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कबीर की भाषा | कबीर के अनुसार गुरु का महत्त्व | कबीर के व्यक्तित्व | कबीर के क्रान्तिकारी रूप

कबीर की भाषा
कबीर की भाषा

कबीर की भाषा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

सन्त कबीर की भाषा का निर्णय करना बहुत ही दुष्कर है। कबीर की भाषा में विभिन्न भाषाओं के शब्द उपलब्ध होते हैं। उन्होंने भाषा और साहित्य की कला पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे अपनी आत्मा की प्रेरणा के अनुसार कार्य करते थे। कबीर के के पदों में लगभग आधा दर्जन भाषाओं के शब्द उपलब्ध होते हैं। इन्होंने भाषाओं पर कोई ध्यान नहीं दिया है। भाषा में जो कुछ सौन्दर्य है वह उनकी तीव्र अनुभूति के कारण है। कबीर की भाषा की प्रशंसा करते हुए कबीर साहित्य के मर्मज्ञ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है-“भाषा पर कबीर का जबर्दस्त अधिकार था, वे वाणी के डिक्टेटर थे जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा, उसे उसी रूप में भाषा में कहलवा दिया- बन गया तो सीधे-सीधे नहीं तो दरेरा देकर ।

कबीर के अनुसार गुरु का महत्त्व प्रतिपादित कीजिए।

भारतीय संत परम्परा में और विशेषतः निर्गुण सन्तों की परम्परा में गुरु को अत्यन्त महत्त्व दिया गया है। कबीर ने भी गुरु की महत्ता का वर्णन किया है। उन्होंने बताया है कि इस संसार में गुरु के समान कोई हितैषी और अपना सगा नहीं है। इसलिए मैं अपना तन–मन और सर्वस्व गुरु के प्रति समर्पण करता हूँ जो क्षण भर में ही अपनी कृपा से मनुष्यों को देवता बनाने में समर्थ है। गुरु की महिमा अनन्त है और इसे वही समझ सकता है जिसके ज्ञान-चक्षु खुल गये हों। गुरु की कृपा जिस व्यक्ति पर होती है, कलियुग का प्रभाव भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता अर्थात् उस पर पापों और दुष्कर्मों का कोई प्रभाव नहीं हो सकता। गुरु ही अपने शिष्य की अन्तर की ज्योति को प्रज्वलित करने में समर्थ है। कबीरदास गुरु की महत्ता बताते हुए कहते हैं कि गुरु का स्थान भगवान के स्थान के समान है अर्थात् गुरु और गोविन्द दोनों एक हैं। जिन लोगों को गुरु की प्राप्ति नहीं होती, तो चाहे जितनी तप ओर साधना करें किन्तु उनका कोई फल नहीं मिलता है।

कबीर के व्यक्तित्व के संक्षेप में प्रकाश डालिए।

युग की आवश्यकता के अनुरूप अनेक उच्चकोटि के सन्त, साहित्यकार एवं समाज-सुधारक भारत की इस पावन धरा पर जन्म लेते रहे हैं। कभी-कभी इस महान देश में कोई ऐसी प्रतिभा हो जाया करती है, जिसके विलक्षण व्यक्तित्व एवं कृतित्व में एक साथ इतनी ही विशेषताएँ देखने को मिलती हैं कि सम्पूर्ण जगत् विस्मित होकर रह जाया करती है। कबीर भी एक ऐसी ही प्रतिभा थे। वे सन्त भी थे और संसारी भी, समाज-सुधारक भी थे और एक सजग कवि थे। वे अनाथ थे, किन्तु सारा समाज उनकी छत्रछाया की अपेक्षा करता था। कबीर के महान व्यक्तित्व एवं उनके काव्य के सम्बन्ध में हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. प्रभाकर माचवे ने लिखा है, “कबीर में सत्य कहने का अपार धैर्य था और उसके परिणाम सहन करने की हिम्मत भी थी। कबीर की कविता इन्हीं कारणों से एक अन्य प्रकार की कविता है। वह कई रूढ़ियों के बन्धन को तोड़ती है। वह मुक्त आत्मा की कविता है।”

कबीर अपने आपको हिन्दू या मुसलमान न मानकर बल्कि एक ‘जुलाहा ‘ मानते थे। यह उनकी कर्मशील मनोवृत्ति का ही परिचायक है। समाज में रहते हुए उन्होंने भक्ति, मुक्ति एवं शुद्धि का अर्जन किया, किन्तु मनुष्य होने के नाते कर्म के प्रति निष्ठा और आस्था के लिए उनका सर्वाधिक महत्त्व है। कबीर का अपना जीवन और व्यक्तित्व इसकी मिसाल है।

कबीर के क्रान्तिकारी रूप का परिचय दीजिए।

कबीर का जन्म जिस विवादास्पद पृष्ठभूमि और तंगहाली वाले निम्नवर्ग ओर वर्ण में हुआ था वही उनके विद्रोहात्मक व्यक्तित्व का प्रवर्तक था। अतः कबीर की विद्रोह भावना किसी शोभाचार या मतवाद के अनुसरण के कारण नहीं अपितु वातावरण प्रसूत थी। आचार्य द्विवेदी के अनुसार कबीर के पास भीतर के पट खोलने की शक्ति थी। मध्यकाल में अन्धविश्वास रूढ़ियों, बाह्याडम्बरों का बोल-बाला था ही समाज में व्यवस्थागत भेदों की परतें भी बहुत जटिल व अमानवीय थीं। कबीर ने इन सब तथ्यों को न केवल जाना था अपितु भोगा भी था । यही कारण है कि समाज का थोपा हुआ सत्य उन्हें कदापि स्वीकार नहीं हुआ। वे जीवनभर जीवन की हर परिस्थिति और शक्ल सूरत की असलियत को उघाड़ते रहे तथा अस्वीकार करते रहे। उन्होंने जाति व्यवस्था का प्रबल विरोध करते हुए कहा जो तू बांभन भभनी जाया, आनबाट है क्यों नहीं आया ।

जो तू तुरक तुरकनी जाया । तो भीतरि खतना क्यों न कराया ।।

कबीर ने तीर्थ, पूजा, व्रत, नमाज, रोजा आदि को अग्राहा बताया तथा पंडित- पांडे, काजी, मुल्ला को धर्मों के ठेकेदार कहा। कबीर ने एक साथ जीवन को बाह्य–आन्तरिक पक्षों पर आक्रमण करके कुछ ऐसी बातें कहीं जो आधुनिक युग में न केवल अनुकूल हैं, अपितु आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए हैं। उन्होंने समाज में व्याप्त विसंगतियों, मिथ्याडम्बरों और अनीतिपूर्ण आचरण का विरोध कर समाज के उत्थान, विकास और बौद्धिक स्वातन्त्र्य पर बल दिया। इसके लिए उन्हें आक्रामक और विरोधात्मक दृष्टिकोण अपनाना पड़ा जो तत्कालीन परिस्थिति के लिए आवश्यक था।

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