राजनीति विज्ञान / Political Science

राजनीतिक दल-बदल क्या है ? दल-बदल के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का उल्लेख कीजिए।

राजनीतिक दल-बदल क्या है
राजनीतिक दल-बदल क्या है

राजनीतिक दल-बदल क्या है ?

भारतीय राजनीति में सर्वाधिक प्रचलित राजनीतिक खेल का नाम है दल-बदल- इसे आप चाहें तो पक्ष परिवर्तन, एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में शामिल हो जाना, सदन में सरकारी दल छोड़कर विरोधी दल में मिल जाना, खेमा बदल लेना कुछ भी कह सकते हैं। नाइजीरिया में इसे ‘कार्पेट-क्रॉसिंग’ (Carpet Crossing) यानी कालीन बदलना कहते हैं क्योंकि वहां सरकारी पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए अलग-अलग कालीन होते हैं। यदि किसी को अपना पक्ष छोड़ना हो तो उसे अपने कालीन से हटकर दूसरे कालीन पर जाना पड़ता है।

निम्नलिखित तथ्यों की ओर जरा ध्यान दीजिए— अनुमान है कि पिछले तीस वर्षों में जो लोग विधायक बने हैं उनमें प्रत्येक पांच में से एक ने दल बदला होगा। 1957: से 1967 तक की अवधि में अनुसन्धानों के अनुसार 542 बार लोगों ने अपने दल बदले। 1967 में चौथे आम चुनाव के प्रथम वर्ष में भारत में 430 बार लोगों के दल बदलने का रिकार्ड कायम हुआ है। 1967 के चुनावों के बाद एक और रिकार्ड कायम हुआ— दलबदलुओं के कारण 16 महीने के भीतर 16 राज्यों में सरकारें गिरीं। हरियाणा के विधायक श्री गयालाल ने 15 दिन में ही तीन ‘बार बार दल-बदल राजनीति का वाचक एक नया शब्दबन्ध प्राप्त हुआ ‘आया राम, गयाराम’ । जुलाई 1979 में जनता पार्टी से दल-बदल के कार चरण सिंह प्रधानमन्त्री पद पर आसीन हो गए। उन्हें भारत का पहला दल-बदलू प्रधानमन्त्री कहा जाने लगा। जनवरी 1980 के लोकसभा निर्वाचनों के बाद कर्नाटक की कांग्रेस (अर्स) और हरियाणा की जनता पार्टी सरकारें दल-बदल के कारण रातों-रात इन्दिरा कांग्रेस सरकारें बन गयीं। हरियाणा ने मुख्यमन्त्री भजनलाल 47 विधायकों के साथ जनता पार्टी छोड़कर कांग्रेस (आई) में आ गए, जो एक नया रिकार्ड है।

दन-बदल हमारे लोकतन्त्र को वर्षों से खोखला कर रह है, इसे और अधिक आगे प्रोत्साहन देकर हम निश्यय ही लोकतन्त्र का भला नहीं कर रहे हैं। कच्चे अनुमानों के अनुसार अब तक 500 से ज्यादा दल बदलुओं को गद्दी मिल गयी है और कोई 25 मुख्यमन्त्री दल-बदलू ही कहे जा सकते हैं। दल-बदलू प्रधानमन्त्री भी बन चुके हैं। चन्द्रशेखर दलबदलू प्रधानमन्त्री ही थे। एक भूतपूर्व गृहमन्त्री ने लोकसभा में कहा कि दल बदलने की कीमत बीस हजार से चालीस हजार रुपए बतायी जाती है। कुछ अन्यों ने कुछ मामलों में यह कीमत एक लाख रूपए तक आंकी।

दल-बदल : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

दल-प्रणाली और दल-बदल की घटनाओं का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। दल-बदल का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि प्राचीनतम दलों का अस्तित्व । ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि लोकतान्त्रिक देशों में दल-बदल की घटनाएं लगातार होती रही हैं। फरवरी 1846 में अनुदार वाली दल (ब्रिटेन) में फूट पड़ गयी और 231 सदस्यों ने प्रधानमन्त्री पील के विरोध में मतदान किया। उन पर दल से विद्रोह करने का आरोप लगाया गया और पील उदार दल की सहायता से अपने पद पर बने रहे। विलियम ग्लेडस्टोन 1832 में अनुदार दल के टिकिट पर निर्वाचित हुए, किन्तु उन्होंने अनुदारवादी दल से अपना सम्बन्ध विच्छेद करके उदारवादी दल में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया, जहां उन्हें व्यापार मण्डल का उपाध्यक्ष बना दिया गया। 1886 में चेम्बरलेन के नेतृत्व में उदारवादी दल के अनेक सदस्यों ने सामूहिक रूप से दल-बदल किया। 1886 में ग्लैडस्टोन मन्त्रिमण्डल के त्यागपत्र का कारण दल-बदल ही था। सन् 1900 में विंस्टन चर्चिल अनुदारवादी दल के टिकिट पर संसद के सदस्य चुने गए, किन्तु 1904 में अनुदार दल से सम्बन्ध विच्छेद कर उदारवादी दल में सम्मिलित हो गए और 1926 में उन्हें उपनिवेश अवरमन्त्री बना दिया गया। सन् 1931 में श्रमिक दल के प्रधानमन्त्री रेम्जै मैकडॉनल्ड ने अपने दल का साथ छोड़ दिया और अनुदारवादियों एवं उदारवादियों से निर्मित राष्ट्रीय सरकार का प्रधानमन्त्री पद स्वीकार कर लिया।’ लास्की इस दल-बदल की घोर निन्दा की थी। दल-बदल के कारण आस्ट्रेलिया में सन् 1916, 19219, 1931 तथा 1941 में संघीय सरकारों का पतन हुआ।  न्यूजीलैण्ड के कॉण्टीनुअस मन्त्रिमण्डल के पतन का कारण दल-बदल ही था।

भारत में भी दल-बदल की घटनाएं कोई ऐसी नयी बात नहीं है जो चतुर्थ आम चुनावों के बाद ही सामने आयी हों। 1947 के निर्वाचनों के पश्चात् संयुक्त प्रान्त के मुख्यमन्त्री गोविन्द बल्लभ पन्त ने मुस्लिम लीग के कुछ सदस्यों को कांग्रेस में शामिल होने का प्रलोभन दिया और दल-बदलुओं में से हाफिज मुहम्मद इब्राहीम को मन्त्रिमण्डल में शामिल कर लिया। सन् 1950 में उत्तर प्रदेश के 23 विधायकों ने दल-बदल करके ‘जन कांग्रेस’ नाम एक नए दल की स्थापना की। अगस्त 1958 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के 98 सदस्यों ने मुख्यमन्त्री डॉ. सम्पूर्णानन्द में अविश्वास व्यक्त किया, जिसके फलस्वरूप कुछ ही समय बाद मुख्यमन्त्री को त्यागपत्र देना पड़ा। सन् 1962 में मद्रास के राज्यपाल श्रीप्रकाश ने राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित किया। कांग्रेस के अल्पमत में होते हुए भी जैसे ही राजाजी को सरकार बनाने का अवसर दिया गया वैसे ही 16 विरोधी सदस्यों ने कांग्रेस दल में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया और इस प्रकार कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो गया। रफी अहमद किदवई कांग्रेस दल से किसान मजदूर पार्टी में गए और फिर कांग्रेस में वापस आ गए तो उन्हें केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में भी शामिल कर लिया गया। प्रजा समाजवादी दल के नेता श्री प्रकाशम् को सन् 1953 में आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री पद का वचन देकर कांग्रेस में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया गया। सन् 1960 में केरल में कांग्रेस दल को सबसे अधिक स्थान प्राप्त हुए और उसने आर. शंकर के नेतृत्व में वहां मन्त्रिमण्डल की स्थापना की। 2 सितम्बर, 1964 को 15कांग्रेस सदस्यों ने कांग्रेस दल से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया और परिणामस्वरूप मन्त्रिमण्डल का पतन हो गया। सन् 1952 में कांग्रेस ने पेप्सू राज्य में कई अकाली विधायकों को प्रलोभन देकर और अपने दल में मिलाकर अपना मन्त्रिमण्डल बनाया। दल-बदल के ही कारण इस मन्त्रिमण्डल का पतन हो गया और अकाली दल के नेता ज्ञान सिंह राड़ेवाला ने दल-बदलुओं की सहायता से मन्त्रिमण्डल बनाया। विधानसभा की बैठक बुलाए जाने की पूर्वसन्ध्या को विरोधी दल के सदस्यों ने दल बदला और उन्हें तुरन्त मन्त्रिमण्डल में शामिल कर लिया गया। 1957 में उड़ीसा के कांग्रेस दल ने चार निर्दलीय सदस्यों को प्रलोभन देकर अपनी ओर तोड़ लिया और मन्त्रिमण्डल का निर्माण किया। 1952 में राजस्थान में कांग्रेसी सरकार के स्थायित्व का कारण दल-बदल ही था। कई निर्दलीय सदस्यों ने कांग्रेस के पक्ष में दल बदला और कांग्रेस के विधायकों की संख्या अधिक हो गयी। 1962 के चुनाव में भी कांग्रेस ने एक निर्दलीय सदस्य को अपनी तरफ मिलाकर सरकार बनायी। चतुर्थ आम चुनाव से पूर्व प्रजा समाजवादी पार्टी के नेता अशोक मेहता को योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाकर कांग्रेस में स्थान दिया। इस घटना से अनेक विधायक और संसद सदस्य भी प्रजा समाजवादी दल को छोड़कर कांग्रेस में जा मिले। ऐसा माना जाता है कि चतुर्थ आम चुनाव से पूर्व दल-बदल की प्रक्रिया के द्वारा प्रजा समाजवादी दल ने ही अधिकतम विधायक खोए और उसके विधायक कांग्रेस दल में ही शामिल हुए। दल-बदल का ही परिणाम है कि प्रसोपा, जिसमें कांग्रेस का विकल्प बनने की क्षमता थी, टूटता गया और देश में सुदृढ़ प्रतिपक्ष का निर्माण नहीं हो सका।

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