राजनीति विज्ञान / Political Science

न्याय का अर्थ एवं परिभाषा देते हुये उसकी विशेषतायें बताइये ।

न्याय का अर्थ एवं परिभाषा देते हुये उसकी विशेषतायें बताइये ।
न्याय का अर्थ एवं परिभाषा देते हुये उसकी विशेषतायें बताइये ।
न्याय का अर्थ एवं परिभाषा देते हुये उसकी विशेषतायें बताइये ।

न्याय का अर्थ एवं परिभाषा 

‘न्याय’ एक अत्यन्त जटिल अवधारणा है। उससे कानूनी स्थिति, राजनीति, सामाजनीति और अर्थनीति, इंन चारों का बोध होता है। इसके अतिरिक्त, नैतिकता व सदाचार सम्बन्धी सिद्धान्त भी उसी के अन्तर्गत आ जाते है। इसीलिए न्याय की परिभाषा करना सरल कार्य नहीं है। अंग्रेजी भाषा में ‘न्याय’ के लिए ‘Justice’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘Jus’ से बना है जिसका अर्थ उसी भाषा में ‘बन्धन’ या बाँधना (Bond or Tie) है। इसका आशय यह है कि ‘जस्टिस’ उस व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से सम्बद्ध है। ‘समाज’ सामाजिक बन्धनों का ही एक दूसरा नाम है। समाज में बच्चे हैं, माता-पिता है, विद्यार्थी है, शिक्षक है, कर्मचारी है, मालिक है, कृषक है, मजदूर हैं और साधारण नागरिक है। इन सबके अपने-अपने अधिकार है और एक-दूसरे के प्रति इनके कुछ कर्तव्य भी हैं। ‘न्याय’ का तकाजा है कि यह सभी अपनी-अपनी सीमाओं में रहें। समाज में जितने मनुष्य रहते हैं, उनमें से प्रत्येक को उसका उचित ‘अधिकार व स्थान’ (Due Place) दिलाने वाली व्यवस्था को ही न्यायपूर्ण व्यवस्था माना जाता है। आधुनिक विद्वानों द्वारा न्याय की जो परिभाषाएँ दी गई हैं, उनमें से कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

1. रॉबर्ट टकर (Robert C. Tucker) के मतानुसार, “न्याय का अर्थ है कि जब दो पक्षों या दो सिद्धान्तों के बीच संघर्ष हो तो उसका समाधान इस तरह से किया जाये कि किसी भी पक्ष के उचित अधिकारों का हनन न हो ।”

मेरियम के शब्दों में, “न्याय उन मान्यताओं और प्रक्रियाओं का योग है जिसमें सभी को वह दिया जाता है जिसे समाज सामान्य रूप से उचित समझता है।”

डी. डी. रफेल के शब्दों में, “न्याय उस स्थिति का नाम है जिसमें व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा होती है और समाज में व्यस्था भी बनी रहती है।”

बैन तथा पीटर्स (Bean and Peters) के मतानुसार, “न्याय का अर्थ है न्यायपूर्ण व्यवहार। अर्थात् जब तक कोई विशेष कारण न हो, तब तक सभी के प्रति एक समान व्यवहार किया जाए।”

न्याय की विशेषताएँ

(1) कानून के समक्ष समानता या निष्पक्षता का व्यवहार- न्याय में समानता और सबके प्रति निष्पक्षता का भाव होता है। कानून के सामने सभी समान होने चाहिए और उनके प्रति समानता का व्यवहार किया जाना चाहिए। एक ही प्रकार की परिस्थितियों में मनमाने ढंग से भेद करना अन्याय पूर्ण है। किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति भाषा या लिंग, धन आदि के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए।

(2) स्वतन्त्रता – न्याय का अन्य प्रमुख लक्षण व्यक्ति की स्वतन्त्रता है। अतः व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर उचित प्रतिबन्धों के अतिरिक्त अन्य कोई प्रतिबन्ध लगाना अन्यायपूर्ण है। शासक वर्ग द्वारा अपने स्वार्थ या शक्ति को बनाने रखने के लिए ही व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध नहीं लगाये जाने चाहिए।

(3) व्यक्ति के विकास के साथ-साथ सामाजिक कल्याण- न्याय व्यक्ति के विकास एवं सामाजिक व्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं उसके गौरव पर बल देता है। न्याय नागरिकों के लिए पारिवारिक स्वन्त्रता, भाषण और अभिव्यक्ति, सम्मेलन करने और समुदाय निर्माण की स्वतन्त्रता, धर्म पालन की स्वतन्त्रता और शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार, आदि प्रदान करता है, किन्तु न्याय की धारणा में यह बात निहित है कि इन सभी स्वतन्त्रातओं का उपयोग समाज के हितों को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए। इस प्रकार न्याय व्यक्ति के विकास और सामाजिक कल्याण के बीच सामंजस्य की स्थिति है। नागरिकों के अधिकारों पर समाज के हित में युक्तिसंगत प्रतिबन्ध लगाकर ही सबको न्याय दिलाया जा सकता है।

(4) मानवीय व्यवहार के सन्दर्भ में ही न्याय का प्रश्न उठता है ( Concept of Justice relates only to our dealing with Human Beings )- न्याय के सम्बन्ध में पहली महत्वपूर्ण बात यह है कि न्याय-अन्याय अथवा पक्षपात व निष्पक्षता का प्रश्न केवल मानवीय व्यवहार के सन्दर्भ में ही उठता है। डी. डी. रफेल कहते हैं कि मांसाहारी व्यक्ति बैल या भैंस को तो अपना आहार मानते हैं, घोड़ों को नहीं किन्तु इस आधार पर कोई व्यक्ति यह नहीं कहता कि बैल या भैंस के साथ अन्याय हो रहा है। इसका आशय यह है कि न्याय-अन्याय के पीछे मूल भावना यही है कि मनुष्यों के साथ किस प्रकार का व्यवहार किया जाता है।

(5) न्याय की कसौटी है-‘निष्पक्षता’ (Criterion of Justice is Impartiality ) – न्याय का आशय है कि मनुष्य-मनुष्य के बीच किसी प्रकार का भेदभाव न किया जाये। दूसरे शब्दों में, किसी भी व्यक्ति के साथ केवल धर्म, वंश, जाति, लिंग व जन्म स्थान के आधार पर कोई पक्षपात न किया जाये। इन आधारों पर कोई भी नागरिक किन्हीं अधिकारों या सुविधाओं से वंचित नहीं किया जा सकता। प्रशासकों और न्यायाधीशों को प्रायः यह परामर्श दिया जाता है कि “निष्पक्षता से कार्य करो, असंगत और अनुचित बातों पर ध्यान न दो, अपने निर्णय अथवा निश्चय को मित्रता, शत्रुता भय, लालच और महत्वाकांक्षा से प्रभावित न होने दो।”

( 6 ) न्याय का यह अर्थ नहीं है कि किसी भी प्रकार का भेद-भाव न हो (Justice does not mean doing away with discrimination of every Kind )- प्रायः यह कहा जाता है कि जन्म, जाति, रंग लिंग, धर्म या सम्पत्ति के आधार पर लोगों से भेद-भाव न किया जाये। निस्संदेह भेद भावों को दूर करना उचित ही माना जायेगा किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि किसी न्यायसंगत आधार पर भेद-भाव नहीं किया सकता। उदाहरणार्थ, भारत में यदि जैन मत का कोई अनुनायी किसी मांसाहारी को अपना मकान जिसमें वह स्वयं रहता हो, किराये पर न उठाये तो उसके इस कार्य को अन्यायपूर्ण नहीं कहा जा सकता। सरकार उन लोगों को जो बहुत अधिक निर्धन और शोषित हैं, कुछ विशेष सुविधाएँ देती है। सरकार के इस कार्य को हम अन्यायपूर्ण नहीं मानेंगे।

(7) बन्धुता अथवा भाईचारा (Fraternity ) – प्रो. बार्कर ने बन्धुता को ‘सहयोग’ नाम दिया है। उसके मतानुसार भाई-चारे की भावना के बिना राष्ट्रीय तथा देश भक्ति की भावना पुष्ट नहीं हो सकती। न्याय का तकाजा है कि देशवासी अपने को भाई-भाई समझें। नागरिकों में यदि प्रान्तीयता, प्रदेशवाद, साम्प्रदायिकता तथा संकीर्ण धार्मिक भावनाएँ घर कर जायें तो देश में आन्तरिक विद्रोह व गृह युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

( 8 ) प्रकृति की अनिवार्यताओं के प्रति सम्मान (Respect for the Necessities ) – प्रो. बैश्ट के मतानुसार प्रत्येक व्यक्ति की अपनी कुछ सीमाएँ है जो प्रकृति द्वारा निर्धारित की जाती हैं। उदाहरणार्थ, एक वृद्ध व बीमार व्यक्ति वह कार्य नहीं कर सकता जो एक नौजवान या स्वस्थ व्यक्ति कर सकता है। इन लोगों को उन कर्त्तव्यों या दायित्वों का पालन करने के लिए विवश न किया जाये जो उनकी क्षमता से बाहर है। दूसरे शब्दों में, मानव की कमजोरियों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है जो उन्हें प्रकृति से मिली है।

(9) न्याय का सम्बन्ध ‘सुनीति’ से है (justice has relation with equity )- सुनीति (Equity) तथा समानता (Equality) ये दोनों एक ही वस्तु नहीं है। समानता का सिद्धान्त बराबर-बराबर वितरण (Equal Distribution) पर अधिक बल देता है, जबकि सुनीति का सिद्धान्त यह कहता है कि अधिकारों या सुविधाओं का वितरण करते समय लोगों की आवश्यकता (Need), उनकी विशेष योग्यता (Merit) और क्षमता (Capcaity) पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। विश्वविद्यालय में प्रवेश के मामले को लीजिए। समानता के समर्थक यह कहेंगे कि प्रत्येक छात्र जिसने हायर सेकण्डरी या इण्टरमीडिएट कक्षा पास कर ली हो, विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने का अधिकार है। दूसरी ओर, सुनीति का सिद्धान्त यह कहता है कि केवल ऊँची प्रतिभा या विशिष्ट योग्यता के विद्यार्थियों को ही विश्वविद्यालय में प्रवेश मिलना चाहिए।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि न्याय का सम्बन्ध एक ओर व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा से है तो दूसरी ओर, इसका सम्बन्ध सामाजिक व्यवस्था के संरक्षण से भी है। व्यक्ति के हित व समाज के हित प्रायः एक-दूसरे के विरोधी नहीं हो सकते। फिर भी, यदा-कदा इन दोनों के बीच टकराव हो जाता है। ऐसी स्थिति में सामाजिक हितों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, यद्यपि इसका आशय नहीं है कि समाज के नाम पर मनुष्य के व्यक्तित्व और उसके गौरव को निर्ममता से कुचल दिया जाये।

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