शिक्षा में खेल-प्रणाली (Play-way in Education)
खेल-प्रणाली को शिक्षा में स्थान दिलाने का श्रेय कॉल्डवेल कुक महोदय को है। इसके पूर्व – से शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा की प्राचीन-प्रणाली का विरोध किया था और बालक की भी बहुत-स अभिव्यक्ति के लिए स्वतन्त्र अवसर देने की बात कही थी। बाल मनोविज्ञान के विकास ने इस दृष्टिकोण को और अधिक बल प्रदान किया। शिक्षा में बालक को केन्द्रीय स्थान देने की बात स्वीकार की जाने लगी। इस विचारधारा के परिणामस्वरूप शिक्षा में खेल प्रणाली के प्रसार को और अधिक प्रोत्साहन मिला। किण्डरगार्टन, मॉण्टेसरी आदि पद्धतियाँ कालान्तर में सामने आयीं । खेल-प्रणाली में शिक्षा का माध्यम खेल होता है। बच्चों को खेल-खेल में ही शैक्षिक ज्ञान उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाता है। इस प्रणाली में शिक्षा क्रियात्मक विधि (Learning while doing technique) द्वारा दी जाती है। इस प्रणाली में बालक के लिए शिक्षा बोझ या भार नहीं होती है, उसे शैक्षिक क्रियाकलापों में आनन्द आता है। यहाँ बालक को आत्माभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। उसके सर्वांगीण विकास को प्रोत्साहन मिलता है।
संक्षेप में “खेल प्रणाली एक शिक्षण-विधि है, जिसमें बालक को खेल के माध्यम से शिक्षा प्रदान की जाती है। यह शिक्षा बालक के लिए सहज, रुचिकर व बोधगम्य होती है क्योंकि इसे वह अपने स्वभाव के अधिक निकट पाता है।”
खेल-विधि के सिद्धान्त (Principles of Play-way Method)
खेल-प्रणाली के मुख्य सिद्धान्त निम्न हैं-
(1) स्वतन्त्रता का सिद्धान्त- इस विधि में बालक को पूर्ण स्वतन्त्रता रहती है। वह बन्धन-रहित और क्रियाशील रहता है। वह अपनी इच्छानुसार कार्य करता है।
(2) रुचि का सिद्धान्त- इस विधि में बालक की रुचि का ध्यान रखा जाता है। मनोवैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध है कि बालक में जिस विषय के प्रति रुचि होती है उसे वह आसानी से सीखता है।
(3) स्व-शिक्षा का सिद्धान्त- खेल में बालक को अनेक अनुभव प्राप्त होते हैं। अनुभव से वह जितना सीखता है उतना पुस्तकों से नहीं। खेल में बालक सहयोग, धैर्य, सहानुभूति आदि गुणों को अपने अनुभव से सीखता है।
(4) उत्तरदायित्व का सिद्धान्त- बालक में स्वतन्त्रता के साथ ही उत्तरदायित्व वहन करने की भावना का विकास किया जाना चाहिए।
खेल-प्रणाली का शैक्षिक महत्त्व (Educational Importance of Play-way Method)
खेल-प्रणाली में शिक्षा को खेल के रूप में बालक के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है। फलतः ज्ञानार्जन में बालक को खेल का ही आनन्द आता है। इस विधि के लोकप्रिय होने के अनेक कारण हैं जो कि इसके शैक्षिक महत्त्व की अभिवृद्धि करते हैं इन कारणों में से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं-
(1) बाल-विकास में सहायक- खेल प्रणाली के द्वारा बाल विकास में सहायता मिलती है क्योंकि क्रियात्मकता के द्वारा बालकों के सभी प्रकार के विकास के लिए सहज ही अनुकूल वातावरण प्राप्त हो जाता है
(2) रचनात्मक प्रवृत्ति का विकास- खेलों के माध्यम से बालकों को स्वतन्त्र अभिव्यक्ति का अवसर मिलता है जिससे उनमें अन्तर्निहित रचनात्मक प्रवृत्ति का विकास होने में सहायता मिलती है।
(3) सामाजिक गुणों का विकास- खेलों के माध्यम से बालकों में मिल-जुलकर कार्य करने की प्रवृत्ति का विकास होता सामाजिक गुण विकसित होने के अनुकूल अवसर बालकों को इस प्रणाली द्वारा प्राप्त होते हैं।
(4) अनुशासन व उत्तरदायित्व की भावना का विकास- खेल-प्रणाली में बालकों की मूल प्रवृत्तियों का शोधन किया जाना चाहिए। इससे उसमें आज्ञापालन व कार्य पूर्ण न करने की भावना का विकास होगा। खेल में नियोजन आधार पर बालकों में अनुशासन व उत्तरदायित्व की भावना इस विधि द्वारा सहज ही विकसित की जा सकती है। के० बी० भाटिया के शब्दों में, “यह खेल की पद्धति है जिसमें स्वतन्त्र वातावरण में, अपने कर्त्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों को जानने से शिक्षालय में सामाजिकता एवं नागरिकता की शिक्षा मिलती है।”
(5) शैक्षिक कार्यों में मनोरंजन- खेलों में बालकों की स्वाभाविक रुचि होने के कारण खेल-प्रणाली द्वारा दी जाने वाली शिक्षा बालकों के लिए भार नहीं होती है। यह उनके लिए एक मनोरंजन का साधन होती है। अतः ज्ञानार्जन में अधिक सफल है।
खेल द्वारा शिक्षण-पद्धति का सैद्धान्तिक महत्त्व (Theoretical Importance of Teaching Method by Play-way)
(1) कार्य का रुचिकर हो जाना- खेल द्वारा शिक्षण-पद्धति में बालक जो कार्य करता है वह किसी के दबाव में न करके स्वेच्छा से करता है- अतएव कठिन, शुष्क एवं नीरस कार्य सरल, बोधगम्य और रुचिकर हो जाता है।
(2) खेल पद्धति अभिव्यक्ति का सर्वोत्तम साधन- खेल में बालक की स्वाभाविक आनन्ददायक रचनात्मक और आत्म-प्रवृत्यात्मक दृष्टि होती है। इस कारण खेल द्वारा शिक्षण में बालक जो भी ज्ञानात्मक एवं क्रियात्मक व्यवहार करता है उसमें वह अपने आपको पूरी तरह से अभिव्यक्त करता है।
(3) छात्रों में सौन्दर्य भावना का विकास- बालक खेल में सौन्दर्य की अनुभूति करता है। अतएव खेल द्वारा शिक्षण-पद्धति में जो क्रियाएँ कराई जाती हैं उनके फलस्वरूप उसमें सौन्दर्य की भावना का विकास होता है।
(4) करके सीखने का अवसर खेल द्वारा शिक्षण- पद्धति में बालकों को अधिकतर हाथ से काम कराया जाता है। इस तरह इस पद्धति में बालकों को करके सीखने का अवसर प्राप्त होता है।
(5) मुक्तयात्मक अनुशासन का स्थान- खेल शिक्षण विधि में बालक विद्यालय के विभिन्न कार्यों को करने में स्वतन्त्रता और उत्तरदायित्व का अनुभव करते हैं फलस्वरूप बालक मुक्तयात्मक अनुशासन में कार्य करने का अवसर प्राप्त करते हैं।
(6) बालकों को स्थायी ज्ञान का विकास- खेल द्वारा बालक जो ज्ञान प्राप्त करता है वह आत्मप्रेरित रुचिपूर्ण, व्यावहारिक एवं स्वलक्षित होता है। फलस्वरूप इस प्रकार के ज्ञान को वह कभी नहीं भूलता है और वह उसके जीवन का स्थायी अंग बन जाता है।
(7) मनोवैज्ञानिक पद्धति- खेल द्वारा शिक्षण-पद्धति का एक लाभ यह है कि यह श्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक पद्धति है। इसमें बालक जो ज्ञान प्राप्त करता है वह उसकी आवश्यकताओं, प्रवृत्तियों, रुचियों और क्षमताओं के अनुकूल होता है।
खेल पर आधारित शिक्षण-पद्धतियाँ (Teaching Methods Bases of Play-way)
आधुनिक युग में खेल पर आधारित शिक्षण-पद्धतियों का विकास हुआ है। इसमें से प्रमुख का उल्लेख यहाँ संक्षेप में किया जा रहा है-
(1) किण्डरगार्टन पद्धति– प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री फ्रोबेल ने पूरी तरह से खेल पर आधारित किण्डरगार्टन पद्धति का प्रतिपादन किया। उन्होंने रचना और गीत के माध्यम से बालकों को शिक्षा देने की योजना बनाई जो कि खेल का ही स्वरूप है। साथ ही फ्रोबेल ने खेल पर आधारित उपहारों को भी महत्त्व प्रदान किया।
(2) मॉण्टेसरी पद्धति- मेरिया मॉण्टेसरी ने इस पद्धति का प्रवर्त्तन किया। इस पद्धति में बालकों को नाना प्रकार के खिलौनों के बीच खेलते हुए ज्ञानार्जन का अवसर प्रदान किया जाता है। मॉण्टेसरी का विचार है कि जिस तरह बालक खेल में आनन्दित होता है उसी तरह शिक्षालय का वातावरण भी इस प्रकार होना चाहिए कि बालक आनन्द का अनुभव करें।
(3) प्रोजेक्ट पद्धति– इस पद्धति का प्रतिपादन डब्लू० एच० किलपैट्रिक ने किया। इस पद्धति के अन्तर्गत बालकों को नाना प्रकार की दैनिक आवश्यकताओं से सम्बन्धित कार्य करते हुए शिक्षा प्रदान की जाती है। भोजन बनाना, मेला अथवा बाजार का आयोजन, सीना-पिरोना, कुर्सी बनाना, खिलौना बनाना आदि कार्य करते हुए स्वतन्त्रतापूर्वक दैनिक जीवन से सम्बन्धित कार्य करते हैं
(4) डाल्टन प्रणाली– इस प्रणाली का प्रतिपादन श्रीमती पार्वहर्स्ट ने अमेरिका में डाल्टन नगर के डाल्टन स्कूल में किया। इस पद्धति के अन्तर्गत न तो समय विभाजन-चक्र की आवश्यकता होती है और न घंटी की पाबन्दी । वैयक्तिकता एवं सामाजिक स्वरूप इस प्रणाली के प्रमुख नियम हैं। इस पद्धति में बालक प्रयोगशालाओं में जाकर कार्य करते हुए शिक्षा ग्रहण करते हैं। शिक्षक का कार्य केवल छात्रों का ज्ञानार्जन में सहायता प्रदान करना होता है।
(5) ह्यूरिस्टिक पद्धति- इस पद्धति का प्रतिपादन प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री आर्मस्ट्रांग ने किया था। इस पद्धति के समस्त नियम एवं कार्य उसी तरह होते हैं जैसे कि खेल में होते हैं। इस पद्धति में बालक को स्वतन्त्रतापूर्वक अन्वेषण कार्य करने और ज्ञान प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होता है। दुकान लगाना, कागज बनाना, सीना – पिरोना, मेले अथवा बाजार का आयोजन द्वारा खेल-खेल में ही ज्ञानार्जन होता है।
(6) बालचर पद्धति- इस पद्धति का प्रतिपादन वाडेन पॉवेल ने किया और आधुनिक युग में यह अत्यन्त प्रचलित है। इस पद्धति में बालक अवकाश के समय मण्डली बनाकर सरस्वती यात्रायें करते हैं, नाना प्रकार के अच्छे खेल खेलते हैं, नाटक विधि का आयोजन करते हैं जिससे कि उनके व्यक्तित्व का सुचारु रूप से विकास होता है। बी० एन० झा ने लिखा है “खेल प्रवृत्ति के दृष्टिकोण से हम देखते हैं कि बालचर क्रियाएँ प्रायः समस्त खेल सिद्धान्तों के अनुसंधानों पर आधारित हैं।”
खेल-प्रणाली के गुण (Advantage of Play-way Method)
खेल-प्रणाली के निम्नलिखित गुण हैं-
(1) शारीरिक विकास- खेल द्वारा बालक का शारीरिक विकास होता है। उसके शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार होता है और उसमें शक्ति, जोश एवं स्फूर्ति का संचार होता है। परीक्षणात्मक, गत्यात्मक और युयुत्सात्मक खेल बालक के शारीरिक विकास में महान योगदान देते हैं।
(2) मानसिक विकास- अनेक प्रकार के खेल ऐसे होते हैं जिनके माध्यम से बालक की मानसिक शक्तियाँ जैसे चिन्तन, तर्क, कल्पना, विश्लेषण, अवधान और स्मृति आदि का विकास होता है एवं उसमें तीक्ष्णता आती है।
(3) सामाजिक गुणों का विकास- सामाजिक रूप से खेल खेलने में बालकों में प्रेम, सौहार्द्र आदि सामाजिक गुणों का विकास होता है। उनमें सहयोग, सहानुभूति, दया, परोपकार एवं बलिदान के गुण सहज रूप में उत्पन्न हो जाते हैं।
(4) चरित्र का विकास- खेल पद्धति में बालक की प्राकृतिक शक्तियों का विकास उन्मुक्त वातावरण में होता है। उसके ऊपर किसी भाँति का बन्धन नहीं होता जिसके फलस्वरूप उसकी प्राकृतिक शक्तियों का दमन नहीं होता और वह खेल ही खेल में अनेक चारित्रिक गुणों को आत्मसात् कर लेता है। खेल के माध्यम से बालक में सहानुभूति, सच्चाई, कर्त्तव्य-परायणता, समय- पालन आदि की भावना स्वयं उत्पन्न हो जाती है।
(5) व्यक्ति का सर्वांगीण विकास- खेल-पद्धति बालक के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से उपयोगी है। उसके माध्यम से बालक का शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक सभी तरह का विकास सम्भव है। यही कारण है कि रॉस ने लिखा है, “खेल प्रकृति की एक शिक्षण-विधि है।”
(6) मूल प्रवृत्तियों का मार्गान्तीकरण- परीक्षात्मक, रचनात्मक और बौद्धिक खेलों के द्वारा बालक की मूल प्रवृत्तियों का शोधन और मार्गान्तीकरण होता है।
(7) ज्ञान का स्थायित्व- खेल पद्धति द्वारा बालक को जो ज्ञान प्राप्त होता है वह स्थायी रहता है। इस पद्धति में बालक स्वयं अपने परीक्षण एवं विश्लेषण के आधार पर ज्ञान की खोज करता है और फलस्वरूप वह ज्ञान स्थायी होता है।
(8) रुचिपूर्ण शिक्षा तथा मौलिकता में वृद्धि- खेल-पद्धति बालक की रुचि के अनुकूल शिक्षा की व्यवस्था करती है। खेल के अन्तर्गत बालक किसी कार्य को नवीन ढंग से करने का प्रयास करता है और नई-नई योजनाएँ सोचता है।
खेल-प्रणाली के दोष (Disadvantages of Play-way Method)
यह ठीक है कि खेल पद्धति शिक्षण की एक अत्यन्त उपयोगी पद्धति है परन्तु उसके कुछ अपने कतिपय दोष हैं। यहाँ उनकी चर्चा संक्षेप में की जा रही है-
(1) उच्च कक्षाओं के हेतु अनुपयोगी- खेल पद्धति छोटी कक्षाओं के लिए तो उपयोगी है परन्तु बड़ी कक्षाओं के हेतु खेल के माध्यम से शिक्षा प्रदान करना सम्भव नहीं। है। उच्च कक्षाओं में इसका प्रयोग अत्यन्त कठिन और अनुपयुक्त होता है। उच्च कक्षाओं में विषयों का प्रतिपादन विशद् एवं शृंखलाबद्ध होना अत्यन्त आवश्यक है जो इस पद्धति से सम्भव नहीं है।
(2) स्वतंत्रता का दुरुपयोग- खेल पद्धति के अन्तर्गत बालक को स्वतन्त्र छोड़ दिया जाता है। परिणाम यह होता है कि अक्सर वह स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करने लगता है और इस प्रकार खेल द्वारा शिक्षा का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है।
(3) गम्भीरता का अभाव- खेल पद्धति का एक दोष यह भी हो जाता है कि उसमें गम्भीरता का अभाव रहता है। बालक के ऊपर अत्यधिक उत्तरदायित्व लाद दिया जाता है, जिसको सँभालने में वह अपने को असमर्थ पाता है। बालक सदैव स्वच्छंदता के वातावरण में रहता है और परिणामस्वरूप उसमें गम्भीरता का समावेश नहीं हो पाता।
(4) धन का अपव्यय- खेल पद्धति का प्रयोग गरीब देशों में इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि इस पद्धति में काफी धन की आवश्यकता होती है। कभी-कभी वातावरण अत्यन्त आडम्बरपूर्ण हो जाता है और काफी धन का अपव्यय होता है।
(5) अनुशासनहीनता- खेल द्वारा शिक्षा प्रदान करने में कभी-कभी बालक निरंकुश हो जाता है तथा वह मनमाने ढंग से अपनी प्राकृतिक शक्तियों का प्रकाशन प्रारम्भ कर देता है। परिणाम यह होता है कि उसमें अनुशासनहीनता आ जाती है और वह समाज के लिए अत्यन्त हानिकारक होता है ।
(6) खेल और शिक्षा एक-दूसरे के विरोधी- कुछ विचारकों का मत है कि खेल और शिक्षा एक-दूसरे के पूर्णतया विरोधी हैं। फलस्वरूप, खेल को शिक्षा का माध्यम बनाना उचित नहीं है।
(7) समय का दुरुपयोग- खेल द्वारा शिक्षा प्रदान करने में अत्यधिक समय की आवश्यकता होती है और बहुधा समय का दुरुपयोग भी होता है।
(8) कुछ ही विषयों की शिक्षा सम्भव- खेल के द्वारा सभी विषयों की शिक्षा सम्भव नहीं है। इसके द्वारा केवल कुछ विषयों का प्रारम्भिक ज्ञान प्रदान किया जा सकता है। दर्शनशास्त्र, साहित्य, भगोल, विज्ञान आदि का अध्ययन इस पद्धति द्वारा सम्भव नहीं है।
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