सील गुन हीना । सूद्र न गुनगन ग्यान प्रवीना ।।
इसी को चाणक्य ने इस प्रकार कहा है ‘पतितोऽपि द्विजः श्रेष्ठो न च शूद्रो जितेन्द्रियः”
आश्रमों में गृहस्थाश्रम सर्वश्रेष्ठ –तुलसी आश्रम व्यवस्था को श्रेष्ठ मानते हैं और इसमें भी गृहस्थाश्रम को सर्वश्रेष्ठ। क्योंकि गृहस्थाश्रम सभी आश्रमों को मूल है। मनुस्मृति में लिखा है-
सर्वेषामपि चैतेषां वेदश्रुति विधाहतः ।
गृहस्थ उच्यते श्रेष्ठः स त्रीनेतान्विभर्ति ।।
इस प्रकार सम्पूर्ण धर्मों एवं आचरणों का गृहस्थाश्रम मूल स्थान है। तुलसी ने इस व्यवस्था का दृढ़ प्रतिपादन किया है। राम गृहस्थ का एक महान आदर्श उपस्थित करते हैं।
विभिन्न संस्कारों का वर्णन- तुलसी ने भारतीय संस्कृति में मान्य विविध संस्कारों का भी वर्णन किया है, यथा-‘
गर्भाधान संस्कार-
एहि विधि गर्भ सहित सब नारी ।
भई हृदय हर्षित सब भारी ।।
जातकर्म संस्कार-
नन्दी मुख सराध करि जात करम सब कीन्ह ।
हाटक धेनु बसन मनि, नृप विप्रन्ह कहँ दीन्ह ।।
नामकरण संस्कार-
नाम करन करु अवसर जानी। भूप बोलि पठये मुनि ग्यानी ।।
करि पूजा भूपति अस भाषा । धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा ।।
चूड़ाकर्म संस्कार-
चूड़ा करन कीन्ह गुरु जाई । विप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई ।।
उपनयन संस्कार-
भए कुमार जबहिं सब भ्राता । दीन्ह जनेउ गुरु पितु माता।।
वेदारम्भ संस्कार-गुरु गृह पठन गये रघुराई ।।
विवाह संस्कार
भयो पानि गहनु बिलोक विधि सुर मनुज मुनि आनन्द भरें ।।
रीति-रिवाजों का वर्णन-गोस्वामी जी ने भारतीय संस्कृति से सम्बद्ध रीति-रिवाजों का भी मर्यादित वर्णन किया । उदाहरण के लिए पुत्र जन्म पर बधाई–बजवाना, कुल गुरु को आमन्त्रित करना, दान देना, विवाह के पूर्व जयमाला पहनाना, वर का पीला वस्त्र पहनना, वर का घोड़े पर सवार होकर वधू के घर जाना, सौभाग्यवती स्त्रियों का मंगल-गीत गाना, भाँवरें फिरना, वर-वधू का हवन में जाना, कलेवा करना, भोजन के समय स्त्रियों को गाली देना, कंकण खोलना आदि । ये वर्णन अत्यन्त हृदयस्पर्शी हैं।
शकुन-अपशकुन विचार- शकुन-अपशकुन विचार भारतीय समाज में प्राचीन काल से चला आ रहा है। गोस्वामी जी ने इसका भी यथा-स्थान उल्लेख किया है। उदाहरण के लिए जल से पूर्ण कलश, दही, दूर्वा, मछली, नीलकंठ तथा क्षेमकरी पक्षी आदि को शुभ-शकुन माना गया है और कौए, श्रृंगाल तथा गधे की बोली को अपशकुन ।
अन्य सांस्कृतिक तथ्यों का निरूपण-इनके अतिरिक्त गोस्वामी जी ने विविध वस्त्राभूषणों, हाथी, घोड़ा, रथ, विमान, आखेट एवं मल्ल युद्ध का भी वर्णन किया है। साथ ही भारतीय संस्कृति के अनुरूप पालना, पालकी, पलंग, पीढ़ी, पिंजड़ा, हिंडोला, चौकी, सिंहासन, सेज, सुखासन, दुन्दुभी, माँझ, मृदंग, शंख, शहनाई, भेरी, ढोल, आदि का भी यत्र-तत्र उल्लेख किया है।
निष्कर्ष–प्रस्तुत विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि गोस्वामी तुलसीदास सच्चे अर्थों में भारतीय संस्कृति के उन्नायक महाकवि हैं।
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