स्पीयरमैन का द्वि-तत्त्व सिद्धान्त (Spearman’s Two Factor Theory)
स्पीयरमैन ने अपने अध्ययनों के आधार पर 1970 ई० में बुद्धि के दो कारकों अथवा तत्त्वों का उल्लेख किया। एक को सामान्य तत्त्व (General Factor (‘G’ Factor) और दूसरे को विशिष्ट तत्त्व (Specific Factor ‘S’) की संज्ञा दी इसलिये उसके सिद्धान्त को द्वि-तत्त्व सिद्धान्त कहा जाता है। स्पीयरमैन ने दोनों तत्त्वों की अलग-अलग व्याख्या की। उसने सामान्य | तत्त्व की व्याख्या करते हुए कहा कि बुद्धि का यह एक ऐसा अंश है जो व्यक्ति के सभी संज्ञानात्मक कार्यों को सामान्य रूप से प्रभावित करता है। इस तरह उन्होंने सामान्य तत्त्व को एक ऐसी मानसिक शक्ति माना जो व्यक्ति के सभी संज्ञानात्मक कार्यों में समान रूप से सहायता करती है। दूसरी बात है कि बुद्धि का अधिकांश भाग सामान्य तत्त्व से सम्बन्धित होता है अर्थात् सामान्य तत्त्व ही बुद्धि का प्रधान रूप है। यदि बुद्धि को एक इकाई माना जाय तो इसमें सामान्य तत्त्व का हिस्सा लगभग 95 प्रतिशत होगा। स्पीरमैन ने विशिष्ट तत्त्व (‘S’ Factor ) की व्याख्या करते हुए कहा कि बुद्धि का यह बहुत छोटा रूप है। यदि बुद्धि को एक इकाई माना जाय तो इसका हिस्सा लगभग 5 प्रतिशत होगा। दूसरी बात यह है कि विशिष्ट तत्व की मात्रा निश्चित नहीं रहती है। एक ही व्यक्ति में इसकी मात्रा भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न हो सकती है।
स्पीयरमैन ने बुद्धि के सामान्य तत्त्व और विशिष्ट तत्त्व को सिद्ध करने हेतु सह-सम्बन्ध विधि (Correlation method) को ज्ञात किया। इसे कोटि अन्तर सह-सम्बन्ध विधि (Rank difference Correlation method) कहा है। इस विधि द्वारा उसने व्यक्ति के भिन्न-भिन्न संज्ञानात्मक कार्यों के मध्य सह-सम्बन्ध निकाला। उसने पाया कि एक व्यक्ति के भिन्न-भिन्न कार्यों के मध्य काफी गहन सह-सम्बन्ध होता है। यदि व्यक्ति एक कार्य में अत्यधिक सफल प्रमाणित होता है तो वह अन्य कार्यों में भी लगभग उतना ही सफलता प्राप्त करता है। यदि व्यक्ति एक कार्य में साधारण सफलता प्राप्त करता है तो वह अपने अन्य कार्यों में भी लगभग उतनी ही सफलता प्राप्त करता है। स्पीयरमैन ने इसी वास्तविकता को दृष्टि में रखते हुए सामान्य बुद्धि अथवा सामान्य तत्व (‘G’ Factor) की कल्पना की। उसका विश्वास है कि व्यक्ति को ऐसी मानसिक शक्ति अवश्य है जो व्यक्ति को सभी परिस्थितियों में समान रूप से सहायता प्रदान करती है।
विशिष्ट तत्त्व अथचा योग्यता को प्रमाणित करने के लिए भी स्पीयरमैन ने सह-सम्बन्ध विधि का आश्रय लिया। उसने देखा कि एक व्यक्ति के भिन्न-भिन्न संज्ञानात्मक कार्यों में धनात्मक सम्बन्ध होते हुए भी पूर्ण सह-सम्बन्ध नहीं होता, अर्थात् व्यक्ति के कार्यों में काफी समानता होते. हुए ( कुछ-न-कुछ अन्तर अवश्य दिखाई देता है। उसने इसी दूसरे कारक को विशिष्ट तत्व भी (‘S’ Factor) अथवा विशिष्ट योग्यता की संज्ञा दी।
द्वि-तत्त्व सिद्धान्त के अनुसार सामान्य बुद्धि एक होती है जबकि विशिष्ट बुद्धि अनेक हो सकती है। दूसरे शब्दों में- सामान्य तत्त्व को कई खण्डों में विभाजित नहीं किया जा सकता जबकि विशिष्ट तत्त्व को कई खण्डों में विभाजित किया जा सकता है। भिन्न-भिन्न विशिष्ट योग्यताओं में कोई पारस्परिक सम्बन्ध नहीं होता।
मूल्यांकन- स्पीयरमैन के द्वि-तत्त्व सिद्धान्त का मूल्यांकन उसके गुण-दोष के आधार पर किया जा सकता है।
गुण- स्पीयरमैन के द्वि-तत्त्व सिद्धान्त का काफी स्वागत हुआ। मनोविज्ञान, शिक्षा एवं समाजशास्त्र में यह सिद्धान्त विशेष गुणों के कारण काफी लोकप्रिय हुआ। इस सिद्धान्त के गुण निम्नवत् है-
(1) इस सिद्धान्त का शोध-मूल्य अन्य सिद्धान्तों की तुलना में कहीं अधिक है। इस सिद्धान्त से प्रभावित होकर अनेक मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि के क्षेत्र में शोधकार्य प्रारम्भ किया और बुद्धि के स्वरूप एवं बुद्धि को मापने की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
(2) बुद्धि के स्वरूप को निर्धारित करने एवं बुद्धि परीक्षणों के निर्माण में इस सिद्धान्त को प्राथमिकता प्राप्त है। इस सिद्धान्त को बुद्धि का प्रथम व्यवस्थित सिद्धान्त माना जाता है। इस सिद्धान्त से प्रभावित होकर थॉर्नडाइक ने बहुतत्त्व सिद्धान्त, थर्स्टन ने समूह – तत्त्व सिद्धान्त, वर्नन ने श्रृंखला सिद्धान्त और गिलफोर्ड ने त्रिविमात्मक सिद्धान्त का विकास किया ।
(3) अधिकांश बुद्धि परीक्षणों का निर्माण इसी सिद्धान्त की अभिधारणाओं के आधार पर किया गया।
(4) इस सिद्धान्त के आधार पर व्यक्ति के व्यवहारों अथवा निष्पादनों के बीच समानता की व्याख्या सम्भव हुई है।
(5) इस सिद्धान्त के प्रकाश में व्यक्ति के व्यवहारों अथवा निष्पादनों के मध्य भिन्नता की व्याख्या सम्भव हुई है।
(6) यह सिद्धान्त वैयक्तिक भिन्नताओं (Individual differences) की व्याख्या करने में काफी हद तक सफल है। स्पीयरमैन ने वैयक्तिक भिन्नताओं की व्याख्या सामान्य तत्त्व और विशिष्ट तत्त्व के आधार पर की है।
दोष अथवा सीमाएँ (Demerits and Limitations)
उपयुक्त गुणों के बावजूद इस सिद्धान्त पर कई आपत्तियाँ भी लगाई गई हैं, जो निम्नवत् है-
(1) थॉर्नडाइक ने इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए कहा कि बुद्धि की संरचना दो तत्त्वों से नहीं बल्कि अनेक तत्त्वों से हुई है। इसी प्रकार थॉमसन, गिलफोर्ड, थर्स्टन ने भी स्पीयरमैन के द्वि-तत्त्व सिद्धान्त की आलोचना की है।
(2) स्पीयरमैन ने व्यक्ति के संज्ञानात्मक कार्यों के मध्य सह-सम्बन्ध को ही सामान्य तत्त्व का आधार माना किन्तु उनका यह आधार बहुत कमजोर है। इसका कारण यह है कि विभिन्न कार्यों के मध्य सह सम्बन्ध की मात्रा बहुत होती है।
(3) पीयर्सन ने इस सिद्धान्त की आलोचना में कहा कि यह सिद्धान्त बहुत थोड़े प्रयोगात्मक प्रमाणों पर आधारित है इसलिये इसे अधिक विश्वसनीय नहीं माना जा सकता।
(4) एक आपत्ति यह लगाई गई कि बुद्धि मापकों अथवा बुद्धि परीक्षणों के मध् य अन्तः सम्बन्धों की व्याख्या केवल सामान्य तत्त्व के आधार पर सम्भव नहीं है। परीक्षणों अथवा मापकों के मध्य अन्तःसम्बन्धों से ज्ञात होता है कि सामान्य तत्त्व के अतिरिक्त कुछ अन्य तत्त्व भी हैं।
उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि द्वि-तत्त्व सिद्धान्त की कुछ कमियों के बावजूद बुद्धि के स्वरूप एवं संरचना की व्याख्या करने में यह काफी हद तक सफल रहा है।
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