व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Influencing Personality)
वास्तव में व्यक्तित्व विभिन्न गुणों का संगठन है तथा व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारक दो तरह के होते हैं जो व्यक्तित्व के विकास में सहायता करते हैं-
(अ) जैविक अथवा अनुवांशिक (Biological or Heredity) और
(ब) पर्यावरण सम्बन्धी (Environmental)।
(अ) जैविक अथवा अनुवांशिक कारक
यह व्यक्तित्व के मौलिक रूप को निर्धारित करते हैं। व्यक्तित्व सम्बन्धी गुण इन अंगों के फलस्वरूप प्राप्त होता है-
(i) शरीर (Physique),
(ii) अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine Glands),
(iii) बुद्धि (Intelligence) और
(iv) तन्त्रिकातन्त्र (Nervous System)।
ये तत्त्व जन्मजात होते हैं अतएव इन्हें अनुवांशिक कहा जाता है।
(1) शरीर- शारीरिक तत्त्वों के अन्तर्गत रूप, रंग, शारीरिक गठन, भार, कद, वाणी अथवा स्वर आते हैं। साधारण बोलचाल की भाषा में किसी की सुन्दर, आकर्षक, स्वस्थ शरीर रचना एवं रूप-रंग आदि को देखकर उसके व्यक्तित्व को अच्छा माना जाता है।
(2) अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ- प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में कुछ अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ होती हैं। इन ग्रन्थियों से जो आन्तरिक स्राव होता है उसे रस अथवा हारमोन्स (Hormones) कहते हैं। आन्तरिक स्राव रक्त में मिलकर शरीर के विभिन्न अंगों में पहुँचता है। जब ये ग्रन्थियाँ उचित रूप से कार्य नहीं करतीं तो सम्बन्धित अंगों की कार्य-प्रणाली और विकास में अवरोध उत्पन्न हो जाता है और इससे व्यक्ति की आकृति, गठन, स्वास्थ्य, संवेगशीलता, बुद्धि और व्यक्तित्व के अन्य पहलू प्रभावित होते हैं। यहाँ कुछ प्रमुख ग्रन्थियों का उल्लेख किया जा रहा है
(i) गल-ग्रन्थि (Thyroid Gland) – यह ग्रन्थि गले में श्वांस नली के सामने होती है। इस ग्रन्थि की क्रियाशीलता के अनुसार ही व्यक्ति में चिन्तन, उत्तेजना एवं बेचैनी आती है। कम क्रियाशील होने पर थकावट, खिन्नता एवं मानसिक दुर्बलता आदि के उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है।
(ii) उप-गल ग्रन्थि (Para- thyroid Gland) – यह ग्रन्थि गल ग्रन्थि के पास होती है। इसकी अधिक क्रियाशीलता से मनुष्य का स्वभाव शान्त और इसकी मन्द क्रियाशीलता से व्यक्ति का स्वभाव उत्तेजित हो जाता है।
(iii) पोष ग्रन्थि (Pituitary Gland) – यह ग्रन्थि व्यक्ति के मस्तिष्क में स्थित होती. है। यदि यह जल्दी विकसित हो जाती है तो लम्बाई बढ़ जाती है और साथ-ही-साथ व्यक्ति क्रोधी स्वभाव का हो जाता है। यह ग्रन्थि अन्य ग्रन्थियों पर नियन्त्रण रखती है। समय के पूर्व विकसित होने से यौन अंग भी समय से पूर्व विकसित हो जाते हैं।
(iv) उपवृक्क ग्रन्थि (Adreanal Gland) – इस ग्रन्थि के दो भाग होते हैं- (क) बाह्य और (ख) आन्तरिक। बाह्य भाग के कम विकसित होने से व्यक्ति में उदासीनता और कमजोरी रहती है, जब आन्तरिक भाग कम सक्रिय होता है तो व्यक्ति में सक्रियता और उत्तेजना कम हो जाती है।
(v) यौन अथवा जनन ग्रन्थियाँ (Sex Glands) – इस ग्रन्थि पर व्यक्ति की यौन सम्बन्धी विशेषताएँ निर्भर करती हैं। इस ग्रन्थि में रस की कमी से यौन क्रियाओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
वुडवर्थ का विचार है कि यौन अथवा जनन ग्रन्थियाँ व्यक्ति की यौन सम्बन्धी विशेषताओं को निर्धारित करती हैं। उसका कहना है- “पुरुष हारमोन्स पुरुषत्व की दिशा में विकास करते हैं, स्त्री हारमोन्स स्त्रीत्व की दिशा में विकास करते हैं। यौन ग्रन्थियों के हारमोन्स के न होने पर किसी भी लिंग का व्यक्ति स्त्री-पुरुष के लक्षणों में हीन तटस्थ नमूने के रूप में विकसित होता है।”
इसका अर्थ यह हुआ कि ये सभी ग्रन्थियाँ हमारे व्यक्तित्व के विकास को प्रभावशाली बनाने में सहायक होती हैं। शरीर का गठन तो काफी मात्रा में इन्हीं ग्रन्थियों के ऊपर ही निर्भर करता है।
(3) तंत्रिका तन्त्र (Nervous System) – तन्त्रिका तन्त्र का ढाँचा जन्म से ही प्राप्त होता है। इस पर व्यक्ति की मानसिक क्रियाएँ आधारित होती हैं। यदि तन्त्रिका तन्त्र ढंग से बना है और सुचारु रूप से कार्य करता है तो व्यक्ति का मानसिक विकास भी उचित होगा। विकसित मानसिक क्रियाएँ व्यक्ति की प्रमुख विशेषता, ख्र हैं। इनका व्यक्तित्व में बहुत अधिक महत्त्व जिन व्यक्तियों का तन्त्रिका तन्त्र उचित रूप से विकसित नहीं होता, वे किसी कार्य को सुचारु रूप से नहीं कर पाते क्योंकि उनकी मानसिक क्रियाएँ विकसित दिशा में नहीं होतीं।
(4) बुद्धि (Intelligence)- व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख तत्त्व बुद्धि है। तीव्र बुद्धि, सामान्य बुद्धि एवं मन्द बुद्धि व्यक्ति के व्यक्तित्व में भिन्नता दिखाई देती है।
(ब) पर्यावरण सम्बन्धी कारक
व्यक्तित्व पर प्रभाव डालने वाले कारक निम्नलिखित हैं-
(i) भौतिक पर्यावरण- व्यक्ति के व्यक्तित्व पर भौतिक अथवा प्राकृतिक पर्यावरण का काफी प्रभाव पड़ता है। यदि व्यक्ति एक ऐसे पर्यावरण में रहता है जहाँ सौम्य एवं शुद्ध जलवायु है तो व्यक्ति भी परिश्रमी, निरोग, स्वस्थ एवं सुन्दर होगा। यदि प्राकृतिक पर्यावरण अच्छा नहीं है तो व्यक्ति के व्यक्तित्व पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। ऑगबर्न और निमकॉफ के अनुसार “व्यक्ति के विकास के प्रभाव की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। “
(ii) सामाजिक पर्यावरण- व्यक्ति को समाज में जन्म से लेकर अन्त तक रहना होता है अतएव उस पर कई प्रकार के व्यक्तियों, समाजों एवं परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। सामाजिक पर्यावरण में इनका समावेश होता है माता-पिता और परिवार का प्रभाव, पास पड़ोस का प्रभाव, समूह का प्रभाव तथा विद्यालय एवं अन्य साधनों का प्रभाव। अच्छे, उपयुक्त वातावरण और साधनों के फलस्वरूप बालक के व्यक्तित्व में वांछित विकास होता है। इस पर्यावरण के सविधिक और अविधिक साधनों के माध्यम से वह जो भी सीखता है उसके व्यक्तित्व पर उनका महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
(a) विद्यालय (School)- व्यक्तित्व विकास के पर्यावरण संबंधी निर्धारकों में घर बाद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारक विद्यालय है। विद्यालय को समाज का लघुरूप माना जाता है और किसी भी देश के भविष्य का निर्माण विद्यालयों में होता है। निर्माण की यह प्रक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि अधिक-से-अधिक अधिगम करके छात्र अपने व्यक्तित्व का सर्वतोमुखी विकास किस सीमा तक कर पाते हैं। लोकतंत्रीय विद्यालय सचेत क्रियाओं के ऐसे स्थल हैं जहाँ व्यक्तिगत-विकास के साधनों को सावधानीपूर्वक चुन-चुनकर एकत्र किया जाता है, जिससे लोकतंत्रीय शिक्षा अपने व्यक्तिगत विकास और सामाजिक उद्देश्यों को पूरा करने के दौरान व्यक्तिगत विकास के महत्त्वपूर्ण उद्देश्य को पूरा करने में सिद्ध हो सके।
(iii) आर्थिक पर्यावरण- परिवार की आर्थिक दशा का भी व्यक्तित्व के विकास पर प्रभाव डालती है। निर्धन एवं धनी परिवार के बालकों में इसी कारण वैयक्तिक भिन्नता देखी जाती है।
(iv) सांस्कृतिक पर्यावरण- साधारणतः संस्कृति का अर्थ है-रहन-सहन, आचार विचार, तौर-तरीका आदि। व्यक्तित्व निर्माण में संस्कृति का विशेष योगदान होता है। व्यक्ति का जिस प्रकार के सांस्कृतिक वातावरण में पालन-पोषण होता है, उसका व्यक्तित्व उसी तरह का हो जाता है। व्यक्तित्व के विकास पर वंशानुक्रम और वातावरण के प्रभाव की विवेचना हम पहले ही कर चुके हैं।
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