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प्राकृतिक पर्यावरण के घटक | पर्यावरण विघटन के मूल कारण

प्राकृतिक पर्यावरण के घटक
प्राकृतिक पर्यावरण के घटक

प्राकृतिक पर्यावरण के घटक

प्राकृतिक पर्यावरण के मुख्यतः दो घटक हैं-

1. भौतिक या अजैविक घटक- इसके अन्तर्गत स्थल, जल, मृदा और वायु सम्मिलित हैं।

2. जैविक घटक- इसके अन्तर्गत वनस्पति जगत्, सूक्ष्म जीव-जन्तु एवं हम मनुष्य आते हैं। जीवमंडल तन्त्र में प्राकृतिक पर्यावरण तन्त्र के जैविक तथा अजैविक घटकों द्वारा अंतर्क्रिया या नियंत्रण होता है। इस प्रकार इसके दोनों घटकों में अंतर्क्रिया एवं नियंत्रण के दौरान कोई परिवर्तन होता है तो उनकी आपसी प्रक्रिया के अन्तर्गत उस परिवर्तन विशेष की भरपाई हो जाती है। भरपाई की ये अवस्था अन्तर्निर्मित स्वतः नियामक क्रिया विधि द्वारा होती है जिसे अंग्रेजी में “Inbuilt self regulatory system or mechanism” कहा जाता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा पर्यावरण में अगर कोई परिवर्तन होता है तो इस परिवर्तन को दूसरे प्रकार से घटित परिवर्तन द्वारा क्षतिपूर्ति कर लिया जाता है। इस प्रकार स्वतः नियन्त्रित होने वाली क्रिया समस्थैतिक क्रिया विधि कहलाती है। जिसके कारण प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र या पर्यावरण तन्त्र में संतुलन बना रहता है।

पर्यावरण हमें जीने के लिए आश्रय, वस्त्र और भोजन के साथ अन्य उपयोगी तत्त्व, जैसे हवा, पानी और ऊर्जा प्रदान करती है। ये न सिर्फ हमें बल्कि अन्य जीव-जन्तुओं के लिए आवास प्रस्तुत करती है। जैविक तत्त्वों के रूप में हम मनुष्य अपने सुख-सुविधाओं के लिए आवास प्रस्तुत करती है। जैविक तत्त्वों के रूप में हम मनुष्य अपने सुख-सुविधाओं के लिए भौतिक पर्यावरण में परिवर्तन एवं संशोधन करते हैं। विज्ञान और तकनीक को अलग कर अपनी बुद्धि के गर्व में चूर हम में मानवों के प्राकृतिक संसाधनों का जो कि पर्यावरण का महत्त्वपूर्ण घटक हैं, का अंधाधुन्ध शोषण किया जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरण के जैविक एवं अजैविक घटकों में इतना अधिक परिवर्तन हो गया कि उसकी क्षतिपूर्ति अंतः निर्मित होमियोस्टेटिक क्रिया विधि द्वारा संभव नहीं हो पाता है जिसके कारण जीवमंडल के जीवों पर एवं हम मनुष्यों के स्वास्थ्य पर बहुत हानिकारक प्रभाव पड़ने लगा है बल्कि हम ये भी कह सकते हैं कि हमने पर्यावरण का उस सीमा तक परिवर्तन कर डाला है जिससे न केवल जीव-जन्तुओं का वरन् हमारा स्वयं का भी अस्तित्व खतरे में पड़ चुका है।

भौतिक पर्यावरण के स्वरूप में इस प्रकार के मानवजनित परिवर्तनों को पर्यावरण विघटन अथवा पर्यावरण अवनयन कहते हैं। पर्यावरण अवनयन/ विघटन का अर्थ है इसके भौतिक घटकों में जैविक घटक यानि हम मनुष्यों के हस्तक्षेप के कारण इस सीमा तक ह्रास या अवक्रमण हो जाना जिससे पर्यावरण की स्वतः नियामक क्रिया विधि द्वारा उसकी क्षतिपूर्ति नहीं हो सके यानि पर्यावरण की गुणवत्ता में इस सीमा तक ह्रास होना कि इन प्रतिकूल परिवर्तनों का जैविक समुदाय और मानव समुदाय पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है।

पर्यावरण विघटन के मूल कारण

इसके मूल कारण निम्नलिखित हैं-

1. प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा- इसमें कुछ कारण सम्मिलित हैं— भूकंप, आँधी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बाढ़, दावानल इत्यादि जिस पर हमारा नियन्त्रण नहीं होता क्योंकि ये अचानक घटने वाली प्राकृतिक प्रक्रियाएँ हैं।

2. मानवीय गतिविधियों द्वारा- पर्यावरण विघटन में मानवीय गतिविधियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। हमारी गतिविधियाँ जो पर्यावरण को विघटित करती हैं उसकी गति बहुत धीमी होती है किन्तु निरन्तर होती रहती है। इसे हम तुरन्त महसूस नहीं कर सकते पर इसका दूरगामी प्रभाव बहुत ही कष्टकर और दुःखदायी होता है।

पर्यावरण विघटन के लिए उत्तरदायी कारक निम्नलिखित हैं—

(1) जनसंख्या विस्फोट

पर्यावरण विघटन और पारिस्थितिकीय असंतुलन का मूल कारण जनसंख्या वृद्धि है क्योंकि जनसंख्या में लगातार वृद्धि होने से प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ता जा रहा है। कृषि भूमि का विस्तार, वन-विनाश, नगरीकरण, औद्योगीकरण एवं प्रदूषण इत्यादि जनसंख्या विस्फोट का परिणाम ही है। जनसंख्या में वृद्धि के साथ माँग और आपूर्ति में संतुलन के लिए प्राकृतिक संसाधनों का विदोहन किया जाने लगा है जो कहीं-न-कहीं पर्यावरण के जैविक एवं अजैविक घटकों को असंतुलित करने में बड़ी एवं महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने लगी है। अगर प्रागैतिहासिक काल से वर्तमान समय के जनसंख्या की तुलना करें तो पता चलता है कि ईसा से 8 हजार वर्ष पूर्व विश्व की जनसंख्या 5 मिलियन थी, 14वीं शताब्दी में 256 मिलियन थी जो 2015 में बढ़कर 7370 मिलियन हो गई है। तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या के कारण आर्थिक निर्धनता का आविर्भाव होता है जो पर्यावरण की गुणवत्ता के लिए हानिकारक है। आर्थिक निर्भरता प्राप्त करने के क्रम में उष्ण एवं के उपोष्ण प्रदेश के अधिक जनसंख्या वाले गरीब देश अपने प्राकृतिक संसाधनों को विकसित देशों को बेच देते हैं जिसका निर्ममतापूर्वक शोषण किया जाता है। फलतः प्राकृतिक स्थलाकृति का विस्तृत क्षेत्र बंजर भूमि में बदलता जा रहा है जिससे पर्यावरण में असंतुलन होता है तथा कई प्रकार की पर्यावरणीय समस्याओं से हमें सामना करना पड़ता है।

(2) औद्योगीकरण

औद्योगीकरण के विकास से जहाँ आर्थिक समृद्धि प्रदान की वहीं विभिन्न प्रकार की पर्यावरणीय समस्याओं को भी जन्म दिया। इसकी वजह से हमें भौतिक सुखों की प्राप्ति तो हुई लेकिन हम स्वास्थ्य से बँधी समस्याओं से घिर गये हैं। औद्योगीकरण से न सिर्फ प्राकृतिक संसाधनों का तीव्र गति से शोषण हुआ है बल्कि विभिन्न प्रकार के उत्पादन के क्रम में पर्यावरण पर भी प्रतिकूल असर पड़ा है, जैसे वनों की कटाई से वन क्षेत्रों में कमी, खनिज खनन के कारण भूमि का बंजर होना, औद्योगिक विकास के कारण, कृषि भूमि का विनाश, औद्योगिक अपशिष्टों एवं इससे युक्त हुए गैसों के कारण पर्यावरण का प्रदूषण इस स्तर पर पहुँच गया है कि आज हम अपने अस्तित्व को बचाने के लिये जद्दोजहद कर रहे हैं। पर्यावरण का जैविक तथा अजैविक घटक दोनों का विघटन हो चुका है।

(3) वायुमण्डल एवं उत्सर्जित गैसें

वायुमण्डल में गैसों का एक निश्चित संगठन होता है जो हमारे जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है। परन्तु तीव्र औद्योगीकरण, वन विनाश, कृषि भूमि में विस्तार, आधुनिक प्रौद्योगीकरण एवं जनसंख्या वृद्धि के कारण विभिन्न गैसों के अनुपात में परिवर्तन हो रहा है। विश्व तापन, अम्ल वर्षा, ओजोन परत में नुकसान इत्यादि के कारण आज हम विभिन्न प्रकार की समस्याओं से ग्रसित हो रहे हैं। गैसों के संगठन में असंतुलन की वजह से जैविक एवं अजैविक पर्यावरण का बुरी तरह से विघटन हो रहा है जो न सिर्फ स्थलीय बल्कि जलीय जीवों के लिए भी घातक सिद्ध हो रहा है।

(4) कृषि भूमि का विस्तार

बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए बड़ी मात्रा में खाद्य पदार्थों की जरूरत होती है, ज्यादा-से-ज्यादा अन्न का उत्पादन हो। इसके लिए जहाँ कृषि भूमि में विस्तार किया जाता है वहीं अधिक अन्न उपजाने के क्रम में

(i) विभिन्न प्रकार के रासायनिक पदार्थ, जैसे- रासायनिक पदार्थ, कीटनाशक, शाकनाशक, रासायनिक खाद एवं अन्य विभिन्न प्रकार की दवाइयों का निर्माण एवं प्रयोग किया जाता है।

(ii) अधिक उत्पादन के लिए उन्नत किस्म की बीजों का निर्माण।

(iii) खेती के लिए आधुनिक एवं उन्नत कृषि यंत्रों का निर्माण।

(iv) सिंचाई के लिए जल का उपयोग।

(v) कृषि भूमि के विस्तार के लिए वनों का विनाश इत्यादि किया जाता है जिससे पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। विभिन्न प्रकार की पर्यावरणीय समस्याएँ जन्म लेती हैं।

(5) शहरीकरण/नगरीकरण

बढ़ती जनसंख्या और रोजगार प्राप्ति के क्रम में लोगों का गाँवों से शहरों की ओर पलायन करने से भी विभिन्न प्रकार की पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं जो कि पर्यावरण विघटन के लिए महत्त्वपूर्ण कारक हैं। सन् 1950 के बाद नगरीकरण की प्रक्रिया एवं नगरीय जनसंख्या में बहुत तीव्र गति से वृद्धि हुई है। 1960 में विश्व में नगरीय एवं ग्रामीण जनसंख्या का प्रतिशत 34.56 था जो कि 2014 में 54.36 हो गया है। बेहतर पर्यावरणीय परिस्थितियों की वजह से शहरों को उच्च जीवन स्तर का प्रतीक माना जाता था किन्तु शहरीकरण की वजह से विश्व के सभी नगर, महानगर अब जल, वायु, ध्वनि एवं मृदा प्रदूषण का सामना कर रहे हैं। जनसंख्या वृद्धि की वजह से सड़कों, गलियों, वाहित मल, नाली एवं नालों, स्वचालित वाहनों, कारखानों की संख्या, नगरीय अपशिष्ट, धूम, धूल, राख, कचरा इत्यादि की वजह से विभिन्न प्रकार की पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं जिनसे वहाँ निवास करने वाले लोगों का जीना हराम हो रहा है। आज हमारे देश की नदियों, जैसे- गंगा एवं यमुना सबसे प्रदूषित नदियाँ बन चुकी हैं। नगर में अवस्थित विभिन्न कल-कारखानों से पर्यावरण के सभी तत्त्वों का विघटन हो रहा है।

(6) आधुनिक प्रौद्योगिकी

समाज एवं राष्ट्र के जीवन स्तर खासकर भौतिक स्तर की गुणवत्ता बढ़ाने में आधुनिक प्रौद्योगिकी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि ये हमारे जीवन के प्रत्येक पक्ष, जैसे—आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन में पैठ बना चुकी है जिसके बिना हम जीवन जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते। जुताई, निराई, सिंचाई, बुवाई, रासायनिक खादों, कीटनाशकों, उन्नत बीजों के प्रयोग से लेकर आधुनिक मशीनों, जैसे सुपर सोनिक युद्ध लड़ाकू जेट विमान, प्राणघातक हथियारों का प्रयोग इत्यादि आधुनिक प्रौद्योगिकी की ही देन है। यानि हम कह सकते हैं कि अनिवार्य आवश्यकताओं से लेकर विलासिता सम्बन्धी सारी वस्तुओं का निर्माण आधुनिक प्रौद्योगिकी का क्षेत्र बन चुका है जिसके कारण अनेक पर्यावरणीय समस्याएँ जैसे जलवायु परिवर्तन, ओजोन परत में छेद, अम्ल वर्षा एवं विश्वतापन इत्यादि उत्पन्न हो रही हैं जिसकी वजह से पर्यावरण का विघटन बहुत तेजी से हो रहा है और हम विनाश के कगार पर खड़े हो चुके हैं।

(7) वन-विभाग

किसी भी राष्ट्र की मूल्यवान सम्पत्ति के रूप में वनों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इससे हमें बहुत लाभ मिलता है, जैसे-

(i) उद्योगों के लिए कच्चा माल प्राप्त होता है।

(ii) भवन निर्माण के लिए, रेलवे की पटरियों के लिए या अन्य उपयोगों के लिए लकड़ी की प्राप्ति होती है।

(iii) यह विभिन्न जीव-जन्तुओं को आवास प्रदान करता है।

(iv) मृदा अपरदन को रोकने में सहायक होता है।

(v) यह कार्बन डाई-ऑक्साइड को सोखता करता है जिससे हरितगृह प्रभाव में कमी आती

(vi) यह बादलों को आकर्षित करता है जिससे बारिश होती है।

किन्तु हमने अपने आर्थिक लाभ के लिए इतनी बेरहमी से इसका विनाश किया है। स्थानीय, प्रादेशिक एवं विश्व स्तर पर अनेक भीषण पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। परिणामस्वरूप जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों की अनेक जातियाँ विलुप्त हो गई हैं। पारिस्थितिकीय संतुलन की दृष्टि से प्रत्येक देश के कम-से-कम 33% भू-भाग पर जंगल होने चाहिए परन्तु लगभग सभी देशों में इस नियम का उल्लंघन किया जा रहा है। हमारे देश भारत में भी मात्र 24.1% भू-भाग पर ही वन हैं।

वन भूमि का कृषि भूमि में उपयोग, वनों का चरागाहों के रूप में परिवर्तन, अतिचारण, वनों में लगने वाली आग जो कि मानवीय गतिविधियों से होती है। घरेलू और व्यापारिक उद्देश्यों के लिए लकड़ी की प्राप्ति, बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं के लिए विस्तृत वन क्षेत्रों का विनाश, वन विनाश के मुख्य कारण हैं जिसकी वजह से पर्यावरण को अपूरणीय क्षति पहुँचती है और पारिस्थितिकीय असंतुलन उत्पन्न हो जाता है।

पर्यावरणीय विघटन का लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाला प्रभाव 

पर्यावरणीय विघटन में जैविक एवं अजैविक तत्त्वों के मौलिक स्वरूप एवं संतुलन में परिवर्तन हो जाता है फलतः हमारे स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है जो कि निम्नलिखित हैं—

(i) जल प्रदूषण से पड़ने वाले प्रभाव- इसमें हम विभिन्न प्रकार के रोगों से ग्रसित हो जायेंगे जिनमें मुख्य हैं—अतिसार, पेचिस, जुकाम, लकवा, हैजा, मोतीझरा, चर्मरोग, अंधापन, पीलिया इत्यादि ।

(ii) ओजोन परत के नुकसान से त्वचा कैंसर का रोग बढ़ जायेगा।

(iii) हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी हो जायेगी। परिणामस्वरूप संक्रामक तथा छूत के रोगों का प्रकोप बढ़ जायेगा।

(iv) धूम एवं कोहरे के कारण श्वसन तन्त्र प्रभावित होगा।

(v) रेडियोधर्मी प्रदूषण के कारण गुणसूत्रों में उत्परिवर्तन हो जाता है जिससे अपंग बच्चे पैदा हो सकते हैं, कैंसर हो सकता है।

(vi) गंजापन, शरीर में रक्त की कमी, अस्थिमज्जा की बीमारियाँ इत्यादि ।

(vii) गर्भाशय में बच्चे की मृत्यु ।

(viii) श्वसन संस्थान से सम्बन्धित बीमारियाँ, जैसे- दमा, अस्थमा, ब्रोन्काइटिस, श्वसन संस्थान में सूजन, नाक में जलन इत्यादि।

(ix) आँख तथा त्वचा में जलन, सिरदर्द, दृष्टिदोष, स्नायु सम्बन्धी रोग, गले में खुश्की, मिचली, अनिद्रा, छाती में जलन, हृदय, जिंगर एवं मस्तिष्क रोग, आँतों में सूजन, चिड़चिड़ापन, मानसिक घुटन, थकावट, इन्फ्लुएन्जा इत्यादि।

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