दल-बदल के राजनीतिक परिणाम
दल-बदल के भयंकर राजनीतिक परिणाम हुए और कुछ लोगों ने तो यहां तक कहा कि इससे भारतीय लोकतन्त्र का भविष्य ही अधर में लटक गया है और राज्यों में ससंदात्मक शासन प्रणाली असफळ हो चुकी है। दब-बदल से परेशान होकर अनेक राजनीतिशास्त्री संसदात्मक प्रणाली का विकल्प ढूंढ़ने में लग गए। दल-बदल के कुछ महत्त्वपूर्ण परिणाम इस प्रकार हैं-
(1) दल-बदल से शासन में अस्थिरता- दल-बदल से शासन में अस्थिरता पैदा हुई और हो रही है। जहां देश में सुदृढ़ शासन की आवश्यकता है ताकि विकास योजनाओं की तत्परता के साथ लागू किया जा सके तथा समाज व प्रशसन के सुधार की ओर ध्यान दिया जा सके वहां दल-बदल के कारण उत्पन्न होने वाली अस्थिरता और अनिश्चितता अवश्य ही चिन्तनीय कही जाएगी। फरवरी 1967 के बाद अनेक राज्य सरकारों का तख्ता पलटा। अनेक विधायकों ने एक बार ही नहीं, बारम्बार अपना दल बदलकर, के के बाद एक सरकार के पतन में तथा उनके स्थान पर नयी सरकारों की स्थापना में अपना सक्रिय योगदान दिया।
(2) दुर्बल मिली-जुली सरकारों का निर्माण- दल-बदल के फलस्वरूप विभिन्न राज्यों में संयुक्त दलीय, संयुक्त मोर्चा अथवा संविद सरकारों का निर्माण हुआ। संविद सरकारों के घटकों मं नीति सम्बन्धी एकता नहीं थी, जिससे संविद में बार-बार मतभेद होते थे और उसका अस्तित्व में खतरे में पड़ जाता था। संविद के विभिन्न घटकों में कोई तालमेल नहीं था और मन्त्रिमण्डल में भी एकता का अभाव ही था। प्रो. रजनी कोठारी के अनुसार, “इसके अलावा 1967 के बाद गैर-कांग्रेसी दलों में गठजोड़ होते रहे हैं। अनेक बार ये गठजोड़ बिल्कुल विरोधी और विपरीत दलों में भी हुए हैं। ये गठजोड़ भानुमती के कुनबे जैसे हैं। फलस्वरूप ये गैर कांग्रेसी संयुक्त सरकारें ज्यादा दिन न चल सकीं और एक के बाद एक गिरती चली गयीं ।”
(3) मुख्यमन्त्री की संस्था का ह्रास- संविद सरकारों के दौर में आपसी सौदेबाजी के परिणामस्वरूप बने कठपुतली मुख्यमन्त्री जैसे चरण सिंह, गोविन्दनारायण सिंह, टी.एन.सिंह, अजय मुखर्जी इत्यादि ने मुख्यमन्त्री की संवैधानिक संस्था का ह्रास ही किया है। ये मुख्यमन्त्री एकदम अशक्त ही बन गए थे। दल-बदल के कारण बनी मिली-जुली सरकारें अधिक टिकाऊ नहीं थीं और मुख्यमन्त्री का अधिकांश समय अपने अस्तित्व की सुरक्षा में ही व्यतीत हो जाता था। कोई भी विधायक मुख्यमन्त्री को झुका सकता था। विधायक मुख्यमन्त्री से नहीं डरते थे अपितु मुख्यमन्त्री विधायकों से डरने लग गए थे।
(4) प्रधानमन्त्री की संस्था का ह्रास- केन्द्र में जब दल-बदल चरण सिंह प्रधानमन्त्री बने तो सर्वत्र यह चर्चा होने लगी कि राजनीतिज्ञ अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए राष्ट्र और दल को भी दांव पर लगा सकते हैं। देश की जनता में उनकी वह गरिमा और सम्मान नहीं रहा जो नेहरू और श्रीमती गांधी का था। प्रधानमंन्त्री पद की गरिमा का ह्रास होने लगा और प्रशासन ढीला हो गया।
(5) नौकरशाही के प्रभाव में वृद्धि- दल-बदल के कारण राज्यों में शीघ्र निर्णय नहीं लिए जा सके और अनिश्चितता एवं प्रशासनिक रिक्तता का वातावरण फैला। दल-बदलू मुख्यमन्त्रियों के काल में नौकरशाही के प्रभाव तथा दबाव में भी अप्रतिम रूप से वृद्धि हुई है।
(6) मन्त्रिमण्डलों का आवश्यक विस्तार- दल-बदल का यह भी प्रभाव हुआ कि राज्यों में मुख्यमन्त्रियों को बड़े-बड़े मन्त्रिमण्डलों का निर्माण करना पड़ा। जहां उन्हें दल बदलुओं को पुरस्कृत करना परता था वहीं अपने दल के सदस्यों को अंकुश में रखने के लिए मन्त्रिपद का उपहार देना पड़ता था। उदाहरणार्थ, हरियाणा के राव वीरेन्द्र सिंह मन्त्रिमण्डल में 23 मन्त्री तक हो गए थे और इस प्रकार संयुक्त मोर्चे के 70 प्रतिशत विधायक मन्त्रिपरिषद् के सदस्य थे। आलोचकों का कहना था कि हरियाणा जैसे छोटे-से राज्य के लिए यह मन्त्रिपरिषद् बहुत बड़ी थी, उत्तर प्रदेश में (1997) कल्याण सिंह को 93 सदस्यीय मन्त्रिमण्डल बनाना पड़ा। कल्याण सिंह ने बेझिझक कहा कि उन्होंने विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने के दौरान सरकार बचाने में मदद करने वालों को मन्त्रिमण्डल में शामिल कर उनका ‘सम्मान’ किया है।
(7) अल्पमत सरकारों का निर्माण- दल-बदल के कारण पंजाब, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में अल्पमत सरकारों का निर्माण हुआ। अल्पमत सरकारों में दल-बदलू विधायक ही मन्त्री पदों को सुशोभित करने लगे। इन अल्पमत सरकारों को विधानसभा में दूसरे दलों के समर्थन पर निर्भर रहना पड़ता था, अतः ये सरकारें एकदम कठपुतली सरकारें सिद्ध हुईं। उदाहणार्थ, पंजाब की गिल सरकार और पश्चिम बंगाल की घोष सरकार अधिक दिनों तक नहीं चल सकीं।
(8) राजनीतिक दलों का विघटन– दल-बदल के कारण राजनीतिक दलों के बिखराव और विघटन की प्रक्रिया का सूत्रपात हुआ। सभी दलों में फूट की प्रवृत्ति दिखायी देने लगी। छोटे-छोटे दलों और गुटों का निर्माण हुआ और सभी दलों की स्थिति कच्चे कगार पर खड़े पेड़ की सी हो गयी।
(9) राजनीतिक एकाधिकार की चुनौती- दल-बदल ने कांग्रेस दल के दीर्घकाल से चटले आ रहे राजनीतिक एकाधिकार का सम्मोहन भंग कर दिया। कांग्रेस के असन्तुष्ट लोग दूसरे दलों में शामिल होकर, उनके जरिए सत्तारूढ़ गुट से संघर्ष करने लगे। कांग्रेसी नेताओं की स्थिति कमजोर हुई और उनके लिए कांग्रेस संगठन में एकता और अनुशासन बनाने रखना कठिन हो गया, फलस्वरूप कांग्रेस त्यागने वालों की संख्या बढ़ी।
(10) सिद्धान्तहीन तथा नैतिकताशून्य राजनीति का सूत्रपात – दल-बदल की घटनाओं से देश में सिद्धान्तहीन, अवसरवादी राजनीति का सूत्रपात हुआ। जनता के जिम्मेदार प्रतिनिधियों तथा विधायकों की अवसरवादी तथा पदलोलुप बनने की छूट से अनैतिकता का बोलबाला बढ़ा। इससे विदेशों में भारत की प्रतिष्ठा घटी और लोकतन्त्र की बुनियाद कमजोर हुई। पदलोलुप और अवसरवादी विधायकों से जनकल्या की आशा करना ही व्यर्थ है।
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