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किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास | संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक

किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास
किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास

किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास (Emotional Development During Adolescence)

कोल और ब्रूस ने लिखा है, “किशोरावस्था के आगमन का मुख्य चिन्ह संवेगात्मक विकास में तीव्र परिवर्तन है।” रॉस का विचार है कि किशोर सघन संवेगात्मक जीवन व्यतीत करता है। यहाँ किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास की चर्चा संक्षेप में की जा रही है-

(1) विरोधी मनोदशाएँ- किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास विचित्र रूप से होता है। किशोर की संवेगात्मक अभिव्यक्ति में पर्याप्त अन्तर आ जाता है और उसका ज्ञान क्षेत्र व्यापक हो जाता है तथा उसकी संवेग उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ भी बदल जाती हैं।

किशोरावस्था में विरोधी मनोदशाएँ दिखाई पड़ती हैं। किशोर किसी विशेष परिस्थिति में अत्यधिक प्रसन्न हो जाता है और दूसरे प्रकार की परिस्थिति में बहुत अधिक दुःखपूर्ण दिखाई देता है। बी० एन० झा ने लिखा है, “जो परिस्थिति उक्त अवसर पर उसे प्रसन्न कर देती है वही परिस्थिति दूसरे अवसर पर उसे भिन्न लगती है।” इस तरह अधिकतर किशोर संवेगात्मक तनाव की स्थिति में रहते हैं। संवेगात्मक तनाव का प्रकाशन उनकी उदासीनता, निराशा, विद्रोह और अपराध प्रवृत्ति में होता

(2) भाव-प्रधान जीवन- किशोर का जीवन अत्यधिक भाव-प्रधान होता है, उसमें आत्म-गौरव की प्रवृत्ति अत्यन्त प्रबल होती है। किशोर किसी भी भाँति अपने आत्म-सम्मान पर चोट नहीं सहन कर सकता।

(3) काम-प्रवृत्ति का बाहुल्य- किशोरावस्था में एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है- काम-प्रवृत्ति का होना। इस अवस्था में होने वाले शारीरिक परिवर्तन उसे काम प्रवृत्ति की और प्रेरित करते हैं। इस अवस्था में विभिन्न योनि (Hetro-Sexuality) का नियम काम करता है। किशोर व किशोरी एक-दूसरे से मिलने के लिए बेचैन रहते हैं। इस मिलन के लिए वे संसार के बन्धनों से भी नहीं हिचकते। इस सम्बन्ध में बी० एन० झा ने लिखा है, “किशोरावस्था में बालक और बालिका दोनों में काम-प्रवृत्ति अत्यन्त तीव्र हो जाती है और अनेक संवेगात्मक परिवर्तन असाधारण प्रभाव डालते हैं।”

(4) जिज्ञासा की प्रवृत्ति की प्रबलता- किशोरावस्था में जिज्ञासा की प्रवृत्ति पुनः प्रबल हो जाती है। वह ‘क्या है ?” का उत्तर पाकर संतुष्ट नहीं होता बल्कि ‘क्यों’ और ‘किस प्रकार’ की विस्तृत विवेचना ही उसे संतुष्ट कर पाती है। इस प्रवृत्ति से प्रेरित होकर उसमें दार्शनिक, वैज्ञानिक शोध एवं अन्वेषणों की भावना का विकास होता है।

(5) कल्पनाशील जीवन- किशोर का जीवन कल्पनाशील होता है और वह दिवास्वप्नों में रहता है। वह अपने दिवास्वनों में अपने संवेगों को अभिव्यक्त करता है।

(6) क्रियाशीलता में वृद्धि- किशोरावस्था में क्रियाशीलता में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। इस अवस्था में खेल-कूद आदि में बहुत अधिक आनन्द की प्राप्ति होती हैं। किशोर इनके माध्यम से अपने संवेगों का प्रकाशन करता है।

(7) विशेष मूल प्रवृत्तियों का सक्रिय होना- किशोरावस्था में रचनात्मकता की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। किशोर में सामाजिकता की प्रवृत्ति भी अत्यन्त प्रबल होती है। उसमें सहानुभूति और संकेत (Suggestion) जैसी सामान्य प्रवृत्तियाँ भी दिखलाई पड़ती हैं जो कि उसके संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करती हैं।

संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Emotional Development)

किशोरावस्था में किशोर का संवेगात्मक विकास निम्न कारकों से प्रभावित होता है-

(1) शारीरिक स्वास्थ्य- बालक का शारीरिक विकास संवेगात्मक विकास को अत्यधिक प्रभावित करता है। शारीरिक रूप से दुर्बल और बीमार बालकों में संवेगात्मक विकास असन्तुलित होता है।

(2) बुद्धि- बालक के संवेग उसकी बुद्धि से प्रभावित होते हैं। कम बुद्धि वाले बालको का संवैगात्मक विकास मन्द होता है और वह बालक भय एवं ईर्ष्या का अधिक प्रदर्शन करते हैं।

(3) लिंग- बालक और बालिकाओं के संवेगों के प्रदर्शन के ढंग में पर्याप्त भिन्नता के दर्शन होते हैं। बालिकाएँ बालकों की अपेक्षा संवेग प्रदर्शन और उस पर नियन्त्रण समाज के नियमों के अनुरूप करना शीघ्र, सीख लेती हैं।

(4) घर का वातावरण- अत्यधिक लाड़-प्यार, तिरस्कार अथवा कठोर प्रवंचना में पलने वाले बालक असन्तुलित संवेगात्मक विकास का प्रदर्शन करते हैं। सुखद और शान्तिपूर्ण घरों में पलने वाले बालक स्वस्थ संवेगात्मक विकास का प्रदर्शन करते हैं। क्रो एवं क्रो ने लिखा है, “बालकों की उपेक्षा करना, बहुत देर तक घर से बाहर रहना, बालकों के लिए आवश्यकता से अधिक चिन्तिन रहना, बालकों की अत्यधिक सुरक्षा करना, माता-पिता की ये सभी बातें अवांछनीय संवेगात्मक व्यवहार के विकास में योगदान देती हैं।”

(5) सामाजिक वातावरण- अनुचित सामाजिक वातावरण बालकों के संवेगात्मक विकास को अनुचित रूप से प्रभावित करता है। वातावरण में घर, मोहल्ला, विद्यालय आदि सम्मिलित रहते हैं। गन्दी बस्तियों में रहने वाले बालक क्रोध, ईर्ष्या, विद्रोह, आक्रामकता आदि संवेगों का प्रदर्शन करते हैं।

(6) जन्म-क्रम- बालक के संवेगात्मक विकास पर उसके जन्म-क्रम का प्रभाव अवश्य पड़ता है। घर में बड़ा लड़का अथवा लड़की स्वस्थ संवेगों, यथा-प्रेम, स्नेह और आनन्द का प्रदर्शन करते हैं, वे अधिक गम्भीर एवं धैर्यवान होते हैं।

(7) विद्यालय एवं शिक्षक- परिवार के बाद विद्यालय और शिक्षक बालक के संवेगात्मक विकास को सबसे अधिक प्रभावित करते हैं। विद्यालय का पाठ्यक्रम अनुकूल होने पर बालक का संवेगात्मक विकास सन्तुलित ढंग से हो पाता है। बालक अपनी जिज्ञासा की भली-भाँति सन्तुष्टि और आनन्द की प्राप्ति करते हैं। विद्यालयीय पाठ्यक्रम के प्रतिकूल होने पर उनमें क्रोथ, घृणा, चिड़चिड़ापन जैसे स्थायी भाव जन्म लेते हैं।

शिक्षक विद्यालय में बालक के सन्तुलित संवेगात्मक विकास के अवसर जुटाता है। इससे बालक साहस, सहनशील, शान्तिप्रिय और जिज्ञासा के भावों को विकसित कर लेते हैं। शिक्षक स्वस्थ सन्तुलित व्यवहार द्वारा बालकों में संवेग नियन्त्रण क्षमता का विकास करता है। संक्षेप में, विद्यालय और शिक्षक, दोनों मिलकर बालक के संवेगात्मक विकास को स्वस्थ ढंग से पोषण करते हैं।

(8) थकान- थकान बालक के संवेगात्मक विकास को असन्तुलित करती है। थकान के तीव्र प्रभाव से बालक क्रोध और ईर्ष्या के संवेगों का प्रदर्शन करता है। इसके फलस्वरूप बालक में चिड़चिड़ापन, इन्द्र और हताशा के भाव उत्पन्न हो जाते हैं। अतएव बालक के स्वस्थ संवेगात्मक विकास के हेतु पर्याप्त विश्राम की आवश्यकता होती है। बालक को शारीरिक अथवा मानसिक थकान की अवस्था में रुचि के विरुद्ध कार्य करने के हेतु प्रेरित नहीं करना चाहिए।

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