राष्ट्रीय आपातकाल के प्रभाव
आपात की उद्घोषणा के राजनीतिक तंत्र पर तीव्र तथा दूरगामी प्रभाव होते हैं। इन परिणामों को निम्न तीन वर्गों में रखा जा सकता है-
1. केंद्र-राज्य संबंधों पर प्रभाव,
2. लोकसभा तथा राज्य विधानसभा
3. मौलिक अधिकारों पर प्रभाव ।
के कार्यकाल पर प्रभाव, तथा;
केंद्र-राज्य संबंधों पर प्रभाव
जब आपातकाल की उद्घोषणा लागू होती है, तब केंद्र-राज्य के सामान्य संबंधों में मूलभूत परिवर्तन होते हैं। इनका अध्ययन तीन शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है कार्यपालक, विधायी तथा वित्तीय ।
(अ) कार्यपालक- राष्ट्रीय आपातकाल के समय केंद्र की कार्यपालक शक्तियों का विस्तार, राज्य को उसकी कार्यपालक शक्तियों के प्रयोग के तरीकों के संबंध में निर्देश देन तक हो जाता है। सामान्य समय में केंन्द्र, राज्यों को केवल कुछ विशेष विषयों पर ही कार्यकारी निर्देश दे सकता है किंतु राष्ट्रीय आपातकाल के समय केंद्र को किसी राज्य को किसी भी विषय पर कार्यकारी निर्देश देने की शक्ति प्राप्त हो जाती हैं, यद्यपि उन्हें निलंबित नहीं किया जाता।
(ब) विधायी- राष्ट्रीय आपातकाल के समय संसद को राज्य सूची में वर्णित विषयों पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता हगे। यद्यपि किसी राज्य विधायिका की विधायी शक्तियों को निलंबित न के हीं किया जाता, वह संसद की असीमित शक्ति का प्रभाव है। अतः केंद्र तथा राज्यों के मध्य विधायी शक्तियों के सामान्य वितरण का निलंबन हो जाता है, यद्यपि राज्य विधायिका निलंबित नहीं होती। संक्षेप में, संविधान संघीय की जगह एकात्मक जाता है। हो
संसद द्वारा आपातकाल में राज्य के विषयों पर बने गए कानून आपातकाल की समाप्ति के बाद छह माह तक प्रभावी रहते हैं।
जब राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा लागू होती हैं, तब यदि संसद का सत्र नहीं चल रहा हो तो राष्ट्रपति, राज्य सूची के विषयों पर भी अध्यादेश जारी कर सकता है। इसके अतिरिक्त संसद, राष्ट्रीय आपातकाल के परिणामस्वरूप केंद्र अथवा इसके अधिकारियों तथा प्राधिकारियो को संघ सूची से बाहर के विषयों पर इसके विस्तृत अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत बनाए गए कानूनो को लागू करने की शक्ति तथा कर्त्तव्य प्रदान कर सकती है। 1976 के 42वें संशोधन अधिनियम | द्वारा यह व्यवस्था की गई कि उपरोक्त वर्णित दो परिणामों (कार्यकारी तथा विधायी) का केवल आपातकाल लागू होने वाले राज्य तक ही नहीं वरन् किसी अन्य राज्य में भी विस्तार होता है।
(स) वित्तीय- जब राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा लागू हो तब राष्ट्रपति, केंद्र तथा राज्यों के मध्य करों के संवैधानिक वितरण को संशोधित कर सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि राष्ट्रपति, केंद्र से राज्यों को दिए जाने वाले धन (वित्त) को कम अथवा समाप्त कर सकता है। ऐसे संशोधन उस वित्त वर्ष की समाप्ति तक जारी रहते हैं, जिसमें आपातकाल समाप्त | होता है। राष्ट्रपति के ऐसे प्रत्येक आदेश को संसद के दोनों सदनों के सभा पटलों पर रखा जाना आवश्यक है।
लोकसभा तथा राज्य विधानसभा के कार्यकाल पर प्रभाव
जब राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा लागू हो तब लोकसभा का कार्यकाल इसके सामान्य कार्यकाल (5) वर्ष) से आगे, संसद द्वारा विधि बनाकर एक समय में एक वर्ष के लिए (कितने भी समय तक) बढ़ाया जा सकता है। किंतु यह विस्तार आपातकाल की समाप्ति के बाद छह माह से ज्यादा नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए पांचवीं लोकसभा (1971-1977) का कार्यकाल दो बार एक समय में एक वर्ष के लिए बढ़ाया गया था। इसी प्रकार, राष्ट्रीय आपात के समय संसद किसी राज्य विधानसभा का कार्यकाल (पांच वर्ष) प्रत्येक बार एक वर्ष के लिए (कितने भी समय तक) बढ़ा सकती है जो कि आपात काल की समाप्ति के बाद अधिकतम छह माह तक ही रहता है।
मूल अधिकारों पर प्रभाव
अनुच्छेद 358 तथा 359 राष्ट्रीय आपातकाल में मूल अधिकार पर प्रभाव का वर्णन करते हैं। 358, अनुच्छेद 19 द्वारा दिए गए मूल अधिकारों के निलंबन से संबंधित है, जबकि अनुच्छेद 359अन्य मूल अधिकारों के निलंबन (अनुच्छेद 20 तथा 21 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छोड़कर) से संबंधित है। ये दो प्रावधान निम्नानुसार वर्णित किए जाते हैं-
(अ) अनुच्छेद 19 के अंतर्गत प्रदत्त मूल अधिकारों का निलंबन- अनुच्छेद 358 के अनुसार जब राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा की जाती है जब अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त छह मूल अधिकार स्वतः ही निलंबित हो जाते हैं। इनके निलंबन के लिए किसी अलग आदेश की आवश्यकता नहीं होती है।
जब राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा लागू होती है तब राज्य अनुच्छेद 19 द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों से स्वतंत्र होता है। दूसरे शब्दों में, राज्य अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त 6 मूल अधिकारों को कम करने अथवा हटाने के लिए कानून बना सकता है अथवा कोई कार्यकारी निर्णय ले सकात है। ऐसे किसी कानून अथवा कार्य को, इस आधार पर कि यह अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त 6 मूल अधिकारों का उल्लंघन है, चुनौती नहीं दी जा सकती। जब राष्ट्रीय आपातकाल समाप्त हो जाता है, अनुच्छेद 19स्वतः पुनर्जीवित हो जाता है तथा प्रभाव में आ जाता है। आपातकाल के बाद अनुच्छेद 19 के विपरीत बना कोई कानून अप्रभावी हो जाता है। किंतु आपातकाल के समय हुई किसी चीज का प्रतिकार (भरपाई) नहीं होता यहां तक कि आपातकाल के बाद भी इसका तात्पर्य है कि आपातकाल में किए गए विधायी तथा कार्यकारी निर्णयों को आपातकाल के बाद भी चुनौती नहीं दी जा सकती। 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम ने अनुच्छेद 358 की संभावना पर दो प्रकार से प्रतिबंध लगा दिया है। प्रथम अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त 6 मूल अधधिकारों को युद्ध अथवा बाह्य आक्रमण के आधार पर घोषित आपातकाल में ही निबंलित किया जा सकता है न कि सशस्त्र विद्रोह के आधार पर दूसरे, केवल उन विधियों को जो आपातकाल से संबंधित हैं चुनौती नहीं दी जा सकती है तथा ऐसे विधियों के अंतर्गत दिये गए कार्यकारी निर्णयों को भी चुनौती नहीं दी जा सकती है।
(ब) अन्य मूल्य अधिकारों का निलंबन— अनुच्छेद 359 राष्ट्रपति को आपातकाल के मूल अधिकारों को लागू करने के लिए न्यायालय में जाने के अधिकार को निलंबित मूल अधिकार नहीं अपितु उनका लागू होना निलंबित होता है। वास्तविक रूप में ये अधिकार जीवित रहते हैं केवल इनके तहत उपचार निलंबित होता है। यह निलंबन उन्हीं मूल अधिकारों से संबंधित होता है, जो राष्ट्रपति के आदेश में वर्णित होते हैं। इसके अतिरिक्त यह निलंबन आपातकाल की अवधि अथवा आदेश में वर्णित अल्पावधि हेतु लागू हो सकते हैं और निलंबन का आदेश पूरे देश अथवा किसी भाग पर लागू किया जा सकता है। इसे संसद की मंजूरी के लिए प्रत्येक सदन में प्रस्तुत करना होता है। जब राष्ट्रपति का आदेश प्रभावी रहता है तो राज्य उस मूल अधिकार को रोकने व हटाने के लिए कोई भी विधि बना सकता है या कार्यकारी कदम उठा सकता है। ऐसी किसी भी विधि या कार्य को इस आधार पर चुनती नहीं दी जा सकती कि यह संबंधित मूल अधिकार से साम्य नहीं रखता है। ऐसे किसी आदेश की अवधि समाप्त होने पर संबंधित विधि को मूल अधिकार के समान ही समाप्त माना जाएगा परंतु इस आदेश के दौरान बनाई विधि के अंतर्गत किए गए कार्य का इस आदेश के समाप्त होने के बाद कोई उपचार उपलब्ध नहीं होगा। इसका अर्थ है कि आदेश के प्रभाव में किए गए विधायी व कार्यकारी कार्यों को आदेश समाप्ति के उपरांत चुनौती नहीं दी जा सकती है।
44वां संविधान संशोधन अधिनियम 1978, अनुच्छेद 359 के क्षेत्र में दो प्रतिबंध लगाता है— प्रथम, राष्ट्रपति अनुच्छेद 20 तता 21 के अंतर्गत दिए गए अधिकारों को लागू करने के लिए न्यायालय में जाने के अधिकार को निलंबित नहीं कर सकता है। अन्य शब्दों में, अपराध के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण का अधिकार (अनुच्छेद 20) तथा प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 21) आपातकाल में भी प्रभावी रहता है। द्वितीय केवल उन्हीं विधियों को चनौती से संरक्षण प्राप्त है जो आपातकाल से संबंधित हैं, उन विधियों व कार्यों को नहीं जो इनके तहत लिए अथवा बनाए गए हैं।
- धर्म और राजनीति में पारस्परिक क्रियाओं का उल्लेख कीजिए।
- सिख धर्म की प्रमुख विशेषताएं | Characteristics of Sikhism in Hindi
- भारतीय समाज में धर्म एवं लौकिकता का वर्णन कीजिए।
- हिन्दू धर्म एवं हिन्दू धर्म के मूल सिद्धान्त
- भारत में इस्लाम धर्म का उल्लेख कीजिए एवं इस्लाम धर्म की विशेषताएँ को स्पष्ट कीजिए।
- इसाई धर्म क्या है? ईसाई धर्म की विशेषताएं
- धर्म की आधुनिक प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
इसे भी पढ़े…
- मानवाधिकार की परिभाषा | मानव अधिकारों की उत्पत्ति एवं विकास
- मानवाधिकार के विभिन्न सिद्धान्त | Principles of Human Rights in Hindi
- मानवाधिकार का वर्गीकरण की विवेचना कीजिये।
- मानवाधिकार के प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त और प्राकृतिक अधिकार के प्रभाव
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर 9/11 के प्रभाव | 9/11 के आतंकवादी हमले का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर प्रभाव
- एशिया के नव-जागरण के कारण (Resurgence of Asia: Causes)
- एशियाई नव-जागरण की प्रमुख प्रवृत्तियाँ- सकारात्मक प्रवृत्तियाँ तथा नकारात्मक प्रवृत्तियाँ
- भारत पर 1962 के चीनी आक्रमण के कारण क्या थे? भारतीय विदेश नीति पर इसका क्या प्रभाव पड़ा?
- गुटनिरपेक्षता की कमजोरियां | गुटनिरपेक्षता की विफलताएं | गुटनिरपेक्षता की आलोचना