बुद्धि के सिद्धान्त (Theory of Intelligence)
बुद्धि के सिद्धान्त उसके स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं। बुद्धिं का स्वरूप क्या है ? बुद्धि कैसे कार्य करती है ? बुद्धि किन तत्त्वों से निर्मित है ? मनोवैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों एवं शोध के आधार पर इन प्रश्नों से सम्बन्धित अनेक निष्कर्ष निकाले हैं। इन निष्कर्षों को ही बुद्धि के सिद्धान्तों की संज्ञा दी जाती है। बुद्धि के प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार हैं
(1) एक-खण्ड सिद्धान्त (Unifactor Theory)
बुद्धि के एक-खण्ड सिद्धान्त का प्रतिपादन विने, टरमेन और स्टर्न ने किया है। इन्हेंने बुद्धि को एक पूर्ण खण्ड माना है। उपरोक्त विद्वानों के अनुसार बुद्धि एक इकाई है। यह आवेभाज्य है। अतः इसका विभाजन नहीं किया जा सकता। इसी आधार पर बिने ने बुद्धि की एक परिभाषा करते हुए लिखा है कि बुद्धि में ‘सम्यक् निर्णय की योग्यता’ होती है। टरमेन भी इसे एक पूर्ण खण्ड मानते हैं। उनके अनुसार, प्रत्ययों के अनुसार सोचने की क्षमता को ही बुद्धि कहते हैं। इन विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला कि विविध स्वतन्त्र प्रभावों को एक पूर्ण इकाई के रूप में अभिव्यक्त करने की योग्यता को ही बुद्धि कहते हैं।
परन्तु आधुनिक मनोवैज्ञानिक इस बात से सहमत नहीं हैं। उनका कथन है कि योग्यता का विभिन्न परीक्षणों में कोई सह-सम्बन्ध नहीं है। अतः किसी एक योग्यता को बुद्धि नहीं कहा जा सकता। योग्यता की विभिन्न परीक्षाओं ने इस सिद्धान्त को अमूल्य सिद्ध कर दिया है।
(2) द्वि-खण्ड सिद्धान्त (Two Factor Theory)
बुद्धि के द्वि-खण्ड सिद्धान्त के प्रतिपादक स्पीयरमैन हैं। उन्होंने 1904 में अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इस सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि दो खण्डों से मिलकर बनी हुई है। स्पीयरमैन के अनुसार ये दो खण्ड इस प्रकार हैं-
(अ) सामान्य बौद्धिक खण्ड या सामान्य योग्यता या तत्त्व या G,
(ब) विशिष्ट बौद्धिक खण्ड या विशिष्ट योग्यताएँ या विशिष्ट तत्त्व या S।
(अ) सामान्य योग्यता- स्पीयरमैन विशिष्ट योग्यताओं की अपेक्षा सामान्य योग्यता को अधिक महत्त्व देते हैं। उनके अनुसार सभी व्यक्तियों में यह योग्यता पाई जाती है। यह हो सकता है कि उसकी मात्रा कम या अधिक हो। सामान्य योग्यता जीवन के सभी कार्यों में प्रयुक्त की जाती है। विज्ञान, दर्शन या अन्य कठिन विषयों में सामान्य योग्यता ही काम में आती है। सामान्य योग्यता की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(i) सामान्य योग्यता वंशानुक्रम से मिलती है।
(ii) सामान्य योग्यता में परिवर्तन होता रहता है।
(iii) सामान्य योग्यता व्यक्ति के सभी कार्यों में प्रयुक्त होती है।
(iv) सामान्य योग्यता प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग होती है।
(v) व्यक्ति की सफलता सामान्य योग्यता की मात्रा पर ही निर्भर करती है।
(vi) सामान्य भाषा, साहित्य, दर्शन तथा विज्ञान आदि विषयों में सफलता प्रदान करती है।
(ब) विशिष्ट योग्यताएँ – कुछ विशिष्ट कार्यों में इस प्रकार की योग्यताओं का प्रयोग किया जाता है। कुछ ऐसे कार्य होते हैं जिनमें विशिष्ट ‘खण्डों’ की सहायता ली जाती है। इस प्रकार के कार्यों में सामान्य खण्ड की आवश्यकता नहीं पड़ती। सभी प्रकार के कार्यों में तत्सम्बन्धी एक विशिष्ट खण्ड ‘S’ की आवश्यकता होती है।
विशिष्ट योग्यताओं की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
(i) सामान्य योग्यताएँ अर्जित की जा सकती हैं। इनका सम्बन्ध पर्यावरण से होता है।
(ii) ये योग्यताएँ अनेक हो सकती हैं। ये एक-दूसरे पर आश्रित नहीं होतीं।
(iii) विभिन्न योग्यताओं का सम्बन्ध विभिन्न कुशलताओं से होता है।
(iv) ये योग्यताएँ विभिन्न व्यक्तियों में अलग-अलग मात्रा में होती हैं।
(v) जिस व्यक्ति में जो विशेष योग्यता होती है, उसी में वह विशेष कुशल होता है।
(vi) विशिष्ट योग्यताएँ भाषा विज्ञान तथा दर्शन में विशेष सफलता प्रदान करती हैं।
आधुनिक मनोवैज्ञानिक उक्त सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते। इसके कारण निम्न हैं-
(i) थार्नडाइक के अनुसार बुद्धि में सामान्य योग्यता जैसी कोई शक्ति नहीं है।
(ii) उसके अनुसार किसी भी मानसिक क्रिया में अनेक तत्त्व सम्मिलित होते हैं।
(iii) सामान्य योग्यता (G Factor) को भी अनेक योग्यताओं में विभाजित किया जा सकता है।
इस सन्दर्भ में मन का कथन “मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि स्पीयरमैन जिसे सामान्य योग्यता बताता है, उसे अनेक योग्यताओं में विभाजित किया जा सकता है।”
(3) त्रि-खण्ड सिद्धान्त (Three Factor Theory)
इस सिद्धान्त का भी प्रतिपादन स्पीयरमैन ने किया है। स्पीयरमैन ने अपने द्वि-खण्ड सिद्धान्त से आगे चलकर एक खण्ड और जोड़ दिया। इसका नाम उसने सामूहिक खण्ड या तत्त्व रखा। बुद्धि के समूह खण्ड से उसका तात्पर्य कुछ ऐसे खण्डों से था जो सामान्य योग्यता की अपेक्षा कम सामान्य, विस्तृत तथा सजातीय एवं विशिष्ट खण्ड या योग्यता की अपेक्षा अधिक सामान्य, सुदूर, विस्तृत तथा सजातीय होते हैं। इस प्रकार स्पीयरमैन के पहले सिद्धान्त के दो खण्ड अर्थात् (G and S Factor) में समूह खण्ड (Group Factor) और मिलकर तीन खण्ड हो जाते हैं। इसके आधार पर ही सिद्धान्त को त्रि-खण्ड सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है।
परन्तु मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि के इस सिद्धान्त की भी अमान्य कर दिया। इस सन्दर्भ में को तथा क्रो का यह कहना उल्लेखनीय है-“यह सिद्धान्त व्यक्ति की मानसिक योग्यताओं पर पर्यावरण के प्रभावों को स्वीकार न करके बुद्धि के वंशानुक्रम से प्राप्त किये जाने को स्वीकार करता है।”
थार्नडाइक इस सिद्धान्त का खण्डन किया है। उनका कहना है कि सामान्य योग्यता. को स्वीकार करना तथ्यों को अत्यधिक सरल बना देना है। उसका विश्वास है कि बौद्धिक कार्य एक जटिल तन्तु संस्थान द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं।
(4) बहुकारक सिद्धान्त
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन थार्नडाइक (Thorndike) ने किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि कई कारकों के संयोग से बनी है, ये स्वतन्त्र होते हैं तथा विभिन्न विशिष्ट मानसिक योग्यताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। किसी कार्य को करने के लिए इन कारकों के विभिन्न समूहों की आवश्यकता पड़ती है। यदि दो कार्य एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं तो इसका अर्थ उनके लिए आवश्यक कारक समूहों में कुछ कारकों का उभयनिष्ठ होना है। इस सिद्धान्त के अनुसार सामान्य बुद्धि जैसा कोई कारक नहीं होता है। थार्नडाइक ने उभयनिष्ठ कारकों के समूह के अस्तित्व को स्वीकारा है तथा इस आधार पर कई वर्गों की कल्पना की है। ध्यान से देखा जाए तो यह बुद्धि का आणविक सिद्धान्त है। व्यावहारिक प्रयोग के लिए विभिन्न कारक समूहों को वर्गीकृत करके उनका नामकरण किया गया है; जैसे शब्द-प्रवाह, गणना, स्मृति आदि ।
(5) समूह कारक सिद्धान्त
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन थर्सटन (Thurstone) ने किया है। थर्सटन के अनुसार बुद्धि कुछ प्राथमिक कारकों से मिलकर बनी है। इस सिद्धान्त के अनुसार एक जैसी मानसिक क्रियाओं में कोई एक प्राथमिक कारक उभयनिष्ठ होता है। जो उन सभी क्रियाओं का अन्य मानसिक क्रियाओं से विभेद स्पष्ट करता है। इस प्रकार कुछ मानसिक क्रियाएँ मिलकर विभिन्न वर्गों का निर्माण करती हैं। इन वर्गों में विभिन्न प्राथमिक कारक मुख्य भूमिका में होते हैं। ये प्राथमिक कारक एक-दूसरे से भिन्न तथा स्वतन्त्र होने हैं। वास्तव में यह सिद्धान्त द्विकारक एवं बहुकारक सिद्धान्तों के मध्य का सिद्धान्त है तथा एक प्रकार से यह दोनों का समन्वय करता है। सांख्यिकीय विधि से मुख्यतः छह प्राथमिक कारकों का पता चला है जिसे प्राथमिक मानसिक योग्यताएँ (Primary mental abilities) कहा जाता है। ये कारक हैं- आंकिक कारक, शाब्दिक कारक, स्थानिक कारक, तार्किक कारक, वाकपटुता कारक तथा स्मृति कारक, इन्हें क्रमशः N, I, S, R, W तथा M अक्षरों में दर्शाया जाता है। थर्सटन के अनुसार इन्हीं छह प्राथमिक कारकों के प्रयोग से व्यक्ति विभिन्न मानसिक कार्यों को सम्पादित करता है।
(6) बुद्धि की संरचना
गिलफर्ड (Guilford) ने बुद्धि की संरचना का त्रिविमीय प्रतिमान (मॉडल) प्रस्तुत किया। इस मॉडल के अनुसार बुद्धि की संरचना तीन विमाओं से मिलकर बनी हैं ये तीन विमायें हैं- क्रियाएँ (Operation), सामग्री (Content) तथा परिणाम (Product)। गिलफर्ड के अनुसार ये विमायें एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं तथा प्रत्येक मानसिक कार्य किसी एक क्रिया, एक सामग्री तथा एक परिणाम से युक्त होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार क्रियाएँ पाँच प्रकार की होती हैं-
(1) ज्ञान (Cognition).
(2) स्मृति (Memory),
(3) परम्परागत चिन्तन (Convergent thinking).
(4) अपरम्परागत चिन्तन (Divergent thinking) एवं
(5) मूल्यांकन (Evaluation)।
सामग्री का भी उन्होंने चार वर्ग बनाया है- (1) आंकिक (Figural), (2) सांकेतिक (Symbolic) (3) शाब्दिक (Semantic) तथा (4) व्यावहारिक (Behavioural) । परिणाम भी छह प्रकार के बताए गए हैं- (1) इकाई (Units), (2) वर्ग (Classes) (3) सम्बन्ध (Relations), (4) प्रणाली (Systems). (5) प्रत्यावर्तन (Transformations), तथा (6) निहितार्थ (Implications) । इस प्रकार गिलफोर्ड द्वारा दिया गया मॉडल 5x 4×6= 120 खण्डों या मानसिक क्रियाओं को व्यक्त करता है ।
उपरोक्त सिद्धान्त बुद्धि के स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं, परन्तु यह कहना कठिन है कि कौन-सा सिद्धान्त ठीक है और कौन-सा गलत। फिर भी बुद्धि के विभिन्न सिद्धान्त बुद्धि के स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं। इन सिद्धान्तों के आधार पर बालक की विभिन्न योग्यताओं की जानकारी की जा सकती है।
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