पूर्वप्राथमिक (नर्सरी) स्कूल क्या हैं ? इनके उद्देश्य एवं महत्व का संक्षेप में वर्णन कीजिये। अथवा नर्सरी शिक्षा से आप क्या समझते ? नर्सरी शिक्षा की आवश्यकता एवं लाभ बताइये।
पूर्व प्राथमिक (नर्सरी) स्कूल का अर्थ-यह ऐसा स्कूल है जिसमें 5 वर्ष से कम आयु के बच्चे शिक्षा पाते हैं। प्राय: इस संस्था में प्रवेश की आयु तीन वर्ष होती है। इसके मुख्य उद्देश्य बच्चे को स्वस्थ तथा परिष्कृत वातावरण में रख कर उसके शारीरिक विकास, सामाजिक भावना तथा अभिव्यक्ति प्रक्रिया को उन्नत करना है। पढ़ना-पढ़ाना इसका मुख्य लक्ष्य नहीं है। इसके कार्यक्रमों में खेल, विश्राम, स्वच्छ आदतें डालना तथा सामूहिक रूप से रहने की प्रधानता रहती है।
नर्सरी स्कूल एक प्रकार से बच्चे का संसार है जहां बच्चे को अपनी रचनात्मक प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति के लिए सुन्दर, स्वास्थ्यवर्द्धक, सामाजिक तथा मनमोहक वातावरण प्राप्त होता है।
नर्सरी स्कूलों को अनेक नामों से पुकारा जाता है। (1) नर्सरी, (2) किंडरगार्टन, (3) पूर्व बेसिक, (4) पूर्व प्राथमिक, (5) बालोद्यान, (6) बाल सेवासदन, (7) बाल विद्यापीठ, (8) बालकन की बाड़ी, (9) बालकुंज, (10) गार्डन स्कूल, (11) किशोर स्कूल, (12) बाल लीला मन्दिर, (13) बाल मन्दिर, (14) बाल विहार, (15) शिशु शिक्षा सदन, (16) अभिनव बालशाला, (17) शिशु मन्दिर, (18) शिशु निकेतन, (19) शिशु केन्द्र, आदि।
नर्सरी शिक्षा का अर्थ प्राय: नर्सरी शिक्षा का तात्पर्य उस शिक्षा से लिया जाता है जो तीन वर्ष से पांच अथवा छ. वर्ष की आयु के बच्चों को दी जाती है। यह शिक्षा अनिवार्य प्राईमरी शिक्षा के शुरू होने तक दी जाती है।
नर्सरी स्कूलों के उद्देश्य
मिस ग्रेस ओवन ने नर्सरी स्कूलों के छ: उद्देश्य बताये हैं जिनका विवरण निम्न प्रकार है-
- बालकों के विकास के लिए धूप, रोशनी, खुला स्थान और स्वच्छ वायु के लिए स्वच्छ वातावरण उपलब्ध कराना।
- रोगों की रोक-थाम की व्यवस्था सहित स्वस्थ, सुन्दर और नियमित जीवन की व्यवस्था करना।
- बालकों में पर्याप्त अच्छी आदतों के विकास में सहयोग देना।
- कल्पना शक्ति, कला तथा अन्य रुचियों के विकास के लिए उपयुक्त अवसर प्रदान करना।
- सामाजिक जीवन का एक छोटा-सा ऐसा रूप प्रदान करना जिसमें विभिन्न आयु वाले बालक परस्पर काम करते हैं और खेलते हैं।
- वास्तविक जीवन का घर से समन्वय स्थापित करना ।
इस शिक्षा का उद्देश्य बच्चे की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ऐसा सामाजिक वातावरण बनाना है जिसमें वह अपना शारीरिक और मानसिक विकास कर सके। प्रतिद्वन्द्विता की अपेक्षा सहयोग को बल देना है। स्वतः प्रवर्तित क्रियाओं से भावात्मक विकास होता है। इससे बच्चे के मन में कार्य के प्रति आदर और प्रेमभाव बनता है जिससे वह कार्य को खेल समझता है और खेल में कार्य करता है।
एवोट तथा वुड डिस्पैच (1936-37) ने नर्सरी स्कूल की शिक्षा प्रणाली के सम्बन्ध में कहा था कि बच्चों की शिक्षा का उद्देश्य उनमें अच्छी आदतें डालना, शारीरिक विकास और सामाजिक अनुभवों को रुचिपूर्ण ढंग से बढ़ाना है। बाल विद्यालय ऐसे सुन्दर स्थान पर होने चाहिएं, जहां बच्चों के विकास के लिए वे सुविधायें प्राप्त की जा सकें जिनकी सराहना माता-पिता करते तो है परन्तु उन्हें अपने घर पर उपलब्ध नहीं कर पाते हैं ये क्रियायें हैं चित्रकला, गाना, अभिनय आदि । बच्चों का विकास क्रियात्मक ढ़ंग से सुव्यवस्थित वातावरण में अच्छा होता है। इन विद्यालयों में बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास का सूत्रपात कर दिया जाता है, जो उन्हें भावी नागरिकता के लिए आवश्यक विधिवत् शिक्षा पाने में सहायक सिद्ध होता है।
खेर समिति- 1939 की दूसरी खेर समिति ने सुझाव दिया था कि निम्न उद्देश्यों से नर्सरी स्कूलों की स्थापना के लिए राज्य सरकारों को आदेश दिया जाये:-
- उपयुक्त केन्द्रों में आदर्श नर्सरी और बाल विद्यालय स्थापित किये जायें।
- प्रशिक्षित अध्यापक बाल विद्यालयों के लिए उपलब्ध किए जायें।
- बाल विद्यालय में अनिवार्य शिक्षा की आयु आयु वाले बच्चों की संख्या को बढ़ाया जाए।
सारजेन्ट रिपोर्ट (1944) के अनुभव – राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली में नर्सरी स्कूल पूर्व प्राथमिक शिक्षा का उचित रूप है। अभी तक यह व्यवस्था नाममात्र है। इस सम्बन्ध में उसकी निम्नलिखित सिफारिशें थीं-
1. नगर के ऐसे भाग में जहां नर्सरी स्कूल के लिये पर्याप्त बालक हों, वहां नर्सरी स्कूल स्थापित किए जायें और दूसरे स्थानों में प्राथमिक स्कूलों में नर्सरी कक्षायें आरम्भ की जाये।
2. नर्सरी स्कूलों और कक्षाओं के लिए जहां तक सम्भव हो ऐसी अध्यापिकायें नियुक्त की जायें, जिन्होंने इस कार्य का विशेष प्रशिक्षण प्राप्त किया हो।
3. ऐसे क्षेत्र में जहां घर पर शिक्षा का वातावरण नहीं है अथवा मातायें नौकरी करती हैं, वहां माता-पिता को हर प्रकार से समझाना आवश्यक है कि वे स्वेच्छा से बालकों को पूर्व प्राथमिक स्कूलों में भेजें। इनमें प्रवेश अनिवार्य न हो, परन्तु शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिए।
4. इन शिक्षा संस्थाओं का उद्देश्य इस काल में विधिवत् शिक्षा देने की बजाए सामाजिक जानकारियां प्रदान करना हैं।
शिक्षा आयोग के अनुसार उद्देश्य
शिक्षा आयोग 1964-66 के विचार में पूर्व प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य नीचे लिखे प्रकार से निरूपित किए जा सकते हैं।
1. स्वस्थ आदतें डालना- बच्चे में अच्छी स्वस्थ आदतें डालना और व्यक्तिगत अनुकूलन के लिए जरूरी बुनियादी योग्यता पैदा करना, जैसे—पोशाक, नहाने धोने की आदतें, खाना, सफाई आदि ।
2. अनुभूतियों और संवेगों के विकास के लिए मार्गदर्शन- बच्चे को अपनी अनुभूतियों और संवेगों को अभिव्यक्त करने, समझने, मानने और नियन्त्रित करने में मार्गदर्शन देकर संवेगों के मामले में पीढ़ी को विकसित करना ।
3. वांछनीय सामाजिक अभिवृत्तियों का विकास- वांछनीय सामाजिक अभिवृत्तियों और शिष्टाचार विकसितकरना और स्वस्थ सामूहिक भागीदारी को प्रोत्साहित करना, जिससे बच्चे दूसरों के अधिकारों और विशेषाधिकारों के प्रति सजग रह सकें।
4. भाषा का विकास– बच्चे में अपने विचार और भावनाओं को धारावाहिक शुद्ध और स्पष्ट भाषा में व्यक्त करने की योग्यता को विकसित करना।
5. शारीरिक निपुणता विकसित करना- बच्चे में अच्छा शरीर गठन, पर्याप्त पेशी समन्वय और बुनियादी अंगचालन में निपुणता विकसित करना।
6. सौन्दर्य बोध- सौन्दर्य बोध को जगाना।
7. आसपास की दुनिया को समझ में करना- परिवेश के बारे में बौद्धिक जिज्ञासा की शुरुआत को प्रेरित करना और आसपास की उसकी दुनिया को समझने में उसकी मदद करना और खोज, पड़ताल और प्रयोग के अवसरों के जरिए नई अभिरुचियां पल्लवित करना।
8. आत्माभिव्यक्ति को प्रोत्साहन- बच्चे को आत्माभिव्यक्ति के काफी अवसर देकर आजादी और सृजनशीलता के लिए प्रोत्साहित करना ।
नर्सरी शिक्षा का महत्व
शिक्षा कमीशन (कोठारी कमीशन 1964-66) में नर्सरी शिक्षा के महत्व पर इस प्रकार बल दिया, “यह शिक्षा बच्चे के शारीरिक, संवेगात्मक और बौद्धिक विकास के लिए महत्वपूर्ण है। विशेषकर उन बच्चों के लिए जिनका घरेलू वातावरण असंतोषजनक है।”
यह सर्वविदित है कि बालकों के विकास में 3-6 वर्ष तक की आयु महत्वपूर्ण है और इसी आयु में भावी नागरिक के गुणों का बीजारोपण किया जाता है। इस अवधि में ही बालकों के भावी जीवन में आने वाली अक्षमताओं और दोषों को निश्चित वातावरण द्वारा रोका जा सकता है।
इसके साथ-ही-साथ हम यह भी अनुभव करते हैं कि पूर्व प्राथमिक शिक्षा-काल के दोष बालक के भावी जीवन के दोष का कारण बनते हैं। बालक में कुछ चारित्रिक गुण होते हैं। उन आवश्यक तथ्यों को मालूम करना और उनका विकास करना बहुत आवश्यक है जिनसे वह अपने वातावरण का उचित प्रयोग कर अपना वयस्क जीवन सफल बना सके। बालक के समुचित विकास के लिए उसकी रुचि अनुसार उसका पालन करना एवं देखभाल आवश्यक है। अतः बाल-शिक्षा समाज की महत्वपूर्ण समस्या है।
नर्सरी शिक्षा की आवश्यकता
निम्न कारणों से नर्सरी शिक्षा की आवश्यकता दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है:-
- अधिकांश घरों में शिक्षा के वातावरण का अभाव तथा नर्सरी स्कूल द्वारा इस अभाव की पूर्ति ।
- संयुक्त परिवार प्रथा के अभाव की पूर्ति करना ।
- वर्तमान अर्थव्यवस्था में स्त्रियों का काम पर जाना और बच्चों की देखभाल न कर सकना ।
- नर्सरी शिक्षा का प्राथमिक शिक्षा पर अच्छा प्रभाव ।
- आरम्भ से ही बच्चों को प्रभावी वातावरण प्रदान करना ।
नर्सरी शिक्षा से लाभ
- खुली हवा में शिक्षा प्राप्त करके छात्र शारीरिक दृष्टि से लाभ उठाते हैं।
- स्वस्थ आदतों का निर्माण होता है।
- आनन्ददायक गतिविधियों, लोक नृत्यों और स्वच्छन्द क्रिया-कलापों द्वारा बच्चों का तीव्र गति से विकास होता है।
- बालकों को उत्साहवर्द्धक वातावरण प्राप्त होता है।
- बालकों को रचनात्मक गतिविधियों में शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलता है।
- आत्मविश्वास और स्वतन्त्रता की आदतों का विकास होता है।
- माता पर अनावश्यक निर्भरता से बालक मुक्त होते हैं।
- बालकों को सहयोग तथा मिल-जुलकर रहने का प्रशिक्षण प्राप्त होता है।
- बालक सामाजिक जीवन के आदान-प्रदान की आदत को सीखता है।
- मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बालकों को अपनी रचनात्मक और विध्वंसात्मक आवश्यकताओं की संतुष्टि करने के अवसर प्राप्त होते हैं।
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