व्यक्तित्व का विकास किस प्रकार होता है?
व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके संपूर्ण जीवन काल में विकसित होता रहता है। ‘सलीवन’ ने व्यक्तित्व विकास की छह अवस्थाओं का उल्लेख किया है जो निम्नलिखित हैं-
1. शैशव में व्यक्तित्व विकास, 2. बाल्यकाल में व्यक्तित्व विकास, 3. उत्तर बाल्यकाल में व्यक्तित्व विकास, 4. किशोरावस्था में व्यक्तित्व विकास, 5. उत्तर किशोरकाल में व्यक्तित्व विकास।
मनोविश्लेषणवादी फ्रायड ने सेक्स के आधार पर व्यक्तित्व के विकास की पाँच अवस्थाओं का उल्लेख किया है –
1. मौखिक अवस्था, 2. गुदा अवस्था, 3. लिंग प्रधान अवस्था, 4. काम प्रसुप्ति अवस्था, 5. जननांगीय अवस्था ।
व्यक्तित्व विकास का संबोध इस तथ्य से सम्बन्धित है कि उम्र के अनुसार व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन होता है। यहाँ सुविधा की दृष्टि से व्यक्तितत्व के विकास का उल्लेख शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था प्रौढ़ावस्था के अन्तर्गत किया जाएगा।
शैशवावस्था में व्यक्तित्व विकास
नवजात शिशु का कोई भी स्पष्ट व्यक्तित्व नहीं होता। गत पचास वर्षों से मनोवैज्ञानिक शैशवावस्था में व्यक्तित्व विकास पर कार्य कर रहे हैं। प्रारम्भ में बच्चा असहाय होता है। सलीवन के अनुसार “जन्म से लेकर बारह महीने तक की अवधि में शिशु की आत्मचेतना धीरे धीरे विकसित होने लगता है और उसका स्व प्रकट होने लगता है। बच्चे की प्रारंम्भिक मनोवैज्ञानिक आवश्यकता वात्सल्य और सुरक्षा प्राप्त करने की होती है जो उसे माँ के द्वारा प्राप्त होती है। पालन पोषण प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में प्रारम्भिक महत्वपूर्ण तत्व है पालन – पोषण में न्यूनता या उपेक्षा बच्चे में दुःख की और उपयुक्तता सुख की अनुभूति उत्पन्न करती है।
स्तनपान पर निर्भर रहने वाले बच्चे को ठीक से स्तनपान करने को नहीं मिलता, तब वह दूसरी वस्तुओं को मुँह में डालकर चूसता है। माँ का बच्चों को स्तनपान न कराना बच्चे को उचित भोजन पोषण न मिलना उसमें अंतर्द्धन्द उत्पन्न कर देता है जो आगे के व्यक्तित्व विकास पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है।
एलफ्रेड एडलर ने “व्यक्तित्व विकास में बच्चे के जन्म- क्रम को अत्यधिक महत्व दिया है।” इकलौता, सबसे बड़ा, सबसे छोटा, बीच का या मझला और अवांकित बच्चे का व्यक्तित्व विकास अलग अलग प्रकार से परिवार के बीच होता है।
वाल्यवस्था में व्यक्तित्व विकास
पाँच छह वर्ष की अवस्था के बाद परिवार की सीमा को लाँघकर जब बच्चा विद्यालय की देहली पर पैर रखता तब उसके व्यक्तित्व विकास की दूसरी महत्वपूर्ण अवस्था का प्रारम्भ होता है। माता-पिता से अलग हो कर विद्यालय में मुख्य प्रश्न बच्चे के सामने नये वातावरण के साथ समायोजन से जुड़ा होता है। उसके सामने नये बच्चों का बड़ा समूह और नये अध्यापक होते हैं, जिनके साथ उसे समायोजन करना होता है। वस्तुतः बाल्यवस्था में पहला सामाजिक प्रारम्भ होता है और बालक अधिकांशतः अपने सामाजिक गुणों का विकास इसी समय करते हैं। 6 से 12 वर्ष के बीच बच्चा अपने सामाजिक समूह की सामाजिक अवस्था के अनुरूप स्वयं को ढालता है। उसके भीतर इसी समय नेतृत्व, मित्रता, सहानुभूति, त्याग, सहिष्णुता और सामाजिक अनुकूलता के व्यक्तित्व संबंधी सामाजिक, विशेषक विकसित होते हैं। इस समय बालक का समायोजन दो प्रकार का हो जाता है।
1. परिवार के साथ समायोजन, 2. परिवार के बाहर अर्थात विद्यालय में समायोजन ।
अगर पारिवारिक वातावरण में रहते हुए बालक श्रेष्ठ और समान लोगों के प्रति समायोजन करना सीखा है तब उसे विद्यालय में विशेष कृठिनाई नहीं होती किन्तु उचित प्रशिक्षण न होने पर विद्यालयीय वातावरण के साथ समायोजन करना कठिन हो जाता है। आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता की प्रकृति जिस बालक में होती है वह विद्यालय के वातावरण में किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव नहीं करता।
बाल्यावस्था में व्यक्तित्व विकास की यह विशेषता होती है कि इस अवस्था में आकर शैशवावस्था में अर्जित बातों का समीकरण किया जाता है और अंर्तसम्बन्धों के व्यवहारों को बालक ऐसा रूप देते हैं जिससे कि नवीन सम्बन्ध भी स्थापित होते रहें, इसके अतिरिक्त आवश्यकता पड़ने पर पुरानी बातों को त्यागने की प्रवृत्ति भी बालक में दिखलायी पड़ती है।
किशोरावस्था में व्यक्तित्व विकास
किशोरावस्था को समस्याओं का काल कहा जाता है परन्तु मुख्य रूप से उसके समक्ष तीन समस्याएं व्यक्तित्व विकास और समायोजन की दृष्टि से विशेष महत्व रखती हैं –
1. यौन समायोजन की समस्या, 2. जीवन निर्वाह की समस्या, 3 जीवन दर्शन की समसया,
यौवनानारंभ के बाद किशोर बालक बालिकाओं के सामने सेक्स उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को मथ देने बाले कारक के रूप में प्रकट होते हैं। इस समय माता-पिता और विद्यालय के बालकों के प्रति उदार दृष्टिकोण और मार्गनिर्देशन उन्हें यौन समायोजन की दिशा में अग्रसर – करता है और वे बहुत बड़े खतरे से बच जाते हैं।
इस समय तक किशोर अपने माता पिता पर निर्भर न रहकर समाज के नेताओ साहित्य और इतिहास के महापुरूषों और वीरों से प्रेरणा ग्रहण करके स्वयं के जीवन हेतु एक निश्चित आदर्श की स्थापना करता है। जो किशोर ठोस आधारों पर अपना जीवन दर्शन निश्चित करता है। वह स्वस्थ व्यक्तित्व विकास का परिचय देता है किन्तु जिनके आधार ठोस नहीं होते उनके व्यक्तित्व में सन्तुलन नहीं आ पाता।
बोरिंग लैंगफील्ड एवं वील्ड का कथन है- “किशोरावस्था में जादुई विशेषताएं नहीं होती लेकिन व्यक्तित्व में परिवर्तन व्यक्ति के अनुभवों और अधिगमों के अनुसार किसी भी समय हो सकते हैं।”
प्रौढ़ावस्था में व्यक्तित्व विकास
किशोरावस्था के अन्त तक किशोर कई दृष्टियों से परिपक्व हो जाता है। विवाह हो जाने के कारण काम के विषय में वह सन्तुष्ट हो जाता है और जीवकोपार्जन का अपनी इच्छानुसार साधन मिल जाने से वह परिपक्व व्यक्ति का आचरण करता है। अपने देश में स्थिति कुछ भिन्न हैं। रोजगार प्राप्त करने की समस्या ने लाखों परिपक्व युवकों को निराशा, कुंठा, अंतर्द्धन्द्ध और असंतोष से ग्रस्त कर रखा है। रोजगार के विषय में उचित मार्गदर्शन न होने के कारण वे रोजगार प्राप्त करने के लिए किसी भी शासकीय कार्यालय विद्यालय, कारखाने व्यक्तिगत प्रबंध आदि का दरवाजा खटखटाने के लिए विवश हैं।
जीवन में 25 से लेकर 55 वर्ष अर्थात 30 वर्ष का काल व्यक्तित्व की दृष्टि से स्थिरता का ‘काल है जिसमें आवश्यकता और प्रोत्साहन के कारण बहुत कम परिवर्तिन होते हैं। यह स्थिरता व्यक्ति को क्रमशः रूढ़िवादिता, सहिष्णुता और विस्तृत सामाजिक दृष्टिकोण की ओर उन्मुख करती है।
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