दल-बदल रोकने के उपाय
चतुर्थ आम चुनावों के बाद दल-बदल चिन्ता का विषय बन गया और दल-बदल को रोकने के लिए गम्भीरता से विचारमन्थन प्रारम्भ हुआ। तात्कालिक केन्द्रीय गृहमन्त्री वाई.बी.चहाण की अध्यक्षता में भारत सरकार ने एक समिति नियुक्ति की। इस समिति ने 18 फरवरी, 1969 को संसद के सामने दल-बदल को रोकने हेतु एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। समिति की प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार हैं-
(1) सभी राजनीतिक दल एक ऐसी व्यवहार संहिता अथवा परिपाटी समुच्चय को स्वीकार करें जिसमें लोकतान्त्रिक संस्थाओं के मूल औचित्य
और शालीनताओं का समावेश किया गाय हो। ऐसी व्यवहार संहिता का पालन कराने के लिए समिति अथा मण्डल का गठन किया जाए, जिसमें विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता और विधिक पृष्ठभूमि वले लोग हों।
(2) प्रतिनिधि को उस राजनीतिक दल से सम्बद्ध समझा जाना चाहिए जिसके तत्त्वावधान में उसने निर्वाचन जीता हो।
(3) ऐसे किसी भी व्यक्ति को जो निचले सदन का सदस्य न हो, प्रधानमन्त्री अथवा मुख्यमन्त्री नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए।
(4) दल-बदल करने वाले विधायक को, एक वर्ष के लिए अथवा जब वह अपने स्थान से पद त्यागकर पुनः निर्वाचित नहीं हो जाता, मन्त्रि-पद, अध्यक्ष पद, उपाध्यक्ष पद अथवा किसी अन्य ऐसे पदों पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए जिस पद के वेतन और भत्ते उन वेतन और भत्तों के अलावा जिसका दल-बदलू विधायक, विधायक के नाते हकदार हैं भारत की अथवा राज्य की संचित निधि से अदा किए जाते हैं।
(5) अगर कोई राजनीतिक दल दल-बदल करने वाले विधायक को स्वीकार करता है तो उस दल को दी गयी मान्यता और उस दल के लिए सुरक्षित किया गया चुनाव चिन्ह कम-से कम दो वर्षों के लिए वापस ले लिया जाना चाहिए।
(6) मन्त्रिमण्डल सीमित आकार के होने चाहिए। मन्त्रिपरिषद का आकार एकसदनी .विधानमण्डलों की स्थिति में विधानसभा के सदस्यों की कुल संख्या का दस प्रतिशत और द्विसदनी विधानमण्डलों की स्थिति में निचले सदन के सदस्यों की कुल संख्या का ग्यारह प्रतिशत होना चाहिए।
(7) अगर कोई विधायक उस दल की सदस्यता छोड़ता है अथवा उसके प्रति निष्ठा का परित्याग करता है, जिसके निर्वाचन चिह्न पर वह चुना गया था तो वह संसद या राज्य विधानसभा का सदस्य रहने के अयोग्य होगा। अगर वह चाहे तो फिर चुनाव के लिए खड़ा हो सकता है।
‘चहाण समिति के समक्ष रखे गए अन्य प्रस्तावों पर सदस्यों में तीव्र मतभेद रहा। . फिर भी 16 मई, 1973 को गृहमन्त्री उमाशंकर दीक्षित ने दल-बदल को रोकने के लिए लोकसभा में एक विधेयक प्रस्तुत किया, जिसे बत्तीसवां संवैधानिक संशोधन विधेयक कहा जाता है। यह विधेयक पारित नहीं हो सका। इस विधेयक के मुख्य प्रावधान इस प्रकार हैं प्रथम, संसद या विधानसभाओं के जो सदस्य स्वेच्छा से अपना दल छोड़ना चाहते हैं, उन्हें विधायिका की सदस्या से भी पृथक् समझा जाएगा। द्वितीय, यदि कोई सदस्य संसद या विधानमण्डल में अपने दल या दल द्वारा अधिकृत व्यक्ति के निर्देशों के विरुद्ध मतदान करता है तो उसे विधायिका की सदस्यता से पृथक होना पड़ेगा। विधायिका में अपने दल के विरुद्ध मतदान करने के लिए सदस्य को पूर्वानुमति प्राप्त करनी होगी। तृतीय, यदि कोई राजनीतिक दल विभाजित हो रहा हो तो दल बदल संसद या विधानसभा की सदस्यता को जोखिम में नहीं डालेगा। चतुर्थ, सम्बद्ध राजनीतिक दल या उसकी ओर से अधिकृत व्यक्ति ही राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल के सम्मुख दल-बदल का मामला उठा सकेंगे।
डॉ रामसुभग सिंह के अनुसार दल-बदल को रोकने का एकमात्र उपाय बस यही है कि सभी राजनीतिक दलों को ऐसी आचार संहिता स्वीकार कर लेनी चाहिए कि वे दल-बदलुओं को स्वीकार नहीं करेंगे। अटल बिहारी वाजपेयी के अनुसार दल बदलने वाले विधायकों को विधायिका की सदस्यता त्याग देनी चाहिए और नया चुनाव लड़ना चाहिए। सुरेन्द्रनाथ द्विवेदी के अनुसार जनता को यह अधिकार होना चाहिए कि वह दल-बदलू विधायक का प्रत्यावर्तन कर सके।
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