पर्यावरण और मानव सम्बन्ध
पर्यावरण और मानव का सम्बन्ध निम्नलिखित रूपों में दिखता है-
1. समायोजन- प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर जो उसे उपलब्ध है अपने व्यवसाय का चयन करता है अथवा प्राकृतिक दशाओं के अनुरूप कार्य करता है इसे प्रकृति से समायोजन कहा जाता है। मानव जिस क्षेत्र में रहता है वह क्षेत्र एक योजना प्रस्तुत करता है। उस योजना के अनुरूप अनुसरण प्रकृति के साथ समायोजन कहा जाता है। जैसे-जललग्नता वाले क्षेत्रों में यूकेलिप्टस की खेती करना या बाढ़ के क्षेत्रों में धान अथवा जूट का उत्पादन करना क्षेत्र के साथ समायोजन है।
2. अनुकूलन – प्राकृतिक पर्यावरण के अनुरूप जब जीव अपने में परिवर्तन कर लेते हैं अथवा पर्यावरण का सामना करने के लिए जीव (वनस्पति, जन्तु और मानव) के अपने शरीर में ही जो संशोधन हो जाते हैं, उसे अनुकूलन कहा जाता है। जैसे पहाड़ी क्षेत्रों के निवासियों के पैर, समुद्रतटीय क्षेत्रों के निवासी नाविकों के हाथों की मांसपेशियाँ बहुत पुष्ट हो जाती हैं अथवा गन्दी नाली के निकट निवास करने वाले मनुष्यों को दुर्गन्ध नहीं आती है। यह अनुकूलन अनैच्छिक अथवा प्राकृतिक होकर आन्तरिक और बाह्य दोनों रूपों में हो सकता है।
3. रूपान्तरण- प्राकृतिक पर्यावरण में रूपान्तरण मनुष्य अपनी शक्तियों, आवश्यकताओं एवं रुचियों के अनुसार करता है। जैसे-मनुष्य बाँध, नहरें, सड़कें, मकान, नगर आदि बनाकर पर्यावरण में रूपान्तरण करता है। वनों को लगाकर भूमि उपजाऊ बनाता है। मरुस्थलों के विस्तार को रोकता है, वर्षा व भूमिगत जल सुलभ करता है। भूक्षरण रोकता है तथा तापमान संतुलित रखता है। यह पर्यावरण रूपान्तरण के विविध उदाहरण हैं।
4. पारिस्थितिक अनुक्रम- पर्यावरण और मनुष्य के पारस्परिक सम्बन्धों का रूप समय के साथ परिवर्तित और संचित रहता है। इसे पारिस्थितिकी अनुक्रम कहते हैं। जैसे- क्रमशः तकनीकी विकास से औद्योगिक नगर आज सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हो गये हैं जबकि विगत युग में धार्मिक नगर महत्त्वपूर्ण थे। आज जापान देश तकनीकी उन्नति से विश्व राजनीति में भी महत्त्वपूर्ण हो रहा है, जबकि पहले ग्रेट ब्रिटेन बहुत महत्त्वपूर्ण था। जैसे प्रकृति में जलचक्र, नाइट्रोजन चक्र, खनिज चक्र चलते रहते हैं उसी प्रकार सांस्कृतिक क्षेत्रों में धर्म, सभ्यताएँ, राज्य आदि अपना अस्तित्व खोते एवं जन्म लेते रहते हैं। यथा–आज मंचूरिया, तिब्बत, सिक्किम पृथक् राष्ट्र नहीं हैं, जबकि रूस विभिन्न राष्ट्रों में टूट गया तथा नये 13 राष्ट्रों का जन्म हुआ है।
मानव और पर्यावरण में परिवर्तित सम्बन्ध
इस शताब्दी के प्रारम्भ में फ्रांसीसी भूगोलवेत्ताओं के द्वारा भूगोल में एक नई विचारधारा ‘सम्भववाद’ का जन्म हुआ जिसके अनुसार प्राकृतिक पर्यावरण मात्र पृष्ठभूमि या योजना ही प्रस्तुत नहीं करता बल्कि इन उपलब्ध संसाधनों का उपयोग मानव अपनी विकसित होती तकनीकी से प्राकृतिक पर्यावरण को संशोधित अथवा परिवर्तित करने के लिए भी करता है। इस प्रकार वह अपनी आर्थिक व्यवस्था का विकास करता है। इस विचारधारा के अनुसार मनुष्य एक क्रियाशील प्राणी है, जो प्रकृति प्रदत्त सीमाओं के अन्दर छाँट के लिए स्वतन्त्र है। ब्लांश ने लिखा है कि “मानव एक भौगोलिक कारक है, जिसके कर्म पृथ्वी के जैविक और अजैविक दोनों प्रकार के तथ्यों में परिवर्तन लाते हैं।” उन्होंने फसलों के विस्तार को विश्वभर में फैलाने की मानवीय क्रिया का उदाहरण दिया। जो फसल प्राकृतिक पर्यावरण की सीमाओं में आबद्ध रहकर ही विकसित हो सकती थी। ब्रून्स ने इस तथ्य को इस प्रकार स्वीकारा कि मानवीय क्रियाएँ प्रकृति की वृहत्तम उदार परिधि में आबद्ध हैं, परन्तु नियन्त्रित नहीं हैं। मनुष्य प्रकृति का दास नहीं वरन् मनुष्य उसमें परिवर्तन के लिए क्रियाशील रहता है अर्थात् मनुष्य को अपने वातावरण में रहकर कार्य करना पड़ता है, किन्तु इसका अभिप्राय यह कदापि नहीं कि वह प्रकृति के द्वारा शत-प्रतिशत शासित है। ब्रून्स ने अपनी रचना ‘ज्योग्राफिक ह्यूमेन’ के तृतीय भाग में के मानवीय क्रियाओं से संसार में बदलते रूप को व्यक्त किया जिसमें मानवों द्वारा भूमि (मिट्टी), वनस्पति, जन्तु, खनिजों के शोषण एवं विनाशकारी क्रियाओं का उल्लेख कर तथ्य को प्रमाणित किया। संक्षेप में प्राकृतिक पर्यावरण द्वारा कुछ सीमाएँ निर्धारित की जाती हैं और मनुष्य की क्रियाएँ उसका उल्लंघन नहीं कर सकतीं पर उनमें परिवर्तन अवश्य कर सकती हैं। मानव अधिवासों के अध्येता ‘डिमांजिया’ ने मानव क्रियाओं पर बल देते हुए परिवर्तन के ढंगों का उल्लेख किया जैसे बाँध, नहरें, फसलें, सड़कें, पुलों आदि से मनुष्यों की क्रियाएँ बहुत प्रभावी हो जाती है। टेलर ने सम्भववाद की विचारधारा को परिष्कृत कर वैज्ञानिक रूप दिया जिसे ‘रुको एवं बढ़ो निश्चयवाद’ कहा। उनके अनुसार मनुष्य न तो प्रकृति का दास है और न ही उसका स्वामी। साथ ही न ही मानव के कार्य करने की क्षमता असीमित है। मानव का कल्याण प्रकृति से युद्ध करने में नहीं उससे सहयोग व सामंजस्य में निहित है। इस प्रकार वर्तमान में पर्यावरण और मानव के परिवर्तित सम्बन्धों का अध्ययन पर्यावरण भूगोल में किया जाता है, जैसे- गंगा नहर के निर्माण में थार की मरुभूमि – राजस्थान गेहूँ और कपास का उत्पादन कर रहा है अथवा छोटा नागपुर खनिजों के दोहन के ही परिणामस्वरूप औद्योगिक विकास की ओर उन्मुख हुआ है। मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिला सीधी में खुली खदानों से मानव ने वनस्पति एवं पशु जगत को भारी क्षति पहुँचाकर धूल के कृत्रिम पहाड़ व मैदानों का निर्माण कर दिया है। इस प्रकार मानव और पर्यावरण के परिवर्तित सम्बन्धों का अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है। आज नर्मदा बाँध, सरदार सरोवर, टिहरी बाँध, तवा बाँध एवं अन्य बहुउद्देश्यीय योजनाओं से पर्यावरण और मानव के सम्बन्ध परिवर्तित हो रहे हैं। अतः इनके प्रभाव का मूल्यांकन किया जाना महत्त्वपूर्ण हो गया है।.
प्रकृति एवं मनुष्य निर्मित नियन्त्रणों में सम्बन्ध
पर्यावरण भूगोल, मनुष्य और उसके आवास के पारस्परिक अन्तर्सम्बन्धों की व्याख्या करता है। आवास या निवास से आशय व्यक्ति जहाँ अधिकांश समय रहता कार्य करता है अर्थात् जहाँ मानव की तकनीकी विस्तृत क्रियाएँ प्राकृतिक परिस्थितियों को प्रभावित करती हैं। इनके अध्ययन में भी रुचि मानव भूगोल प्रारम्भ से लेता आ रहा है। मानवीय आवास उसके अनुकूल है या प्रतिकूल, इसका परीक्षण करना आधुनिक पर्यावरण भूगोल की मूल संकल्पना है, क्योंकि वर्तमान तकनीकी एवं औद्योगिक संस्कृति से पारिस्थितिक तंत्र के स्वभाव में अन्तर आ रहा है।
भौगोलिक सम्बन्ध प्रत्येक युग और क्षेत्र का मानव समाज पर स्पष्ट प्रभाव दिखलायी देता है, जिसे मानव अनुकूलन और रूपान्तरण द्वारा व्यक्त करता है। इसी को भौगोलिक सम्बन्ध कहा जाता है। यह निर्विवाद सत्य है कि भौगोलिक पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों का मनुष्य अपने तकनीकी ज्ञान से अधिकाधिक प्रयोग प्रत्येक युग में करता आया है। जैसे-छोटा नागपुर के पठार में जब मनुष्य आदि युग में रहा होगा तो उसने विस्तृत वन सम्पदा से जैविक आवश्यकता हेतु कन्दमूल, फल आदि का संग्रहण किया होगा। कालान्तर में कृषि हेतु वनों में आग लगाकर कृषि का विकास एवं विस्तार किया। आज इस क्षेत्र में मानव द्वारा अधिकाधिक खनिज दोहन से अत्याधुनिक औद्योगिक विकास किया जा रहा है। इस प्रकार क्षेत्र में उपलब्ध संसाधनों का उपयोग प्रत्येक युग में अपनी तकनीकी से जाना जाता है जिससे निवासियों का न केवल आर्थिक स्वरूप ही प्रभावित होता है वरन् सामाजिक एवं वैचारिक स्थितियों में भी परिवर्तन आया है। इससे एक विशेष संस्कृति और सभ्यता का जन्म होता है। प्रकृति व मनुष्य के भौगोलिक सम्बन्धों के विषय में सेम्पुल के विचार उल्लेखनीय हैं-“मनुष्य और प्रकृति की हिस्सेदारी है। मनुष्य मस्तिष्क, श्रम, पूँजी, प्रकृति से कच्चा माल और संसाधन सुलभ कराकर एक श्रेष्ठ जीवन स्तर प्राप्त करता है। इस प्रकार पर्यावरण और मनुष्य के सामंजस्य से क्षेत्र या प्रदेश प्रगति करता हुआ विकास को प्राप्त होता है।”
पर्यावरण का नियन्त्रणकारी प्रभाव- प्रकृति मनुष्य के लिए एक निश्चित रंगमंच प्रस्तुत करती है। उस रंगमंच पर क्रियाओं की परिधि या सीमाएँ प्रकृति नियन्त्रण नहीं करती वरन् कुछ विशेष रंगमंच पर क्रियाओं की परिधि या सीमाएँ प्रकृति तय कर नियन्त्रण उदारभाव से करती है। विशेष क्रिया की ओर प्रकृति नियन्त्रण नहीं करती वरन् कुछ विशेष क्रियाओं की ओर दिशा-निर्देश करती है। जैसे—भूमध्यरेखीय चावल, रबड़, गरम मसाले पैदा कर सकते हैं। ध्रुवीय प्रदेश में यह सम्भव नहीं है। मनुष्य नियंत्रित परिधि में स्वतन्त्र है। इस परिधि के अन्दर प्रकृति सहयोग करती है।
मनुष्य निर्मित नियंत्रण- मानव की क्रियाएँ कई प्रकार से पर्यावरण को प्रभावित करती हैं और पुनः उनसे ही नियंत्रित होने को मनुष्य बाध्य हो जाता है। यथा-अति औद्योगीकरण के कारण जीवाश्म ईंधन के दहन से कारखानों एवं परिवहन के साधनों के धुएँ से वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड का दबाव बढ़ रहा है। सामान्य अवस्था में यह 03 प्रतिशत होनी चाहिए किन्तु कुछ स्थानों पर.04. प्रतिशत विगत दशक में पायी गयी और आज कुछ औद्योगिक क्षेत्रों में .93 प्रतिशत तक हो गयी है। जिससे विगत 50 वर्षों में पृथ्वी का तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। यदि ऐसा ही रहा तो आगत शदी में पर्यावरणीय समस्याओं से पृथ्वी ग्रसित हो जायेगी। तेजी से बढ़ती तकनीकी, औद्योगीकरण, जनसंख्या एवं नगरीय सभ्यता ने पर्यावरण के नये आयाम स्थापित किये हैं जिन्हें जनसंख्या वृद्धि, अवांछित तत्त्वों के उत्पादन एवं घटते संसाधनों के सन्दर्भ में भली-भाँति समझा जा सकता है। औद्योगिक सहउत्पाद से निसृत प्रदूषित जल ने कई बड़ी नदियों एवं झीलों के पानी को प्रदूषित कर दिया है, जिससे मछलियों तक की मृत्यु हो गयी। मृदा में अवांछनीय तत्त्व बढ़े, जिससे वृक्षों की जीवन अवधि कम हो गयी है। जैसे-जैसे उत्पादकता एवं शस्यतीव्रता हेतु रासायनिक उर्वरक और कीटाणु एवं खरपतवार नाशकों का प्रयोग हम करते जा रहे हैं वैसे-वैसे मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है। साथ ही जीव-जन्तुओं की नस्लों में भी ह्रास हो रहा है। उक्त नकारात्मक प्रभावों के साथ साथ आधुनिक सभ्यता और वैज्ञानिक प्रगति ने पर्यावरण के अध्ययन को कई प्रकार से जटिल बना दिया है। आधुनिक जीवन रक्षा औषधियों एवं साबुन के आविष्कार ने हमें अधिक स्वस्थ और स्वच्छ जीने का आदी बना दिया है। इतनी विशाल जनसंख्या को भोजन देने की सामर्थ्य आधुनिक तकनीकी का ही परिणाम है। आधुनिक परिवहन के साधनों से सारी दुनिया एक घर जैसी हो गयी है। मनुष्य अपनी क्रियाओं से पर्यावरण में परिवर्तन लाता है और पुनः उनसे नियंत्रित होता है। जैसे जंगल काटना, जंगल लगाना, बाँध बनाना, पशुचारण, खनिज दोहन और कृषि वाले कार्य आदि। . शरलॉक ने ठीक ही लिखा है कि “भौतिक विश्व में परिवर्तन करने वाली शक्तियों में मानव सबसे ज्यादा शक्तिशाली है, अन्य जीव भी थोड़ा परिवर्तन करते हैं पर आधुनिक मानव के सामने वे परिवर्तन नगण्य हैं।”
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