सुरक्षात्मक प्रक्रियाओं की अवधारणा (Concept of Defence Mechanism)
व्यक्तित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत फ्रायड के समान ही कार्ल रोजर्स ने भी मनोचिकित्सक के रूप में कार्य करते हुए मानवीय प्रकृति का निरीक्षण एवं अध्ययन संवेगात्मक रूप से विघटित लोगों के बीच किया। इससे जो उनको अनुभव प्राप्त हुआ वही अनुभव रोजर्स द्वारा प्रतिपादित व्यक्तित्व के सिद्धान्त का आधार बना।
कार्ल रोजर्स ने अपने सिद्धान्त में यह स्पष्ट कर दिया कि मानव का व्यवहार इस तथ्य पर निर्भर रहता है कि व्यक्ति आस-पास के वातावरण की प्रत्यक्षीकरण किस रूप में करता है अर्थात् व्यवहार तत्कालिक घटनाओं का परिणाम है जैसे कि वे व्यक्ति के द्वारा आत्मसात एवं प्रत्यक्षीकृत किये जाते हैं।
यही व्यक्ति का ‘स्व’ (Self) होता है जो व्यक्तित्व का केन्द्र बिन्दु है। रोजर्स के सिद्धान्त में ‘स्व’ का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। रोजर्स के अनुसार ‘स्व’ स्थायी नहीं है। यह सतत् परिवर्तनशील है। व्यक्ति का र सम्बोध यह बताता है कि व्यक्ति किस प्रकार का है अर्थात् यह एक व्यक्ति की प्रतिमा है। यह न केवल व्यक्ति के प्रत्यक्षीकरण से ही सम्बन्धित है, बल्कि व्यक्ति के चिन्तन का भी इसमें महत्त्वपूर्ण स्थान है। एक व्यक्ति जिस प्रकार से प्रत्यक्षीकरणं करता है अथवा जिस ढंग से अपने को देखता है, उसे ही अपना हम उस व्यक्ति को आत्म-सम्बोध कहते हैं अर्थात् आत्म-सम्बोध एक व्यक्ति का स्वयं के बारे में विचार है जो भूतकालीन अनुभवों, वर्तमान के अनुभवों तथा भविष्य की आकांक्षाओं अथवा आशाओं पर आधारित होता है।
कार्ल रोजर्स ने स्व सम्बोध के महत्त्वपूर्ण तत्त्वों में सुरक्षात्मक प्रक्रियाओं को महत्त्वपूर्ण स्थानं प्रदान किया है। उसने यह कहा है कि ‘स्व’ के विकास एवं उसकी निरन्तरता को बनाये रखने के लिए सुरक्षात्मक प्रक्रियाओं का प्रयोग व्यक्ति यथासमय करता है।
सुरक्षा प्रक्रिया एक ऐसी मनोदशा है जिसको व्यक्ति भावी आशंकित परिस्थितियों को दूर करने के लिये प्रयुक्त करता है तथा इसका उद्देश्य ‘स्व’ संरचना को सुरक्षित रखने के लिये होता है। इस प्रकार व्यक्ति सुरक्षा प्रक्रिया का प्रयोग ‘स्व’ की निरन्तरता को बनाए रखने तथा आशंका उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों से बचने के लिये करता है।
सुरक्षात्मक प्रक्रियाओं के प्रकार (Types of Defence Mechanism )
कार्ल रोजर्स ने अपने सिद्धान्त में सुरक्षात्मक प्रक्रिया को दो प्रकारों का वर्णन किया है ये निम्न हैं- (1) प्रत्यक्षात्मक विघटन, (2) पलायन ।
इसका वर्णन निम्नवत् है-
(1) प्रत्यक्षात्मक विघटन (Perceptual Distortion) तब होता है जब कोई घटना व्यक्ति की चेतना में आकर उसके आत्म-सम्बोध की निरन्तरता को बाधित करती है। आत्म सम्बोध व्यक्तित्व विकास का प्रमुख घटक अथवा केन्द्र बिन्दु है। अपने आस-पास के वातावरण का व्यक्ति जिस रूप में प्रत्यक्षीकरण करता है और तदोपरांत अनुभव के परिणामस्वरूप उसके जो विचार बनते हैं वह उसका आत्म सम्बोध (Self-Concept) कहलाता है परन्तु जब कोई घटना इस प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करती है तो आत्म-सम् बोध के विकास पर भी इसका प्रभाव पड़ता है।
(2) पलायन (Denial) में व्यक्ति आशंका उत्पन्न करने वाली स्थिति से बचना चाहता है अर्थात् वह ऐसे अनुभवों की उपेक्षा करता है जो उसके ‘स्व’ (Self) के विपरीत होते हैं। यदि व्यक्ति के द्वारा पलायन की मात्रा बढ़ जाती है तब उसके मनोवैज्ञानिक परिणाम व्यक्ति को ज्यादा विपरीत रूप में प्रभावित कर सकते हैं। इस प्रकार व्यक्ति अपने ‘स्व’ के विकास और उसकी निरन्तरता को बनाए रखने के लिए सुरक्षात्मक प्रक्रियाओं का प्रयोग यथासमय करता है।
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