राजनीतिक दल-बदल के प्रमुख कारण
प्रो. रजनी कठोरी के उचनव दल-बदल में दो बातों का मुख्य हाथ रहा है— चुनाव के पहले टिकट का बंटवारा और चुनाव के बाद मन्त्रिमण्डल का गठन। ये कोई नए कारण न थे। नयी बात सिर्फ यह थी कि 1967 में और बाद मं जितनी आसानी से लोग कांग्रेस छोड़ देते थे, उतनी पहले कभी नहीं देखी गयी थी। कांग्रेस में उनको बांधकर रखने की शक्ति बहुत कम हो गयी थी। वस्तुतः दल-बदल की इन देशव्यापी घटनाओं के मुख्य कारण निम्न प्रकार हैं-
(1) प्रभावशाली दली नेतृत्व का अभाव – स्वाधीनता संग्राम के प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले नेता सक्रिय राजनीति के क्षेत्र में विदा हो चुके थे और किसी भी राजनीतिक दल में ऐसा शिखर व्यक्तित्व नहीं रहा था जो उसके सदस्यों को बांधकर रख सके। कांग्रेसी और गैर-कांग्रेसी नेता के ही स्तर के अतः राष्ट्रीय व्यक्तित्व के अभव में दलीय सदस्यों पर नियन्त्रण कम हो गया।
(2) प्रत्येक विधायक की निर्णायक स्थिति- चतुर्थ आम चुनाव के बाद कांग्रेस दल और कुल मिलाकर विरोधी दल के सदस्यों की संख्या लगभग सन्तुलित होने के कारण प्रत्येक विधायक की स्थिति इतनी महत्त्वपूर्ण हो गयी कि वह अपने को मन्त्रिमण्डल की ‘कंजी’ समझने लगा। उदाहरणार्थ, अगस्त 1969 में मध्यावधि चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा में स्थिति यह थी कि चार सदस्यों के कांग्रेस छोड़कर विपक्ष में जा मिलने से चन्द्रभानु की कांग्रेस सरकार धराशायी हो सकती थी। चतुरथ चुनावों के बाद राजस्थान विधानसभा में गुप्त कांग्रेस और विरोधी दलों को लगभग बराबर स्थान प्राप्त थे। ऐसी सन्तुलित स्थिति से निश्चय ही विधायकों का महत्त्व बढ़ गया और दल-बदल द्वारा अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति में लग गए।
(3) गैर-कांग्रेसी दलों की स्थिति में सुधार- चतुर्थ आम चुनाव में विरोधी दलों को आशातीत सफलता मिली और भारतीय संघ के लगभग आधे राज्यों में उनकी स्थिति इतनी सुदृढ़ हो गयी कि वे सब मलकर मन्त्रिमण्डल का निर्माण कर सकते थे। इससे असन्तुष्ट और उपेक्षित कांग्रेसी विधायकों के मन में नयी आशाएं और आकांक्षाएं जाने लगीं। असन्तुष्ट विधायकों को लगा कि यदि मन्त्रि पद और वांछित लाभ उन्हें कांग्रेस में प्राप्त नहीं हो सकते तो वे दल-बदलकर विरोधी दलों से ये लाभ आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।
(4) कांग्रेस की दल-बदल नीति में परिवर्तन- कांग्रेस के संसदीय बोर्ड ने दल-बदलुओं को कांग्रेस में शामिल करने के प्रश्न पर अपनी नीतियों में औपचारिक परिवर्तन किया। संसदीय बोर्ड ने यह निर्णय किया कि गैर-कांग्रेसी विधायकों को कांग्रेस में शामिल किए जाने के बारे में सभी प्रतिबन्ध हटा दिए जाएं और मामले को दल के राज्य एककों के विवेकाधिकार पर छोड़ दिया जाए। इस नीति के फलस्वरूप बहुत से दल-बदलू विधायकों कांग्रेस में शामिल कर लिया गया। कांग्रेस कार्य समिति ने हैदराबाद अधिवेशन में राज्यों के कांग्रेसी विधायकों को अन्य दल-बदलू विधायकों के साथ मिल-जुलकर संयुक्त सरकारें बनाने के लिए अधिकृत किया।
(5) पदलोलुपता- सत्ता-प्रभुता का मोह और पद-लोलुपता ने देश के राजनीतिक वातावरण को इतना खराब और दूषित बना दिया कि विधायकों की दृष्टि में सिद्धान्त, आदर्श और नैतिकता का मूल्य-महत्त्व कम हो गया। विधायकों में अवसरवादिता की भावना अधिक हो गयी। अतः जब वे यह देखते हैं कि दल-बदल करने से उनकी स्थिति अच्छी बन सकती है, उनका प्रभाव बढ़ सकता है, उनकी आय में वृद्धि हो सकती है, वे विधायक से मन्त्री, उपमंत्री या राज्यमन्त्री बन सकते हैं, तो उनका मन डावांडोल हो जाता है। वे विचलित हो जाते हैं और अपना दल छोड़कर दूसरे दल में शामिल होने के लिए तैयार हो जाते हैं। नीचे दी गयी तालिका से स्पष्ट हो जाता है कि कितने दल-बदलुओं को मन्त्री पद से सुशोभित किया गया।
(6) व्यक्तिगत संघर्ष- अनेक बार विधायक और दल के नेताओं के बीच व्यक्तिगत संघर्ष और स्वभावों के न मिलने के कारण भी कई विधायक दल छोड़ने के लिए बाध्य हो जाते हैं।
(7) वरिष्ठ सदस्य की उपेक्षा- कई बार पार्टी में टिकटों का बंटवारा न्यायोचित नहीं होता। लगभग सभी प्रमुख दलों में दादागिरी की स्थिति है और जब दल से किन्हीं वरिष्ठ सदस्यों के दल के सर्वोच्च नेताओं के साथ अच्छे सम्बन्ध नहीं होते तब टिकटों के बंटवारे और अन्य अवसरों पर उन्हें निरन्तर उपेक्षा सहन करनी होती है और यह स्थिति उन्हें दल-बदल के लिए प्रेरित करती है।
(8) धन का प्रलोभन – अब त पद का ही नहीं, धन का प्रलोभन दिया जाता है। जैसे चुनावों में वोट खरीदने की कोशिश की जाती है वैसे ही दल-बदल करने के लिए विधायकों को धनराशि दी जाने लगी है। केन्द्रीय गृहमन्त्री ने लोकसभा में एक बार बताया था कि दल-बदलू का भाव हरियाणा में बीस हजार रुपए से चालीस हजार रुपए तक आंका जा रहा है। कुछ अन्य सदस्यों के विचार में यह राशि बीस हजार रुपए से एक लाख रुपए तक थी। हरियाणा के राज्यपाल ने राष्ट्रपति को भेजी गयी अपनी रिपोर्ट में कहा था, “दोनों पक्षों की ओर से यह आरोप लगाए जा रहे हैं कि दल-बदल कराने के लिए रुपया पानी की तरह बहाया जा रहा है।”
(9) जनता की उदासीनता – भारतीय मतदाता दल-बदल की घटना से उदासीन ही रहा। दल-बदल से न तो साधारण मतदाता को कोई धक्का लगा और न ही कोई चोट ही पहुंची। ऐसे कितने उदाहरण सामने आए जब दल-बदल करने वले विधायकों का सार्वजनिक रूप से स्वागत किया गया, फूल मालाएं पहनायी गयीं और उनका जुलूस निकाला गया। हरियाणा में तो जनता ने लगभग बत्तीस प्रतिशत दल-बदलुओं को विधानसभा चुनावों में पुनः निर्वाचित कर दिया।
(10) विचारात्मक ध्रुवीकरण का अभाव- भारत में विभिन्न राजनीतिक दलों में विचारात्मक ध्रुवीकरण का अभाव रहा है। कोई भी विधायक किसी भी दल में मिल जाए तो उसके सिद्धान्तों और विचारों पर कोई खास असर नहीं पड़ता। डॉ. सुभाष कश्यप लिखते हैं कि “जिस आसा नी से वे एक दल का परित्याग कर दूसरे दल में सम्मिलित होते हैं उससे एक बात तो बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि वे किसी राजनीतिक सिद्धान्त अथवा किसी दल की राजनीतिक विचारधारा को अधिक महत्त्व नहीं देते — इसके साथ-साथ चूंकि विभिन्न दलों में कोई वास्तविक विचारात्मक ध्रुवीकरण नहीं है और उनके मतभेदों का स्वरूप धुंधला है, अतः जब कोई व्यक्ति एक दल से सम्बन्ध विच्छेद कर किसी अन्य दल में शामिल होता है तो उसमें विचारधारा के परिवर्तन का कोई प्रश्न नहीं उठता।”
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